डॉ. प्रिया मानवी
_जिन एंटीबायोटिक मेडिसिन से पहले इलाज हो जाता था अब हो रही मौत. यही नहीं ये प्रोडक्ट अब खुद भी मर रहे हैं._
स्थिति यह है कि अब सामान्य रोग और संक्रमण से लोगों की जान जा रही है। इससे पहले सामान्य रोग से लोगों की जान नहीं जाती थी। 2019 में लांसेट में बेअसर हो रही दवाओं को लेकर एक रिपोर्ट छपी थी। इसमें वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के रिसर्च के हवाले से बताया गया था कि दक्षिण एशिया के देशों में 2019 में एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (AMR) से 389,000 से अधिक लोगों की जान गई।
इस बारे में आईसीएमआर में सीनियर साइंटिस्ट रह चुकी डॉक्टर कामिनी वालिया ने कहा था कि एएमआर एक ग्लोबल इमरजेंसी है। डॉ. वालिया का कहना था कि बैक्टीरिया का प्रतिरोधी बन जाना एक ऐसी ग्लोबल हेल्थ इमर्जेंसी बन चुकी है जिसे दुनिया की कोई भी सरकार अनदेखा नहीं कर सकती।
उनका कहना था कि हमें एंटीबायोटिक के यूज की मॉनिटरिंग करनी होगी। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि वे दवाएं भविष्य के लिए प्रभावी रहें।
*47% दवाओं को मंजूरी ही नहीं*
लांसेट मैगजीन में रीजनल हेल्थ-साउथ ईस्ट एशिया’ में में हाल ही में एंटीबायोटिक को लेकर चिंताजनक सर्वे आया है। इसमें बताया गया कि भारत के प्राइवेट हेल्थ सेक्टर में साल 2019 में इस्तेमाल की गईं 47% से अधिक एंटीबायोटिक दवाओं के लिए केंद्रीय औषधि नियंत्रक की मंजूरी नहीं ली गई थी।
स्टडी के अनुसार देश में 85 से 90% प्रतिशत तक एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। रिसर्च के अनुसार पिछले अनुमानों की तुलना में एंटीबायोटिक दवाओं की खपत की दर में कमी आई है। हालांकि, बैक्टीरिया से होने वाले विभिन्न रोगों से व्यापक रूप से लड़ने वाली एंटीबायोटिक दवाओं का अपेक्षाकृत काफी अधिक इस्तेमाल हुआ है।
रिसर्च के रिजल्ट से पता चलता है कि 2019 में वयस्कों के बीच डिफाइन्ड डेली डोज (प्रतिदिन डोज की दर) 5,07.1 करोड़ रही.
*कारबापेनेम मेडिसिन की मौत :*
भारत में बहुत सारे मरीजों पर अब ‘कारबापेनेम’ दवा का असर नहीं होगा। इसकी वजह है कि उन मरीजों के शरीर में इस दवा के प्रति सूक्ष्म जीवाणु रोधक (एंटीमाइक्रोबियल) क्षमता विकसित हो गई है। ‘कारबापेनेम’ एक शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवा है।
इसे मुख्य रूप से आईसीयू में भर्ती निमोनिया और सेप्टिसीमिया के मरीजों को दिया जाता है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) की एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। एंटीबायोटिक के बेअसर को होने को लेकर ना तो यह इकलौती और पहली खबर है और ना ही आखिरी है।
_दुनियाभर में एंटीबायोटिक के बेअसर होने को लेकर इस तरह की रिपोर्ट लगातार आ रही हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इन दवाओं के बेअसर होने से दुनियाभर में लाखों लोगों की मौत हो रही है।_
*दुनियाभर में 19 लाख लोगों की मौत*
साल 2019 में एंटीबायोटिक दवाओं के असर को लेकर एक स्टडी हुई थी। स्टडी में सामने आया था कि उस साल दुनिया भर में 12 लाख लोगों की मौत ऐसे बैक्टिरिया से हुए संक्रमण के कारण हुई जिन पर दवाओं का असर नहीं हुआ। मेडिकल टर्म में दवाओं के असर नहीं करने की स्थिति को एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (AMR) कहा जाता है।
_ऐसा उस स्थिति में होता है जब बैक्टिरिया, वायरस, फंगस या पैरासाइट समय के साथ बदलते रहते हैं। ऐसी स्थिति में उन पर दवाओं का असर नहीं होता है। ऐसे में निर्धारित बीमारी के लिए दी जाने वाली दवाई रोगी पर असर नहीं करती है। इसका परिणाम होता है कि संक्रमण से उसकी मौत हो जाती है।_
*एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्तेमाल*
दुनियाभर में पिछले कुछ साल में एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग बेतहाशा बढ़ा है। भारत में एंटीबायोटिक दवाओं का यूज पिछले 10 साल में प्रति व्यक्ति 30% बढ़ा है। वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन सेंट लुइस की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में भारत में 1629 करोड़ एंटीबायोटिक दवाएं बिकीं।
पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस यानी PLOS के मुताबिक, कोविड की पहली लहर जून 2020 से सितंबर 2020 तक 21.64 करोड़ डोज अतिरिक्त बेची गई। अधिक प्रयोग के कारण ये एंटीबायोटिक अब बेअसर साबित हो रहे हैं। यशोदा हॉस्पिटल्स हैदराबाद के कंसल्टेंट फिजिशियन और डायबेटोलॉजिस्ट डॉ. हरि किशन बूरुगु का कहना है कि समस्या कई स्तरों पर है।
इनमें बिना डॉक्टर की सलाह के रोगियों द्वारा एंटीबायोटिक का उपयोग, नीम हकीमों और यहां तक की कुछ योग्य डॉक्टरों द्वारा भी एंटीबायोटिक दवाओं के गैर जरूरी उपयोग की अनुमति देना शामिल है।
*एजिथ्रोमाइसिन का निगेटिव इफेक्ट*
स्टडी में सामने आया कि कोरोना काल में देश में लोगों ने जमकर एजिथ्रोमाइसिन का यूज किया। रिपोर्ट के प्रमुख रिसर्चर डॉ मुहम्मद एस हाफी ने कहा कि भारत एजिथ्रोमाइसिन समेत बड़े पैमाने पर एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल किया जाता है। उनका कहना था कि एजिथ्रोमाइसिन जैसे एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल किफायत के साथ किया जाना चाहिए। आमतौर पर एजिथ्रोमाइसिन का इस्तेमाल बैक्टीरियल इंफेक्शन के लिए किया जाता है।
इसका इस्तेमाल न्यूमोनिया, कान, फेफेड़े, साइनस, स्किन, गले के इंफेक्शन को खत्म करने के लिए किया जाता है। कोरोना काल के दौरान कई राज्य सरकारों ने कोविड के इलाज के प्रोटोकॉल में एजिथ्रोमाइसिन एंटीबायोटिक दवा को रखा था।
इस वजह से इसका खूब इस्तेमाल हुआ। स्थिति यह थी कि लोगों ने कोरोना संक्रमित होने के बाद डॉक्टरों से बिना पूछे भी खुद से ही एजिथ्रोमाइसिन खरीद-खरीद कर खाई।
*ऐसे काम करता है एंटीबायोटिक*
एंटीबायोटिक दवा सामान्य रूप से बैक्टीरिया से लड़ती है। इनका काम शरीर में नुकसानदायक बैक्टीरिया को खत्म करना होता है लेकिन अनावश्यक रूप से लेने पर यह दवाएं शरीर के फायदेमंद बैक्टीरिया को भी खत्म कर देती हैं।
इससे कई तरह की परेशानियां हो जाती हैं। दूसरी तरफ बैक्टिरियां खुद को खत्म होने से रोकने के लिए खूब जोर लगाते हैं। ऐसे में वे जीन की बनावट यानी अपनी मूल स्थिति में बदलाव कर के नए तरह के प्रोटीन बनाने लगते हैं।
बैक्टीरिया में इतनी क्षमता होती है कि वे कोशिका की दीवार की मरम्मत कर सकते हैं। साथ ही कोशिका की दीवार के चारों ओर एक ऐसा सुरक्षा कवच बना सकते हैं कि दवा उसमें प्रवेश ही ना कर सके। इस स्थिति में जब किसी दवा को बार-बार खाया जाता है तो बैक्टीरिया पहचानने लगते हैं कि दवा कितनी देर तक असरदार रह सकती है।
ऐसे में वे उस प्रोटीन का बनना रोक देते हैं और नए प्रोटीन बना कर खुद को बचाए रखने में रखने में कामयाब होते हैं।
*खुद ना बनें डॉक्टर*
किसी भी सूरत में खुद से डॉक्टर बनने का प्रयास ना करें। एंटीबायोटिक्स तभी लें, जब डॉक्टर ने उसे लेने की सलाह दी हो। बीमारी में रोजाना नियमित समय पर गोलियां लें और कोर्स जरूर पूरा करें। अगर कोर्स पूरा करने के बाद एंटीबायोटिक गोलियां बच गई हों, तो उन्हें वापस कर दें या फेंक दें।
बिना डॉक्टर के कहे एंटीबायोटिक खुद से कभी न लें, भले ही रोग के लक्षण एक समान हों। इसके अलावा डॉक्टर पर कभी एंटीबायोटिक्स देने के लिए दबाव न बनाएं, डॉक्टर को जरूरी लगेगा तो वह खुद ही आपको एंटीबायोटिक लिख देंगे।
