महाकाल के राज्य में काल के कपाल पर भ्रष्टाचार की कांव-कांव
महाकाल के राज्य में काल के कपाल पर भ्रष्टाचार की कांव-कांव मची हुई है। महालेखाकार की ड्राफ्ट रिपोर्ट में टेक होम राशन पोषण आहार में गड़बड़ियों की बात क्या सामने आई राजनीतिक गिद्धों में अंगड़ाई दिखने लगी। दूसरे को भ्रष्ट और खुद को ईमानदारी का पुतला साबित करने की होड़ लग गई। लोकतंत्र के मंदिर में पहले आरोप लगाया जाए या पहले जवाब आ जाए इस पर ही द्वन्द शुरू हो गया। आरोप पक्ष की मंशा थी कि पहले वह अपनी बात कर ले फिर सरकार जवाब दे। इसी उठापटक में लोकतंत्र के मंदिर का मान मर्दन हो गया।
खैर अब मुद्दे पर आते हैं कि मध्यप्रदेश और कुपोषण का इतना करीबी नाता क्यों बना हुआ है? जब हर साल सरकार करोड़ों रुपए पोषण के लिए खर्च करती है तो फिर जिद्दी कुपोषण खत्म क्यों नहीं होता है? पोषण आहार पर राजनीतिक आवाज पहली बार नहीं उठी है। हमेशा इसमें गड़बड़ी की बात आती ही रहती है। केवल बात आती है लेकिन ना मालूम कौन सा जोड़ काम कर जाता है कि कभी भी बात आगे नहीं बढ़ती। इस बार भी पोषण आहार मामले में ऐसा ही होता दिखाई पड़ रहा है।
अनियमितता और गड़बड़ी के लिए वर्तमान, भूत को जिम्मेदार बता रहा है तो भूत, वर्तमान को घोटाले का किरदार बता रहा है। भ्रष्टाचार के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे रहा है। प्रश्न के बदले प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। भ्रष्टाचार के कांटे को भ्रष्टाचार के कांटे से निकालने का दलगत महायुद्ध चल रहा है। सिद्धांतों, आदर्शों, लच्छेदार आरोपों और जवाबों के जाल में सारा मामला उलझ गया है। अब तो यह समझना भी मुश्किल हो गया है कि गड़बड़ी क्या हुई है? आरोप और सफाई पर इतनी तरह की बातें और आंकड़े मीडिया में आ रहे हैं कि सब कुछ गोलमाल हो गया है।
भूत से उद्भुत महालेखाकार की ड्राफ्ट रिपोर्ट से शुरू हुए इस मामले में चार स्टेकहोल्डर माने जा सकते हैं। एक स्टेकहोल्डर तो सरकार है जो सब कुछ नियंत्रित करती है। दूसरा स्टेकहोल्डरएक विपक्ष है जो जनहित में गड़बड़ियों पर नजर रखता है। एक स्टेकहोल्डर तंत्र है जो क्रियान्वयन करता है और एक स्टेकहोल्डर जनता है जिसके नाम पर, जिसके लिए यह सब किया जाता है।
जनता की तो पांच साल में एक बार जरूरत पड़ती है। इसलिए बाकी तीन पक्ष एक तरफ और जनता एक तरफ हो जाती है। जब भी कोई भ्रष्टाचार का मामला आता है तो जनता को इतना कंफ्यूज कर दिया जाता है कि उसे कुछ समझ ही नहीं आता। वैसे भी भोली-भाली जनता सबको अपने जैसा ही मानती है। जनता के अलावा तीन स्टेकहोल्डर हैं, सब कुछ उन पर ही निर्भर करता है।
