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ज़ुल्म के साए में लब खोलेगा कौन ?जब हम ही चुप हो जाएँगे, तो बोलेगा कौन ?

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स्वदेश कुमार सिन्हा

आए गए कितने यहाँ/ कितने हुए फितने यहाँ,

एक तुम ही नहीं हो हुक्मरान/ कि हुकूमत की जिसने यहाँ,

मटियामेट करके मुल्क को/ मिट्टी में दफ्न हैं जानें कितने। – सुमन्त

कल के समाचार पत्रों में दो ख़बरें हैं, ये दोनों ख़बरें आज के हमारे मुल्क की दशा और दिशा को बतलाती हैं। पहली ख़बर यह है कि एक टीवी चैनल पर ‘मोहम्मद साहब’ पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने की‌ दोषी नुपूर शर्मा पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी दंडात्मक कार्यवाही करने से मना कर दिया तथा उनके जान पर कथित ख़तरा बतलाते हुए उन्हें विभिन्न स्थानों पर दर्ज हुए मुकदमे में पेश न होने की छूट भी दे दी। इससे यह साफ संदेश जाता है कि उनके ऊपर के सारे मामले करीब-करीब समाप्त कर दिए गए हैं। दूसरी ख़बर यह है कि देश की साझा-संस्कृति या भाईचारे के लिए खड़े हुए फिल्मकार अविनाश दास को पुलिस ने मंगलवार को हिरासत में ले लिया। उन पर पहला आरोप है कि उन्होंने गिरफ्तार आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल के साथ गृहमंत्री अमित शाह की फोटो ट्विटर पर शेयर की। आश्चर्य की बात यह है कि यह फोटो पहले ही से ‘पब्लिक डोमेन’ में है तथा इसे सैकड़ों बार सोशल मीडिया पर शेयर भी किया गया है। उन पर दूसरा आरोप राष्ट्र प्रतीकों के कथित अपमान का है, क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज का वस्त्र पहने हुए एक महिला की तस्वीर को ट्विटर पर शेयर किया, जबकि कुछ दिन पहले यह कानून बन गया है कि अमेरिका की तरह हमारे यहाँ भी कोई भी व्यक्ति कभी भी राष्ट्र ध्वज को फहरा सकता है अथवा वस्त्र आदि बनाने में प्रयोग कर सकता है। अभी ज्यादा समय नहीं बीता है कि ऑल्ट न्यूज के सहसंपादक मोहम्मद ज़ुबैर को 2018 के ट्वीट के मामले में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि एक एसआईटी बनाकर उन पर लगे आरोपों की जाँच की जाए। क्या यह कानून का खुल्लम-खुल्ला मज़ाक नहीं है कि पहले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया जाए, फिर उस पर लगे आरोपों की जाँच हो। उनके ऊपर लखीमपुर खीरी, सीतापुर और वाराणसी आदि में अनेक झूठे मामले दर्ज कर लिए गए।

यह समय हमें अमेरिका में साठवें दशक के उस कुख्यात मैकार्थी काल की याद दिलाता है, जब कई लेखकों, पत्रकारों, चित्रकारों तथा बुद्धिजीवियों को कम्युनिस्ट होने के आरोप में जेलों में यातनाएँ सहनी पड़ी थीं। वर्तमान सरकार की यह बदहवासी बतलाती है कि फिलहाल वह अपने हिन्दू राष्ट्र के मिशन में असफल हो गई है।

उन पर सबसे दिलचस्प मामला तो यह है कि उन पर स्वामी नरसिंहम तथा बजरंग मुनि के खिलाफ़ नफ़रत फैलाने का आरोप है, जबकि सच्चाई यह है कि स्वामी नरसिंहम ने खुद ही हरिद्वार में कथित धर्मसंसद में मुस्लिमों के खिलाफ़ घृणित बात की तथा देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की वकालत की, काफी जनदबाव के बाद गिरफ्तार होने और कुछ ही दिनों बाद जमानत मिल जाने के बाद वे आज भी अपना घृणित अभियान जारी रखे हुए हैं। बजरंग मुनि ने खुलेआम मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार की बात की थी। इनके बारे में भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में खड़े होकर इन्हें एक सम्मानित संत बताया था। वास्तव में मोहम्मद ज़ुबैर का अपराध यह है कि उन्होंने उच्च पदों पर बैठे लोगों के झूठ और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया था। संतोष की बात यह है कि दुनिया भर में बढ़ते उनके समर्थन के कारण कल ही सुप्रीम कोर्ट ने उनको जमानत दे दी।

