जयप्रकाश नारायण
इस वर्ष बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र को निशाने पर लिया गया है। चूंकि भाजपा के तख्ता पलट अभियान को पीछे धकेलते हुए बिहार में महा गठबंधन की सरकार बन गई थी। जो भाजपा के भारत विजय अभियान में बड़ी बाधा है। इसलिए बिहार में संघ परिवार ने अपनी शक्ति का नग्न प्रदर्शन करके यह दिखा दिया कि उनकी क्षमता को कम करके आंकना किसी भी राजनीतिक-सामाजिक ताकत के लिए आत्मघाती होगा। लक्ष्य कितना सुव्यवस्थित और सुचिंतित था कि आप इससे समझ सकते हैं कि बिहार के 2 सबसे महत्वपूर्ण इस्लामिक सभ्यता के केंद्रों सासाराम और बिहार शरीफ दंगे की चपेट में आ गए। सासाराम -जिसे शेरशाह सूरी की राजधानी के रूप में जाना जाता है। शेरशाह सूरी का दौर सकारात्मक उपलब्धियों का दौर रहा है और सूरी के शासनकाल को लेकर भारतीय समाज में सकारात्मक दृष्टि मौजूद है। उसके छोटे से काल की उपलब्धियां महान समझी जाती हैं। इसलिए कहीं भी मुस्लिम शासकों के प्रति भारतीय जनमानस में सकारात्मक नजरिया है तो उसे मिटा देने का लक्ष्य संघ परिवार ने निर्धारित किया है। इसलिए उन्होंने बिहार में सासाराम को चुना।
कुछ आश्चर्य सा लगा लग रहा था कि संघ परिवार के विध्वंसक दस्ते इतने शालीन और सभ्य क्यों हो गये हैं। जिस त्यौहार के समय 2022 में उन्होंने देश में स्वघोषित प्रतिबंधों को लागू करने के लिए आतंक, हमलों और दंगों की झड़ी लगा दी थी। इस बार वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं। क्या इसके पीछे कोई सोची-समझी रणनीति है? कुछ मित्रों का कहना था कि शायद आने वाले चुनाव को देखते हुए संघ परिवार दिखाने के लिए एक कदम पीछे हटा होगा। क्योंकि कुछ दिनों से मोहन भागवत से लेकर नरेंद्र मोदी तक की भाषा और दैहिक हाव-भाव में अल्पसंख्यकों के प्रति एक बदलाव सा दिख रहा है।
ज्ञान, सभ्यता, लोक स्मृति, लोकतंत्र के विरुद्ध युद्ध-नवरात्र के आठवें दिन मैं कुछ मित्रों के साथ बैठा था। आपस में बात हो रही थी कि इस वर्ष 2022 की तरह से संघ के उन्मादी समूहों द्वारा जनता पर नए-नए सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतिबंध थोपने की कोशिश नहीं हुई। न ही उन्मादी भीड़ के बल पर इन्हें लागू कराया गया और कहीं भी अन्य धर्मों के लोगों को चेतावनी नहीं दी गई कि वह नवरात्र के पवित्र समय में खानपान और धार्मिक व्यवहार को बदल लें। अभी तक हिंदुओं के पूजा स्थल के आस-पास फल सब्जियां आदि बेचने वाले मुस्लिम दुकानदारों को खदेड़ने जैसी घटनाएं इस वर्ष नहीं दिखाई दे रही हैं।
कुछ आश्चर्य सा लगा लग रहा था कि संघ परिवार के विध्वंसक दस्ते इतने शालीन और सभ्य क्यों हो गये हैं। जिस त्यौहार के समय 2022 में उन्होंने देश में स्वघोषित प्रतिबंधों को लागू करने के लिए आतंक, हमलों और दंगों की झड़ी लगा दी थी। इस बार वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं। क्या इसके पीछे कोई सोची-समझी रणनीति है? कुछ मित्रों का कहना था कि शायद आने वाले चुनाव को देखते हुए संघ परिवार दिखाने के लिए एक कदम पीछे हटा होगा। क्योंकि कुछ दिनों से मोहन भागवत से लेकर नरेंद्र मोदी तक की भाषा और दैहिक हाव-भाव में अल्पसंख्यकों के प्रति एक बदलाव सा दिख रहा है।
