लखनऊ: बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती अपने पुराने तेवर में लौटती दिख रही हैं। भले ही वह राजनीतिक मैदान में अब उस प्रकार से सक्रिय न हों, लेकिन मतदाताओं तक संदेश पहुंचाने में तो सफल हो ही जाती हैं। यूपी चुनाव 2022 में मायावती चुनावी मैदान में नहीं उतरी, तब भी 12 फीसदी से अधिक वोट हासिल कर उन्होंने दलित राजनीति में अपने प्रभाव को साफ दिखा दिया। हालांकि, अब उनके दलित वोट बैंक पर कई दावेदार पनपने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी की ओर से दलितों के लिए किए जाने वाले कार्यों के आधार पर इस वोट बैंक पर अपना दावा जताया जा रहा है। वहीं, भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद भी दलित वोट बैंक में सेंधमारी करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। इन तमाम प्रयासों के बीच बसपा प्रमुख मायावती अपने पुराने वोट समीकरण को साधने की कोशिश करती दिख रही हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी दलित और मुस्लिम गठजोड़ के जरिए सत्ता की सीढ़ी चढ़ती रही है। अब एक बार फिर मायावती उसी समीकरण के सहारे 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगाने की कोशिश करती दिख रही हैं। हालांकि, इससे पहले नगर निकाय चुनाव 2022 बसपा के लिए परीक्षा साबित होगी। इसमें सफलता के जरिए समाजवादी पार्टी और भाजपा को संदेश देने का प्रयास मायावती का है।
आजम पर नरम, सपा- भाजपा पर गरम
मायावती के हमलावर तेवर को देखिए तो आप साफ महसूस करेंगे कि उनका अटैक समाजवादी पार्टी पर ज्यादा है। भारतीय जनता पार्टी भी निशाने पर है, लेकिन उनके सुर आजम खान को लेकर नरम हैं। बसपा ने इस साल उप चुनावों के मैदान में अपनी दखलंदाजी नहीं दिखाई है। यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के बाद अब तक 6 उप चुनाव हो चुके हैं। इसमें से केवल एक उप चुनाव के मैदान में बहुजन समाज पार्टी का उम्मीदवार नजर आया। यूपी चुनाव 2022 के बाद आजमगढ़ से सांसद अखिलेश यादव और रामपुर से सांसद आजम खान ने लोकसभा की सदस्यता छोड़ी थी। इसके बाद उप चुनाव हुए। इसके अलावा गोला गोकर्णनाथ विधानसभा सीट पर भाजपा विधायक अरविंद गिरी के निधन के बाद उप चुनाव हुआ। रामपुर विधानसभा सीट पर सपा विधायक आजम खान की सदस्यता और खतौली विधानसभा सीट पर विक्रम सिंह सैनी की सदस्यता जाने के बाद उप चुनाव हुआ। वहीं, मैनपुरी लोकसभा सीट पर सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद उप चुनाव हुआ। इन उप चुनाव में से केवल आजमगढ़ उप चुनाव के मैदान में ही बहुजन समाज पार्टी पूरे दमखम के साथ उतरती नजर आई।
आजमगढ़ लोकसभा सीट से बसपा ने शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को चुनावी मैदान में उतारा था। असर यह रहा कि सपा के गढ़ में भाजपा ने सेंधमारी कर दी। भाजपा उम्मीदवार दिनेश लाल यादव निरहुआ ने सपा के धर्मेंद्र यादव को हरा दिया। बसपा ने रामपुर सीट पर आजम खान के लिए कोई उम्मीदवार नहीं उतारा। गोला गोकर्णनाथ विधानसभा सीट पर भी बसपा चुनावी मैदान में नजर नहीं आई। पिछले दिनों हुए खतौली एवं रामपुर विधानसभा उप चुनाव और मैनपुरी लोकसभा उप चुनाव के मैदान में भी बसपा नदारद रही। अब बसपा प्रमुख हमलावर हैं। निशाने पर सपा है और भाजपा से गठजोड़ का आरोप है।
मुस्लिमों को साधकर कोर वोट बैंक को जोड़ने की कोशिश
