दिलीप कुमार पाठक
मनोज बाजपेयी’ रंगमंच का एक ऐसा अदाकार , जो आज केवल और केवल अपनी अदाकारी से अपने चरम पर हैं. जिसका लक्ष्य कभी सुपरस्टार बनना नहीं, अपितु एक अदाकार बनना था. सच्चाई यह भी है कि न तो वो अमिताभ बच्चन की तरह बुलन्द आवाज़ के मालिक हैं, न ही सलमान के तरह डोले – शोले हैं, और न ही शाहरुख की तरह रोमांस कर सकते… और न ही अक्षय, जॉन की तरह एक्शन कर सकते, फिर भी उनके पास है, सबसे अलहदा दृष्टिकोण के साथ – साथ बेह्तरीन संवाद अदायगी है. अदाकारी में बोलने का अपना एक मह्त्व होता है. ‘मनोज बाजपेयी’ बोलने के लिहाज से आज के दौर में सबसे उत्तम हैं..उनकी आवाज़ से नफासत टपकती है. अपनी उम्र के इस पड़ाव में आते आते अदाकार सीरियस अभिनय शुरू करते हैं, लेकिन ‘मनोज बाजपेयी’ किवदंती बन गए हैं. यह मुकम्मल मयार उनकी अपनी मेहनत, लगन, के साथ – साथ ही सीखने-समझने का प्रतिफल है.
‘मनोज बाजपेयी’ बचपन में अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों को देखकर प्रभावित होते थे, आम तौर पर 70 – 80 वाले दशक में जवान होती पीढ़ियों का यही मानना था… जैसे ही ‘मनोज बाजपेयी’ ने अभिनय की बारीकियां सीखीं, उन्हें पता चला कि कला फ़िल्में क्या हैं! और मसाला फ़िल्में क्या हैं. समाज पर दोनों का अपना – अपना प्रभाव है, हालाँकि सिनेमा का अपना व्यपारिक हित भी प्रमुख होता है. हिंदी सिनेमा में अभिनय को लेकर कोई सोच नहीं थी, कोई मानक नहीं था, तब दिलीप कुमार एक सोच एक मानक लेकर आए, कि उत्तम सिनेमा, अदाकारी का यह एक सफल मानक हो सकता है. ‘मनोज बाजपेयी’ अभिनय को अपने साथ साधते हैं, जो भी देखते हैं, सुनते हैं, उसका निचोड़ अभिनय की तकनीक में लाने की कोशिश करते हैं, यह बात बिलकुल सही है कि कई पीढ़ियों तक दिलीप कुमार ही अभिनय की मिसाल बने रहे, लेकिन आज के दौर में मनोज अभिनय का एक उत्तम मानक बने हुए हैं. बाद की तीन पीढ़ियों और अभी तक दिलीप साब की छाप अभिनेताओं में दिखती है . हालाँकि जगदीश सेठी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, मोतीलाल थे, जो मूलतः अदाकारी के उस्तादों में से एक थे. यह परिपक्व सोच अभिनय के लिहाज से ‘मनोज बाजपेयी’ की बढ़ती हुई समझ के साथ विकसित हुई थी.
‘मनोज बाजपेयी’ ऐक्टिंग के उस स्तर पर पहुंच गए हैं, कि आज के अभिनय सीख रहे बच्चे सिर्फ और सिर्फ सीख सकते हैं, कि अभिनय में विविधता कैसे आती है, हालांकि मनोज का मानना है कि अभिनय कोई गॉड गिफ्ट नहीं होती, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, तकनीकी शिक्षा के लिए एक उस्ताद की आवश्यकता होती है, ऐसे ही अभिनय के लिए एक उस्ताद की आवश्यकता होती है, एक बेह्तरीन उस्ताद एक नायाब शागिर्द को रास्ता दिखा सकता है. ‘मनोज बाजपेयी’ कला, अभिनय, के साथ – साथ जमीन से जुड़े हुए हैं. उनके ज़िन्दगी के संघर्ष, मेहनत, जुनून के हद तक अदाकारी से इश्क़ उन्हें इस मुकाम तक ले आया है, कि उनकी अदाकारी आज के कला विद्यार्थियों के लिए इबादत बन चुकी है.