*किस तरह नुकसानदायक हैं एंटीबायोटिक दवाएं*
एंटीबायोटिक का सेवन करने के बाद शरीर को काफी नुकसान होता है। लगातार इस्तेमाल से टीबी जैसी बीमारियां हो सकती हैं। इसी के मद्देनजर अब दुनिया भर में एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल और सेवन के खिलाफ मुहिम छेड़ी गई है।
जिसमें इन दवाओं का कम से कम इस्तेमाल करने के लिए डब्ल्यूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन 18 नवंबर से 24 नवंबर तक एंटीबायोटिक सप्ताह मना रहा है। इसके तहत एमिटी यूनिवर्सिटी मुंबई में एक संगोष्ठी के दौरान द फाउंडेशन ऑफ मेडिकल रिसर्च की डायरेक्टर नरगिस मिस्त्री ने एंटीबायोटिक से हो रहे परिणामों और दुनिया भर में इसके रोकथाम के लिए शुरू मुहिम से अवगत कराया।
*शरीर को खोखला बनाती हैं दवाएं*
आमतौर पर सर्दी, खांसी या बुख़ार होने पर तुरंत एंटीबायोटिक दवाई लेने का चलन बढा है। एंटिबायोटिक दवा शरीर में मौजूद बैक्टीरिया को मार देता है और परेशानी से राहत मिल जाती है। लेकीन इन दवाओं की कहानी यही ख़त्म नहीं होती।
लगातार सेवन बढ़ने से शरीर के मेटाबोलिज्म पर असर होता है और उसका संतुलन बिगड़ जाता है। नुक़सान करने वाले जीवाणु को खत्म करने के साथ साथ ही एंटिबायोटिक दवाएं शरीर में मौजूद अच्छे बैक्टीरिया पर भी प्रतिकूल असर करती हैं और उसे कम कर देती हैं। जो शरीर को अंदर से खोखला बना देता है।
नरगिस मिस्त्री के मुताबिक़ कोरोना वायरस दुनिया भर में फैलनें से लोगों में एंटीबायोटिक लेने का चलन भी बढ़ा है। जिससे इम्यूनिटी बढ़ने के बजाए अच्छे बैक्टीरिया ख़त्म होने से लोगों के हालत खस्ता होती गई और कई सारे लोगों की मौत भी हुई है। जिसके कारण अब एंटीबायोटीक के इस्तेमाल पर रोकथाम के लिए कदम उठाना बेहद जरुरी हो गया है।
*WHO की डॉक्टरों से भी अपील*
डब्ल्युएचओ ने इसी की पहल कई साल पहले की थी। जिस में एंटीबायोटीक दवाओं का प्रिस्क्रीब्शन कम करने की हिदायत दी गयी है।
डॉक्टरों के लिए एंटीबायोटीक स्टेवर्डशीप शुरु की गई है। जिसमें डॉक्टरों को इन दवाओं का प्रिस्क्रीब्शन कम देने को कहा गया है। साथ ही साथ मरीजों को भी इसका इस्तेमाल ना के बराबर करने की अपील की गई है।
इस मुहिम से हर शहर और गांव को जोड़ा जा रहा है। ताकि एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से भविष्य में निर्माण होने वाली भयंकर स्थिती को रोका जा सके।
डॉ. मिस्त्री के अनुसार एंटीबायोटिक दवाइयां आनुवंशिक विविधता (जेनेटिक डाइवर्सिटी ) भी पैदा करती हैं। जो मां से बच्चे में जा (परावर्तित) सकती हैं। इन एंटीबायोटिक दवाइयों को लेने से असर शरीर पर क्या होता है, यह जानना भी बेहद जरुरी है। दवाइयों के लगातार इस्तेमाल से माइक्रोबियल फ़िटनेस पर असर होता है।
ऐसे होने का अनुमान पहले से लगा होता है। लेकीन सेवन बढ़ने से स्थिती बिगड़ती जाती है। जो आपके शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति को खत्म कर देता है।
*गरीब देशों में अधिक चलन*
गरीब देशों में इसका असर ज्यादा देखा जा रहा है। गरीब देशों के 33 फिसदी लोग इसका शिकार बनते हैं। जो कि अमीर देशों के मुक़ाबले नौ गुना ज्यादा है। इसे एक अलार्मिंग स्थिती भी कहा जा सकता है।
इन देशों में कम्युनिटी संक्रमण भी ज्यादा होता है। सीमित मात्रा में दवाइयां होने के कारण इसे रोक पाना भी गरीब देशों के लिए काफी मुश्किल होता है। जिसके चलते यहां पर बुख़ार और पेट की बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। खासकर महिलाओं में युरीनरी इनफ़ेक्शन बढ़ना भी इसी की वजह हो सकती है।