झारखंड में पूँजीपतियों तथा साम्राज्यवादियों के गठजोड़ द्वारा इस इलाके की बहुमूल्य खनिज सम्पदा की लूट और आदिवासियों के जंगल एवं ज़मीन के संघर्षों तथा उनके शोषण के खिलाफ़ लिखने वाले पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को एक बहुत ही पुराने मामले में गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें उन पर एक गिरफ्तार माओवादी पति-पत्नी से संबंध रखने का आरोप था। पुलिस उनके घर सर्च वारंट और गिरफ्तारी का वारंट साथ लेकर आई थी। उनकी पत्नी का आरोप है कि पुलिस उनके घर से दो लैपटॉप और अपने पैसे से खरीदी उनकी कार भी ले गई, अगर उन्हें केवल पूछताछ के लिए ही ले जाया गया था, तो उन्हें जेल क्यों भेजा गया तथा जेल में कुख्यात अंडासेल में क्यों रखा गया ? जिसमें कुख्यात सजायाफ्ता अपराधी रहते हैं। इस‌ घटना के दो दिन पहले ही प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता और समाजसेवी हिमांशु कुमार जो लम्बे समय से आदिवासियों के बीच में काम कर रहे हैं, उन्होंने करीब एक दशक पहले उड़ीसा के ‘दंतेवाड़ा’ में नकली पुलिस मुठभेड़ में मारे गए आदिवासियों के संबंध में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली थी। अब इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने उल्टे उन पर न्यायालय का समय बरबाद करने के आरोप में पाँच लाख का जुर्माना कर दिया तथा जुर्माना न अदा करने पर जेल भेजने की बात की है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि संबंधित राज्य सरकार उन पर मुकदमा भी कर सकती है। हिमांशु कुमार ने जुर्माना न देने और जेल जाने की बात कही है।

ये कहानियाँ अभी समाप्त नहीं होती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता तथा मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली तीस्ता सीतलवाड़, जिन्होंने गुजरात में 2002 के दंगों में राज्य सरकार का हाथ होने की साज़िश का दुनिया के सामने पर्दाफाश किया था, यही कारण है कि वे लम्बे समय से केंद्र सरकार के आँखों की किरकिरी बनी हुई थीं। अब उन पर यह आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया कि वे पूर्व डीजीपी आरवी श्रीकृष्ण कुमार, पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट और कांग्रेसी नेता अहमद पटेल के साथ मिलकर 2002 के दंगों के मामले में निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए सबूत गढ़ने तथा राज्य सरकार को गिराने की साज़िश कर रही थीं।

उन पर आर्थिक घोटालों का भी आरोप लगाया जा रहा है और यह सब बजरंग दल के एक कार्यकर्ता की गवाही पर किया जा रहा है, जिस पर खुद ही दंगों में अनेक हत्याओं का आरोप था।

अब इन घटनाओं का विश्लेषण करते हैं कि आखिर एकाएक इस तरह ढेरों पत्रकारों और सामाजिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे आरोपों में फंसाने तथा उन्हें जेलों में बंद करने के पीछे कारण क्या हैं? संघ समर्पित भाजपा द्वारा दो बार केंद्र सरकार की सत्ता पाने एवं करीब-करीब दक्षिण भारत को छोड़कर सारे देश में उसकी सरकार बनने तथा कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को पूरी तरह से नियंत्रण में कर लेने के बावजूद उसे लग रहा है कि उसकी हिन्दू राष्ट्र स्थापना की राह अभी भी बहुत कठिन है। फासीवादी नीतियों के कारण वैश्विक स्तर पर उसकी बदनामी तो हुई ही है, साथ ही साथ देश पर भयानक आर्थिक संकट का साया भी मंडराने लगा है। बढ़ती मंहगाई-बेरोजगारी से लगने लगा है कि हिन्दुत्व ‌के अफीम का नशा जनता के मन से धीरे-धीरे उतर रहा है। जनपक्षधर पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उसकी नीतियों का विरोध कर रहा है, इसलिए उन्हें डरा-धमकाकर एवं कुछ को सत्ता या पद का लालच देकर सरकार अपने पक्ष में करने की साज़िश कर रही है तथा इसमें बिलकुल न मिलती सफलता को देखकर उसकी बदहवासी बढ़ती जा रही है। हिन्दू राष्ट्र के जिस चीते पर उसने सवारी की है, अब वह उसी को खाने के लिए अग्रसर है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आए ढेरों फासीवादी संगठन, साधु-संत-महात्मा की खाल ओढ़े ढेरों अपराधी तत्व जिसे उसने खुद ही एक समय में खड़ा किया था, अब उसके लिए समस्या बनते जा रहे हैं। यह समय हमें अमेरिका में साठवें दशक के उस कुख्यात मैकार्थी काल की याद दिलाता है, जब कई लेखकों, पत्रकारों, चित्रकारों तथा बुद्धिजीवियों को कम्युनिस्ट होने के आरोप में जेलों में यातनाएँ सहनी पड़ी थीं। वर्तमान सरकार की यह बदहवासी बतलाती है कि फिलहाल वह अपने हिन्दू राष्ट्र के मिशन में असफल हो गई है। इस समय में उसके इस बदहवासीयुक्त कदम के खिलाफ़ प्रतिरोध संगठित करने की ज़रुरत है।

 ज़ुल्म के साए में लब खोलेगा कौन ?

जब हम ही चुप हो जाएँगे, तो बोलेगा कौन ?

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