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कुश्ती में सियासी दांव पेंच ?

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शशिकांत गुप्ते

समाचार सुनने,देखने,और पढ़ने पर बचपन में पढ़ी कविता का स्मरण हुआ। कक्षा तीसरी की ये कविता है।
कविता में कल्पना की गई है कि, किसी चंदन चाचा के बाड़े में कोई आखाड़ा है,वहां दो पहलवानों के बीच कुश्ती है।
तालें ठोकीं,हुंकार उठी अजगर जैसी फुंकर उठी।
लिपटे भुज से भुज अचल अटल दो बबर शेर जुट गए सबल

यह कविता नागपंचमी के विशेष अवसर पर लिखी गई है।
आज बगैर नागपंचमी के कुश्ती खेलने वाली महिला पहलवान कुश्ती के अखाड़े को छोड़ खुले मैदान में धरना देने के लिए मजबूर हैं।
कुश्ती के दांव पेंच सीखने वाले प्रशिक्षक पर स्त्री पहलवान के साथ अश्लील हरकत के दांव के साथ देह शोषण के लिए पेंच लढाने का आरोप है।
आश्वासन मिलेगा,दोषियों पर उचित कार्यवाही होगी। यदि आरोप सही पाया गया तो?
जाँच के दौरान होने वाली कार्यवाही में कानूनी दावों के पेंच इतने ढीले कर दिए जातें हैं कि,
फरियादी ही अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है।
गुनाह तो होता है,लेकिन गुनहगार को सज़ा मिलेगी,यह प्रश्न हमेशा ही अनुत्तरित रहा है।
शायर मलिकजादा मंजूर अहमद का ये शेर सटीक है।
देखोगे तो हर मोड पे मिल जाएंगी लाशें
ढूंढोगे तो इस शहर में कातिल न मिलेगा

आश्चर्य होता है,जब अच्छे दिन आएंगे? यह स्लोगन याद आता है।
शायर मैराज नक़वी इस शेर में यथार्थ को ही बयान किया है।
फूल ज़ख्मी है खार जख्मी है
अब के सारी बहार ज़ख्मी है

फिर भी हम चेहरे को अहमियत देते हैं।
शायर अंबर बहराइची फरमाते हैं।
ये सच है रंग बदलता है वो हर लम्हा
मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा है

समस्या कोई भी हो सियासत में हमेशा की तरह नूरा कुश्ती ही होगी।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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