कुछ खास फिरके के मुस्लिम उलेमा या मौलाना सरकार और संघ के प्रतिनिधियों से मिलते भी रहे हैं। स्वयं भागवत साहब मस्जिद तक की यात्रा कर आए हैं। संभवतः मुस्लिम धर्मगुरु संघ के साथ संबंध और संवाद विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। हो सकता है कि इन प्रयासों का यह स्वाभाविक परिणाम हो कि इस वर्ष नवरात्रि -रामनवमी और हनुमान जयंती शांतिपूर्वक गुजर जाए। लेकिन यह खुशफहमी दूसरे दिन ही कपूर की तरह हवा में उड़ गई।
हां इस बार कार्रवाई सुचिंतित और ठोस लक्ष्यों की तरफ केंद्रित थी। आप को याद होगा कि इन्हीं 9 दिनों में सरकार की तरफ से एक सूचना लीक की गई कि एनसीआरटी की किताबों से मुगलकालीन इतिहास, समन्वयवादी संस्कृति और अन्य ऐसे विचारों को हटाया जा रहा है जो आज के दौर में प्रासंगिक नहीं रहे। इस खबर से दिमाग पर एक हल्का सा बल तो पड़ा था कि इतिहास स्मृति और मिली-जुली संस्कृति और सभ्यता के विकृतिकरण और विलोपन के दौर में क्या यह एक बड़ा हमला होने जा रहा है।
दूसरे ही दिन दिख गया कि इस वर्ष बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र को निशाने पर लिया गया है। चूंकि भाजपा के तख्ता पलट अभियान को पीछे धकेलते हुए बिहार में महा गठबंधन की सरकार बन गई थी। जो भाजपा के भारत विजय अभियान में बड़ी बाधा है। इसलिए बिहार में संघ परिवार ने अपनी शक्ति का नग्न प्रदर्शन करके यह दिखा दिया कि उनकी क्षमता को कम करके आंकना किसी भी राजनीतिक-सामाजिक ताकत के लिए आत्मघाती होगा। लक्ष्य कितना सुव्यवस्थित और सुचिंतित था कि आप इससे समझ सकते हैं कि बिहार के 2 सबसे महत्वपूर्ण इस्लामिक सभ्यता के केंद्रों सासाराम और बिहार शरीफ दंगे की चपेट में आ गए। सासाराम -जिसे शेरशाह सूरी की राजधानी के रूप में जाना जाता है। शेरशाह सूरी का दौर सकारात्मक उपलब्धियों का दौर रहा है और सूरी के शासनकाल को लेकर भारतीय समाज में सकारात्मक दृष्टि मौजूद है। उसके छोटे से काल की उपलब्धियां महान समझी जाती हैं। इसलिए कहीं भी मुस्लिम शासकों के प्रति भारतीय जनमानस में सकारात्मक नजरिया है तो उसे मिटा देने का लक्ष्य संघ परिवार ने निर्धारित किया है। इसलिए उन्होंने बिहार में सासाराम को चुना।
इस बार सासाराम में रामनवमी का जुलूस मुस्लिम बहुल इलाके से गुजरा। संघ के गुंडे अपनी शिक्षा-दीक्षा के चलते निर्मित (शाखाओं द्वारा) नफरती विखंडित सांस्कृतिक चेतना के कारण मस्जिदों-दरगाहों के सामने और मुस्लिमों के मुहल्लों में पहुंचते ही आक्रामक हो जाते हैं। जुलूस में डीजे की धुन तेज हो जाती है। इन नौजवानों पर पागलपन और उन्माद छा जाता है (कम्युनल हिस्टीरिया) जिंदगी को दांव पर लगाकर मस्जिदों के अंगूरों पर चढ़कर झंडे फहराते और हिंसक आक्रामक नारे लगाते हुए इन्हें धर्म योद्धा और उद्धारक का एहसास होता है। एक आभासी और आरोपित नफ़रती चेतना मनुष्य को किस तरह से हिंसक जीव में बदल देती है यह धार्मिक जुलूस में चल रहे तल छट के नौजवानों को देखकर समझा जा सकता है। (आमतौर पर सभी संप्रदायों और धर्मों में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है)।
