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अमर रहेगा इंदिरा जी का बलिदान

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सुसंस्कृति परिहार

31अक्टूवर 1984 की मनहूस सुबह ,इंदिरा जी की मौत की सुबहा थी । हालांकि ख़बर देर से दी गई ।पर बी बी लंदन ने इसे 10बजे से प्रसारित करना शुरू कर दिया था ।वह दिन आम लोगों के लिए उदास और ग़मग़ीन कर देने वाला दिन था ।तमाम देश गहन अंधकार में डूब गया था कुछ  आक्रोश से भरे लोग बेवजह एक विशेष कौम के खिलाफ हो गये थे।वे दिन जब याद आते हैं तो उन्मादियों के प्रति सहज ही दुर्भावना जन्म ले लेती है । बहरहाल वह एक दुखद अध्याय था । भारतीय इतिहास का त्रासद काल ।उस वक्त लोग उन्हें इसलिए और याद कर रहे थे क्योंकि उन्होंने अपने मरने की अंतिम रात भुवनेश्वर की एक सभा में कर दी थी।अटल बिहारी बाजपेई जी ने तो उन्हें बांग्लादेश निर्माण पर देवी दुर्गा शब्द से नवाजा था।सच तो यह है अपना बलिदान दिया देकर उन्होंने भारत के ख़ूबसूरत सूबे पंजाब को अलगाववादियों से बचा लिया।इसी तरह पूर्व से पश्चिम पाकिस्तान मिटा कर भारत को जो रक्षण दिया वह अविस्मरणीय है।

             आयरन लेडी के नाम से विख्यात इंदिरा जी ने आपातकाल ना लगाया होता तो उनके मुकाबले शायद ही कोई नेता होता । हालांकि उनके उम्दा कामों की लंबी फेहरिस्त है प्रिविपर्स की समाप्ति , बैंकों का राष्ट्रीयकरण, सोवियत रूस से मैत्री ,सफल विदेश नीति , अंतरिक्ष में राकेश शर्मा से बात ,बांग्लादेश का उदय ,सिक्किम को   भारत भू का राज्य बनाना , कश्मीर में प्रधानमंत्री पद ख़त्म करना प्रमुख हैं ।कश्मीर की रानी हब्बा खातून उन्हें बहुत पसंद थी । कश्मीर उनका घर था । कश्मीर के प्रति वे हमेशा सहृदय रहीं ।उसी कश्मीर में जब देश के सांसदों पत्रकारों को वहां जाने की मनाही हो तब वहां एक महिला द्वारा मैनेज कर   विदेशी दक्षिण पंथी सांसदों को घुमाया गया और यह जताने की कोशिश हुई कि वहां सब ठीक है । आतंक समाप्त करने की दिशा में भारत अच्छा काम कर रहा है ।देश के अंदरूनी मामले को अंतरर्राष्ट्रीय मामला बनाया जा रहा है।यह बेहद चिंताजनक है ।

            ज्ञातव्य हो आज़ादी के तुरंत बाद जब कबीलाईयों ने भारत पर हमला कर (अधिकृत कश्मीर )मुजफ्फराबाद इलाके को अपने कब्ज़े में ले लिया था तब नेहरू की सेना भी कम थी और वे हमलावर नहीं बनना चाहते थे इसीलिए उन्होंने बड़ी विनम्रता से मामला राष्ट्रसंघ के सुपुर्द कर दिया । राष्ट्रसंघ ने जो फैसला दिया उसने उन्हें हिला दिया । जो जहां है उसी को सीमा मानने नेहरूजी बाध्य हुए। राष्ट्रसंघ  बार बार कश्मीरी अवाम के जनमत संग्रह की बात करता रहा लेकिन नेहरू जी इसे टालते रहे क्योंकि वे जानते थे कश्मीर वासी ना तो पाकिस्तान के साथ जाना चाहते थे और ना ही भारत के साथ ।वे आज़ाद वतन के पक्षधर थे । इसीलिए उसी फार्मूले पर चलते रहे जो महाराज हरिसिंह के साथ हुआ था ।जब इंदिरा जी सत्ता में आई तो उन्होंने अपने पिता की इस भूल को सुधारा । शिमला समझौता किया पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ । इसमें उल्लिखित है कि भारत और पाकिस्तान अपने मामले मिलकर निपटायेंगे तथा इसमें किसी दूसरे देश का दख़ल नहीं होगा ।2018 तक इस समझौते पर ठीक-ठाक अमल हुआ लेकिन आज यह समझौता गुपचुप अंदरुनी फायदा अडानी को दिलाने वाला हो गया है बाकी सब दम तोड़ता नज़र आ रहा है।उधर चीन का भारत भू पर शिकंजा बढ़ता ही जा रहा है। वहां भी अर्थतंत्र के फलसफे नज़र आते हैं।

                अमरीका, चीन और अन्य यूरोपीय देश जो  वर्तमान सरकार की वकालत कर रहे हैं वह ठीक  नहीं है , उनका हस्तक्षेप ख़तरे से ख़ाली नहीं । राष्ट्रसंघ भी खुलकर चेतावनी दे रहा है । इंदिरा जी ने जो भूल सुधारी थी ।हमें सोचना होगा कहीं देश फिर ग़लत रास्ते पर तो नहीं जा रहा है । कश्मीरी अवाम के दर्द को भी समझना होगा ।वे जिस कदर परेशान हैं अगर  आज़ाद होने तैयार हो गये तो उन्हें चीन , अमेरिका क्या छोड़ेगा ?वादिये कश्मीर हमारा है हम उनके साथ है ।यह विश्वास रखना ही होगा तथा शिमला समझौते को कायम रखना होगा । यह इंदिरा जी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।

आजकल भारत जोड़ो यात्रा के दरम्यान उनके पौत्र राहुल गांधी जो जन समर्थन मिल रहा है उसमें बड़ी भूमिका उनकी दादी की भी है लोग आज भी उन्हें इंदिरा अम्मा की यादों से जोड़कर देख रहे हैं यह अनूठा पावन प्यार और विरासत में मिली शालीनता और कर्मठता में भली-भांति देख रहे हैं। राजनीति में ये दोनों पाठ मायने रखते हैं।यह देश को इस समय ज़रूरी है।

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