शशिकांत गुप्ते इंदौर
सन 1960 में प्रदर्शित फिल्म जिस देश में गंगा बहती है गीत स्मरण हुआ। गीतकार शैलेन्द्रजी रचित गीत की निम्न पंक्तियों को जब भी गुनगुनाने का मन करता है,
तब वर्तमान राजनैतिक
सामाजिक,शैक्षणिक,और धार्मिक क्षेत्र के गिरते स्तर को देख कर मन व्यथित होता है।
होठों पे सच्चाई रहती है
जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है
काश उक्त पंक्तियों में वर्णित शब्दों में सच्चाई होती,तो आज हमें हर क्षेत्र में उपलब्धियों का सिर्फ शाब्दिक बखान करने के लिए विज्ञापनों का आश्रय नहीं लेना पड़ता?
लगभग एक दशक पूर्व समाचार माध्यमों की विपक्ष के रूप में सशक्त भूमिका होती थी?
इनदिनों समाचार माध्यमों ने स्वयं ने तो विपक्ष की भूमिका से पल्ला झाड़ लिया ही है,(कुछ समाचार माध्यमों को छोड़ कर) साथ ही विपक्ष को भी समाचारों से नदारद करने की साज़िश की जा रही है?
यह लोकतंत्र को कमजोर करने का असफल प्रयास ही सिद्ध होगा?
देश के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले क्रांतिकारी पत्रकारों की बहुत लंबी सूची है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पत्रकारिता की दायित्व के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखने वाले पत्रकारों की भी फेहरिस्त कम नहीं है।
मराठी भाषा प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र के संपादक लेखक,साहित्यकार, हरफनमौला व्यक्तित्व स्व. आचार्य प्रहलाद केशव अत्रेजी ने उनके स्वयं के द्वारा की गई पत्रकारिता के ,लिए कहा था।
मै साहित्य की चाशनी में तले हुए शब्दों की पत्रकारिता नहीं करता हूं। ना ही मैं पाठको को प्रिय लगने वाली पत्रकारिता हूं समाचार पत्र के मालिक को प्रिय लगने वाली पत्रकारिता तो मैं कतई नहीं करता हूं।
मै लेखनी की स्याही से समाचार नहीं लिखता हूं। मै अपने कलेजे में आमजन की हर तरह की पीड़ा को महसूस करता हूं,वही यथार्थ प्रकट करता हूं।
जहन से जो अफाहिज नहीं होते हैं,वे हमेशा धारा के विपरित चलते हैं।
ऐसे लोगों के लिए शायर संजय मिश्रा शौक़ का यह शेर मौजु है।
बदन की खोल से हम भी निकल आए तो हैरत क्या
बहुत दिनों तक कोई पंछी कहीं पिंजरे में रहता है?