आश्चर्य है गठबंधन सरकार की पुलिस सासाराम में भाजपा की विंग की तरह से काम करती हुई दिखी। महिलाओं बच्चों के डरावने अनुभवों की जो रिपोर्टें सोशल मीडिया से छनकर आ रही हैं वह भविष्य के अशुभ संकेत हैं। मुस्लिम महिलाओं बच्चों के साथ पुलिस की बर्बरता के निशान हर जगह दिखाई दे रहे हैं। यह कानून के माथे पर लगा कलंक ही नहीं लोकतंत्र की छाती पर लगे गहरे घाव हैं।
नालंदा के बिहार शरीफ में मदरसे और पुस्तकालय पर हुआ हमला संघ के शुद्धि व सांस्कृतिक सफाई अभियान का प्रत्यक्ष उदाहरण है। आश्चर्य है कि महागठबंधन सरकार इतने बड़े विध्वंस को रोक पाने में असफल रही। रामनवमी के दूसरे दिन संघ के द्वारा नियंत्रित लंपट गिरोह मदरसा और पुस्तकालय को जला देते हैं। जिला प्रशासन किंकर्तव्यविमूढ़ और मूकदर्शक बना देखता रहा। इस स्थिति को देखते हुए नौकरशाही के प्रशासनिक दक्षता और क्षमता पर गंभीर सवाल उठते हैं। जबकि उस समय तक सासाराम सहित बिहार के कई जिलों से मुस्लिमों पर हमले और पुलिस की संलिप्तता की खबरें आ चुकी थीं। फिर भी पुस्तकालय और मदरसे को बचा न पाना बिहार सरकार सहित इस देश के लिए गंभीर चिंता का सबब होना चाहिए।
मदरसा अज़ीजिया और पुस्तकालय 1896 में बिहार के सबसे बड़े दानी और धनी महिला बीबी सोगरा द्वारा अपने पति अब्दुल अजीज की याद में कायम किया गया था। उस समय उन्होंने सोगरा स्टेट ट्रस्ट बनाकर अपनी सारी जायदाद ट्रस्ट को वक्फ कर दी थी। जिस संपत्ति की सालाना आमदनी 1लाख 20 हजार थी। ट्रस्ट द्वारा मदरसा अजीजिया और कई संस्थान संचालित होते हैं। जिसमें एक हाई स्कूल और एक कॉलेज भी है। मदरसे में 500 लड़के लड़कियों के पढ़ने की क्षमता है।
1920 में बिहार में मदरसा बोर्ड बना और उसके अधीन मदरसा को भी ला दिया गया। लेकिन मदरसे का संचालन सोगरा वक्फ स्टेटस बिहार शरीफ नालंदा ही करता रहा। बिहार के अनेक महान व्यक्तित्व और विभूतियां मदरसा अजीजिया से पढ़कर निकले हैं। जिन्होंने भारत में अपना नाम रोशन किया था।
बिहार शरीफ का यह मदरसा और पुस्तकालय सामान्य पुस्तकालय नहीं था। इसमें हमारी गौरव शाली विरासत के हजारों दस्तावेज संरक्षित थे। पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी के बाद यह बिहार का सबसे बृहद समृद्ध पुस्तकालय है। जहां हाथ से लिखी तर्कवादी पांडुलिपियां, पुस्तकें, दस्तावेज और आज़ादी से लेकर आज तक की अनेक गौरवशाली स्मृतियां संरक्षित थीं। दुर्लभ कलाकृतियों वाली फर्नीचर आलमारियां और अनेक ऐसी ऐतिहासिक संपत्ति जला दी गयी जो अपने अंदर अनेक अनुभव समेटे हुए थी। जिन्हें जलाकर खाक ही नहीं किया गया है। बल्कि एक पूरी तारीख को ही मिटा दिया गया है।
यह पुस्तकालय और मदरसा इस धारणा को खंडित करता है कि मुस्लिम इदारे इमदाद या चंदे के पैसे से चलते हैं। इस मदरसे और पुस्तकालय का पूरा संचालन वक्फ की गई संपत्ति से होने वाली आमदनी से होता रहा है। जो अपने में एक मिसाल है।
हमारे गौरवशाली परंपरा का धरोहर इस पुस्तकालय को जलाने के पीछे सांस्कृतिक शुद्धीकरण की संघ की बृहद परियोजना है। जो भारत में अभी तक मस्जिदों दरगाहों मजारों के हिंदू सांस्कृतिक ऐतिहासिक स्थलों से जोड़कर चलाए जा रहे विमर्श से आगे जाता है। जो अभी तक बाबरी (मस्जिद जिसे ढहाकर मंदिर निर्माण हो रहा है ) ज्ञानवापी, मथुरा शाही ईदगाह, ताजमहल, लाल किले और कुतुब मीनार सहित हजारों मस्जिदों पुरातात्विक महत्व के स्मारकों को विवादित बना कर हिंदू स्मारक होने के क्लेम और हटाने-गिराने के अर्थ में दिखाई दे रहा था। जिसका विस्तार करते हुए इसे मदरसों, पुस्तकालयों और ऐतिहासिक महत्व के ज्ञान केंद्रों को मिटा देने के विस्तृत दायरे तक फैला दिया गया है।
