रजनीश भारती
हजारों साल से शोषित पीड़ित वर्ग की बहन-बेटियों के खिलाफ बलात्कार का सिलसिला जारी है। जो मामले दबा दिए गये उनकी संख्या अनगिनत है। इधर हाथरस, बलरामपुर और अब लखीमपुर खीरी में दो बेटियों के साथ दरिंदों ने बलात्कार किया और हत्या कर दी।
शोषक वर्ग की मीडिया ने उन बेटियों की जाति खोज लिया। मामला दलित का है, और मीडिया चुप हो गई।
दलित नेताओं ने भी उन बेटियों की जाति खोज लिया। घड़ियाली आंसू बहा कर सहानुभूति दिखाने का मौका मिल गया। क्योंकि चुनाव में इनके वोटों को भी तो बेचना है।
जाति तो अंधों को भी दिखाई देती है, मगर वर्ग चेतना न हो तो आर्थिक सवाल आँख के सामने होने के बावजूद भी नहीं दिखता, भले ही वे IAS, PCS, लेखक, विद्वान कुछ भी हों मगर जाति का चश्मा जबतक लगा है तब तक वे आर्थिक पक्ष को देख नहीं पाते हैं।
शादी करना हो तो बहुतों की वर्ग दृष्टि खुल जाती है, वे गरीबों की औकात देखने लगते हैं, मगर बलात्कार या व्यभिचार करते समय तो ये लोग जाति, धर्म, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र… आदि का कोई भेद नहीं देखते। वास्तव में यह शोषक वर्ग की दृष्टि है जो अधिकांश दलितवादी नेताओं में भरी हुई है।
हमें उपरोक्त घटना का आर्थिक पक्ष भी देखना होगा।
दलित होना एक बात है, भूदासता की स्थिति में होना दूसरी बात है। दलित होना जातीय पक्ष है भूमिहीन व गरीब किसान होकर भूदासता की स्थिति में घुट-घुट कर जीना आर्थिक पक्ष है।
दोनों में मुख्य कौन है?
मुख्य अन्तर्विरोध को समझते हुए उसी आधार पर सही संघर्ष खड़ा हो सकता है। मुख्य हैं भूदासता की स्थिति में होना। दलित जब तक भूदासता की स्थिति में रहेगा तब तक उसके ऊपर ऐसे अत्याचार होते रहेंगे।
इसी तरह शोषण एक बात है, उत्पीड़न दूसरी बात है। इनमें बुनियादी बात कौन है? बुनियादी बात है शोषण, क्योंकि जिसका शोषण होता है अक्सर उसी का उत्पीड़न होता है।
जो कानून या संविधान के पुजारी हैं वे लोग उत्पीड़न के खिलाफ तो लड़ते हुए देखे जाते हैं, मगर शोषण के खिलाफ नहीं। क्योंकि शोषण संविधान सम्मत है और उत्पीड़न संविधान के विरुद्ध है। शोषक वर्ग का यह संविधान भी हमारे साथ क्या मजाक कर रहा है, हमारे श्रम के शोषण को जायज ठहराता है और जब हमारा उत्पीड़न होता है तो हमें संरक्षण देने के लिए ताल ठोंकता है।
शोषण अतिरिक्त मूल्य के रूप में हो रहा है
मगर राष्ट्रीय पटल पर उभरे हुए कई दलित नेताओं को तो अतिरिक्त मूल्य की परिभाषा तक नहीं मालूम है। जिन कुछेक लोगों को मालूम भी है वे अतिरिक्त मूल्य के शोषण को जायज ठहराते हैं, क्योंकि उनका संविधान भी अतिरिक्त मूल्य के शोषण को जायज ठहराता है।
जब शोषण के कारण ही उत्पीड़न का वजूद है तो ऐसी परिस्थिति में शोषणकारी व्यवस्था के पक्ष में खड़े होकर बलात्कार या अन्य तरह के उत्पीड़न का विरोध करना सिर्फ पाखण्ड ही हो सकता है। दलितवादी नेता इसी तरह का पाखण्ड कर रहे हैं।
सरकार को मालूम है, ये लोग उत्पीड़न या बलात्कारों के आर्थिक पहलू को नहीं छुएंगे, दो-चार दिन हो-हल्ला करके चुप हो जाएंगे। हाथरस और लखीमपुर जैसे जघन्य काण्ड होते रहेंगे, दलित वोटों के सौदागर दलितों का वोट बेचते रहेंगे, बलात्कारी शोषक वर्ग इन सौदागरों से दलितों का वोट खरीदता रहेगा, लेकिन कब तक…..
*रजनीश भारती*