फ्री टेक होम राशन का जो मामला है, उसमें जो रिपोर्ट आई है और सरकार की ओर से जो सफाई पेश की गई है, उसमें एक बात यह तो समझ आ रही है कि कहीं ना कहीं कोई गड़बड़ी हुई है। सरकार की सफाई यह कह रही है कि गड़बड़ी का अधिकांश हिस्सा भूतकाल की सरकार के समय का है। भूतकाल की सरकार का कोई बहुत अधिक मायने इसलिए नहीं बचता क्योंकि उस सरकार के कई पिलर इस सरकार में लगे हुए हैं। जरा सा ही दिमाग लगाया जाएगा तो पता चल जाएगा कि कालखंड पर आरोप-प्रत्यारोप, कालखंड के साथ बेमानी होगी। कालखंड भले अलग हो लेकिन कर्ता-धर्ता दोनों कालखंड में काफी समय तक कमोबेश वही हाथ थे।
भोजन ही एक ऐसी चीज है जो जन्म से शुरू होकर मृत्यु तक जारी रहती है। पोषण और कुपोषण भी भोजन के ही बायप्रोडक्ट हैं। पोषण आहार में गड़बड़ी भी भोजन के साथ ही जुड़ी हुई है। खाने में किसी को भी सबसे स्वादिष्ट मिठाई ही लगती है। मिठाइयों में इमरती और जलेबी भारत में तो सर्वत्र पाई जाती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इमरती को सबसे बढ़िया मिठाई के रूप में माना और परोसा जाता है। विचारधारा और नीतियों के नाम पर लड़ने वाले राजनीतिक दल भोजन के मामले में एक सा ही सोचते और करते होंगे, ऐसा माना जा सकता है।
इमरती मिठाई के स्वाद पर कोई दलीय मतभेद नहीं हो सकता। पोषण आहार के मामले में भी इमरती का स्वाद न कभी कोई भूला है ना भूल सकेगा। आरोप और सफाई अपनी जगह हैं लेकिन नौनिहालों के पिचके गाल, राजनीतिक चालों से कैसे ठीक हो जाएंगे? कुपोषण के कारण जो नौनिहाल काल के गाल में समा गए जिन्होंने दुनिया में पोषण और इमरती का स्वाद भी नहीं जाना उसके लिए किसी को तो जिम्मेदार माना जाएगा? यह अलग बात है कि कौन सी अदालत सही लोगों को जिम्मेदार ठहरायेगी। वैसे तो आज आत्मअदालत से बड़ी कोई अदालत नहीं है।
एक बहुत प्रचलित कहानी है। एक व्यक्ति रास्ते में जा रहा था। एक फल के ठेले पर उसके मन में फल चुराने का विचार आया। दुकानदार की आंख बचाकर उसने एक फल चुरा लिया। थोड़ी दूर जाने के बाद उसकी आत्मा ने झकझोरा, यह गलत है, यह चोरी है। आत्मबोध से पीड़ित व्यक्ति ने वापस जाकर फल वाले से कहा कि यह फल अच्छा नहीं है इस को बदल दो। दुकानदार ने सोचा कि शायद उसने फल खरीदा होगा यह सोचकर उसने फल बदल दिया। अब उस व्यक्ति ने विचार किया कि पहले वाला फल चुराया था लेकिन यह दूसरा वाला फल तो दुकानदार ने दिया है। इस आत्मबोध से उसने अपनी चोरी को जस्टिफाई कर दिया।
यह जस्टिफिकेशन आत्मसुधार नहीं आत्मसंहार ही माना जाएगा। भ्रष्टाचार के नाम पर आज राजनीतिक जगत में इसी तरह के आत्मसुधार के आरोप और सफाई रोज़ देखने को मिल रहे हैं। मजबूरी में भ्रष्टाचार तो एक बार समझा जा सकता है लेकिन भ्रष्टाचार आदत बन जाती है, यह तब समझ आता है, जब सुधार की न तो कोई उम्मीद होती है और न समय होता है। पोषण आहार भ्रष्टाचार की शिकायतें प्रमाणित हों या नहीं हो लेकिन अंतरात्मा तो कभी भी झूठ नहीं बोलती।