(अतीत में उस समय के सबसे समृद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर वहां मौजूद सभी तरह के ज्ञान सामग्री को मिटा देने की घटना ध्यान में रहनी चाहिए। जिससे भारत की सबसे समृद्ध संस्कृति विलुप्त हो गई थी)
अमृत काल की विशिष्टता क्या है। इसे अवश्य समझना चाहिए। जिसमें ज्ञानवापी से शुरू हुआ अदालती संघर्ष अब बिहार शरीफ के महत्वपूर्ण पुस्तकालय और मदरसे को जलाने तक पहुंच गया है। यही नहीं ठीक इसी समय एनसीआरटी से मुगलकालीन इतिहास, तर्कवादी विचारधारा समन्वय वादी चिंतन और राष्ट्रीय आंदोलन के अनेक प्रसंगों महत्वपूर्ण घटनाओं दस्तावेजों को पाठ्यक्रमों से निकालकर यह संकेत ढिठाई के साथ दे दिया जा रहा है कि अब भारत के लोगों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए मोदी राज हिंदू राज है। इस राज का भारत की विविधता मूलक संस्कृति, लोकतांत्रिक संस्थाओं परंपराओं कानूनों और संवैधानिक गणतंत्र से कोई दूर तक का रिश्ता नहीं है।
हम देख चुके हैं कि दुनिया में फ़ासीवाद इन्हीं रास्तों से आगे बढ़ा। पहले वह अल्पसंख्यकों, वैज्ञानिक तर्क वादियों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को ढहाता गिराता मिटाता ज्ञान केंद्रों पर हमला करता हुआ आगे बढ़ता है। खलनायक बना दिए गए अल्पसंख्यकों, कमजोर वर्गों, तर्क वादियों, मार्क्सवादियों को धमकाते, मिटाते, संस्थानों को जलाते, मारते-काटते आगे बढ़ते हुए अंततोगत्वा बहुसंख्यक समाज के दरवाजे पर दस्तक देता है।
रामनवमी के जुलूस या शोभा यात्रा के नाम पर हिंदुत्व का विध्वंसक रथ सासाराम बिहार शरीफ में पुस्तकालय को जलाकर खाक कर के हाबड़ा बंगाल में तांडव मचाते हुए महाराष्ट्र में मदरसों दरगाह पर भगवा झंडे लहराने के साथ आर्यावर्त के चारों दिशाओं में तांडव करने लगा। राजधानी दिल्ली की गलियों से हुंकार भरता हुआ, हरियाणा, मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों को रौंदते हुए अपने विजय का डंका पीट रहा है।
जलते हुए सासाराम और बिहार शरीफ की लपटों से उत्साहित गृहमंत्री ने तत्काल इन क्षेत्रों की यात्रा का ऐलान कर दिया। गृह मंत्री की खुशियां छिपाएं नहीं छिप रही थीं। दंगाइयों को उल्टा लटका देने की डरावनी (कानून के राज्य के अंत) घोषणा के साथ उन्होंने एक सभा में बिहार वासियों से मोदी को बिहार की 40 में से 40 सीटें दे देने का आवाहन कर डाला। (आपको इस सफाई अभियान और अमित शाह की तेजी का अर्थ समझ में आ गया होगा)
अमित शाह के अति उत्साह को देखकर कौन नहीं कह सकता है कि राम नवमी के दिन शोभायात्रा के नाम पर जो कुछ घटित हुआ वह एक सोची-समझी डिजाइन का हिस्सा है। ढंकी छिपी जो बात रह गई थी उसे हनुमान जयंती और भाजपा के स्थापना दिवस पर मोदी ने खोल दिया। जब उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हमें हनुमान जी की तरह से कठोर कदम उठाने होंगे। शायद बिहारशरीफ और बंगाल से भी ज्यादा कठोर कदम।