बसपा प्रमुख मायावती की नजर मुस्लिम वोट बैंक पर है। यूपी चुनाव 2022 के बाद से ही वह इस वोट बैंक को साधने की कोशिश में लगी हुई हैं। आजम खान के जेल में रहने का मुद्दा हो या मुस्लिमों पर कार्रवाई, मायावती ने हर मुद्दे पर खुलकर बात की। दरअसल, यूपी चुनाव में बसपा का प्रदर्शन काफी खराब था। पार्टी केवल एक विधानसभा सीट पर जीत दर्ज कर पाने में कामयाब रही। मायावती के सामने चुनौती पार्टी को एक बार फिर खड़ा करने की है। लोगों के बीच स्वीकार्य बनाने की है। ऐसे में बसपा प्रमुख मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने मनाने में जुट गई हैं। आजम खान के उम्मीदवार असिम रजा की रामपुर सीट से हार को वे भाजपा और सपा के गठजोड़ से जोड़कर एक प्रकार से अपने पक्ष में बड़े वोट बैंक को लाने की कोशिश कर रही हैं।
दरअसल, मायावती करीब तीन दशक से 20 से 25 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करती रही हैं। दलित में जाटव वोट बैंक उनका आधार है, जबकि अन्य दलितों के बीच भी वे स्वीकार्य रही हैं। ओबीसी वोट बैंक का एक बड़ा तबका 2014 से पहले मायावती के साथ जुड़ा हुआ था। लेकिन, यूपी में पीएम नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से ओबीसी वोट बैंक बसपा से छिटका। जाटव के अलावा अन्य दलित वोट बैंक में यूपी चुनाव 2022 के दौरान सेंधमारी हुई। सत्ता से बाहर रही बसपा वोट बैंक को साधने की कोशिश में लगी तो रही है, लेकिन वहां तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हुई। ऐसे में मायावती अब एक अलग प्रकार से प्रयास करती दिख रही हैं।
आजम खान जैसे मुस्लिमों के जाने-पहचाने वाले चेहरों का मसला उठाकर उनके बीच पहुंचने की कोशिश में हैं। उनकी सहानुभूति पाकर मायावती समाजवादी पार्टी के मुस्लिम + यादव (माय) समीकरण तो बिगाड़ने में जुटी हैं। यूपी चुनाव के बाद से ही अखिलेश पर मुस्लिमों को नजरअंदाज करने का आरोप लगता रहा है। हालांकि, पिछले दिनों अखिलेश ने आजम का मुद्दा जोर-शोर से उठाकर इस स्थिति से निपटने की कोशिश की है। लेकिन, रामपुर लोकसभा सीट के बाद विधानसभा सीट पर भी सपा के हार के बाद सवाल उठे हैं। मायावती इसी स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश में हैं।
चंद्रशेखर की चुनौती कितनी अहम?
खतौली विधानसभा सीट पर राष्ट्रीय लोकदल उम्मीदवार मदन भैया की जीत के बाद से दावा किया जा रहा है कि दलित वोट बैंक पर चंद्रशेखर आजाद का प्रभाव बढ़ा है। चंद्रशेखर आजाद ने राष्ट्रीय लोक दल उम्मीदवार के पक्ष में वोट मांगा था। रालोद उम्मीदवार की यहां से जीत हुई है। हालांकि, मायावती की पार्टी बसपा खतौली से खड़ी ही नहीं हुई थी। ऐसे में दलित वोट बैंक के पास एक रास्ता चुनने की खुली छूट थी। कुछ ने भाजपा के पक्ष में वोट किया, तो कुछ ने विरोध में। ऐसे में मायावती के जानने और मानने वाले नेताओं का भी कहना है कि जैसे ही बसपा इन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारेगी तो फिर स्थिति बदल जाएगी। मायावती ने यूपी चुनाव 2022 इसके दौरान भी दिखाया है कि दलितों के बीच वे आज के समय में भी स्वीकार्य हैं। ऐसे में चंद्रशेखर की चुनौती को राजनीतिक विश्लेषक भी बड़ी चुनौती तत्काल तो नहीं ही मान रहे।
मायावती के निशाने पर है निकाय चुनाव
मायावती के निशाने पर नगर निकाय चुनाव है। निकाय चुनाव के जरिए वह बसपा को रूट लेवल पॉलिटिक्स में स्थापित करने की कोशिश में जुटी हुई हैं। इसमें उन्हें दलित वोट बैंक के साथ-साथ मुस्लिम वोट बैंक की भी जरूरत होगी। नगर निकाय चुनाव 2017 में 16 नगर निगमों में से दो नगर निगम पर बसपा का कब्जा हुआ था। वहीं, 14 पर भाजपा जीती थी। मायावती की कोशिश इस आंकड़े को बढ़ाने की है। अगर ऐसा होता है तो वह अपने वोट बैंक को बड़ा संदेश देने में कामयाब होंगी। वे दलितों के साथ मुस्लिम वोट बैंक को जोड़कर भाजपा से नाराज होने वाले वोट बैंक को एक बड़ा संदेश दे सकेंगी कि बसपा एक ताकत के रूप में खड़ी है। अभी इस प्रकार का संदेश केवल सपा देती दिख रही है। इस कारण यूपी चुनाव 2022 के बाद यूपी के विपक्षी दलों के केंद्र में केवल अखिलेश यादव ही दिख रहे हैं। मायावती की कोशिश वहां अपना स्थान बनाने की दिख रही है।