लब्बोलुआब भाजपा और संघ परिवार के आदि गुरुओं की चिर आकांक्षा (रही है कि “भारतीय समाज का हिंदू करण और हिंदुओं का सैन्यीकरण किया जाये) संभवतः फलित होते हुए दिख रही है। निश्चय ही गोदी मीडिया कॉरपोरेट पूंजी काले धन और सत्ता का दुरुपयोग करके भाजपा सरकारों ने भारतीय जनमानस में विध्वंसक प्रति चेतना को नीचे तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल कर ली है।
इसलिए लोकतांत्रिक जन-गण के लिए यह बड़ा सवाल और कठिन समय है। इसका प्रतिवाद वह कैसे करें? भारत में लोकतंत्र संविधान की सुरक्षा कैसे की जाए। उसे कैसे और मजबूत करें। बिहार के महागठबंधन प्रयोग ने जो चुनौती भाजपा के समक्ष पेश की थी। संघ-भाजपा और कॉरपोरेट पूंजी के गठजोड़ ने उस चुनौती से उत्पन्न खतरे से पार निकलने के लिए जो नई योजना तैयार की है। वह बहुत ही भयानक और विध्वंसक है।
इसलिए सिर्फ सरकार बनाकर भाजपा की पकड़ को कमजोर कर देने की खुशफहमी पालने की जरूरत नहीं है। ना ही हमें अतीत के भोथरे हो चुके हथियारों को नए रंग रोगन लगाकर फिर से चमकाने की ही जरूरत है। अतीत कालीन क्षणिक सफलताओं के मुगालते में खोए हुए कुछ चिंतकों की तरह जातीय समीकरण बैठा कर हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ को शिकस्त देने का दिवास्वप्न देखना वस्तुतः जटिल चुनौतियों से भागना है। जो लोग अभी भी इसी विचार प्रक्रिया के शिकार हैं। उनके बारे में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कारपोरेट वित्तीय पूंजी के सबसे क्रूर राजनीतिक मॉडल “फासीवाद की कार्यशैली और शक्ति” के बारे में उन्हें तनिक भी ज्ञान नहीं है।
हमें लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ जनता के बुनियादी सवालों को लेकर सड़कों पर केंद्रित और संघनित हो रहे जनाक्रोश को नई दिशा में मोड़ने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए ।इसके लिए अगर गठबंधन जैसी सरकारें कुर्बान करनी हो तो तनिक भी हिचक की जरूरत नहीं है। हां यह समय व्यापक राजनीतिक शक्तियों के गठबंधन को आगे बढ़ाने का है।
उसे एक मुकम्मल पैकेज के साथ जनता के बीच में व्यापक जन चेतना विकसित करते हुए विराट जन आंदोलन खड़ा करने का प्रयास करना होगा। जो संसद से लेकर सड़क तक अल्पसंख्यकों, महिलाओं, कमजोर वर्गों, बेरोजगार छात्र-युवाओं, किसानों-मजदूरों के साथ समस्त उत्पीड़ित जनता के सवाल को आने वाले महासंग्राम का मुद्दा बनाए। इस प्रकार 2024 में इस फासीवादी निजाम को सत्ता से बेदखल करने की जिम्मेदारी कंधे पर लेना होगा। भारत में घट रही विभिन्न क्षेत्रों में विध्वंसक घटनाएं हमसे यह मांग कर रही हैं कि हम बहुत बड़ी सामाजिक जन्म गोलबंदी करते हुए फासीवाद विरोधी व्यापक मोर्चे का निर्माण करें। जो विभिन्न स्तरों पर सरकार बनाने से लेकर जन संघर्षों की अगुवाई करें।
फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का कोई शॉर्टकट संक्षिप्त रास्ता नहीं है। हमें एक जटिल कष्ट हरे और साहसिक अभियानों के द्वारा ही इसे शिकस्त देनी होगी। यही एकमात्र विकल्प लोकतांत्रिक नागरिकों के समक्ष है।
(जयप्रकाश नारायण सीपीआई (एमएल) यूपी की कोर कमेटी के सदस्य हैं।)