‘मनोज बाजपेयी’ 23 अप्रैल 1969 को नरकटियागंज, बिहार में पैदा हुए थे. मनोज का नाम भी हिन्दी सिनेमा सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार, हीरो मनोज कुमार के नाम पर ही रखा गया था. आम तौर पर बिहार में पैदा होते ही बड़े सपने देखना मतलब अधिकारों में नहीं होता. बड़े ख्वाबों पर बड़े शहर के बच्चों का हक होता है, जिन बेवकूफ़ लोगों ने यह कुंठित लकीरें खींची हैं, वो ‘मनोज बाजपेयी’ को देख लें, उनको अपनी खींची हुई लकीरें मिटानी होंगी. आज सभी के लिए एक प्रेरणा है. बचपन से एक्टर बनने की चाह, गांव से पटना, पटना से NSD (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) से हिन्दी सिनेमा सिल्वर स्क्रीन से वैश्विक अदाकार बनना आसान नहीं था. शुरुआत में हिन्दी भाषी बच्चों को पहले साबित करना होता है कि हम औरों की तरह ही बहुमुखी हैं. भाषा प्रतिभा का कोई पैरामीटर नहीं होती… ख़ासकर ‘मनोज बाजपेयी’ जैसे गाँव के होनहार छात्रों के संघर्ष की पराकाष्ठा होती है. जो ‘स’ को ‘श’ ‘ब’ को ‘व’ बोलता हो, क्योंकि अदाकारी में बोलने का अपना महत्व है. आज मनोज सधे हुए संवाद बोलने के लिए ही जाने जाते हैं. थियेटर, करते हुए बच्चे अभिनय के उस स्तर तक पहुंच सकते हैं, डायलॉग बोलने के साथ से ही वो बहुमुखी प्रतिभा देखी जा सकती है.
मनोज का संघर्ष ऐसा कि लोग देखकर ही प्रतिभा का आकलन करते थे. फोटो, सीवी आदि पीठ फेरते ही कचरे के डस्टबीन में पहुंच जाती थीं. कभी कोई उनका फेवर नहीं करता था, क्योंकि उनका औसतन शरीर उनकी अक्षमता जाहिर करता था. अपनी मेहनत से मुकाम पर पहुंचने के बाद आज ‘मनोज बाजपेयी’ प्रसिद्ध निर्देशकों की अपेक्षा नए निर्देशकों के साथ काम करना पसंद करते हैं, क्योंकि उनको लगता है, कि नए लोगों को मौका देना आवश्यक है, क्योंकि सिनेमा भी समय के साथ बदलता है, तब ही विविधता आती है. इस तरह की सोच उस व्यक्ति की ही हो सकती है, जिसने अपनी ज़िन्दगी में संघर्ष किया हो. ‘मनोज बाजपेयी’ आज के दौर में सपोर्टिंग इंसान हैं. नए – नए अदाकारों के साथ काम करते हैं, उनका कहना है कि हम भी परिपूर्ण नहीं होते हमें भी बदलते हुए सिनेमा के साथ खुद पर प्रयोग करते रहना चाहिए.
मनोज अपनी शख्सियत के बारे में कहते हैं “मैं जब थिएटर करता था, तो मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती थी, किसी पुस्तक को ढूंढने में.. आज सब कुछ बच्चों हाथ में है, आज मेरे गांव जब कोई लड़का सपना देखता है तो उसे आसानी से अचीव कर सकता है. यह मेरे साथ हुआ वह नॉर्मल नहीं था. मैं अपने घर के बाहर जा कर हाथ हिलाउंगा. तो लोग कहेंगे कि इसे क्या हुआ यह पागल हो गया क्या? लेकिन फिल्मों के बाद मैं लोगों के बीच बैठता हूं तो लोग मेरी तारीफ करते हैं. मैंने अपनी मातृभाषा को कभी नहीं छिपाया. मैं उन लोगों की परेशानी समझता हूं जो लोग मेरे यहां से बड़े शहरों में आते तो उनकी लिए यह समस्या बनी रहती है. मैं उन लोगों से कहता हूं कि आप जो हैं बने रहिए हालाँकि बहुत मुश्किल होता है”. हालाँकि यह भी एक सामाजिक सड़न है जो लोगों में असुरक्षा की भावना जागृत करती है”.
1994 में मनोज बाजपेयी ने अपना कैरियर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक स्वाभिमान के साथ शुरु किया. इसी धारावाहिक से आशुतोष राणा और रोहित रॉय को भी पहचान मिली. जिसके लिए उन्हें 1500 रुपए प्रति एपिसोड मिलता था. ‘मनोज बाजपेयी’ ने गोविन्द निल्हानी की फिल्म द्रोहकाल1994 से हिन्दी सिनेमा में पदार्पण किया था. इसके बाद बाजपेयी बायोग्राफिकल फिल्म बैंडिट क्वीन में नजर आये. फ़िल्मों में काम मिलना, एवं सफ़ल होना दोनों का अंतर्संबंध नहीं होता है. मनोज को हिंदी सिनेमा में पहचान बनाने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा था. उनको फेम फिल्म शूल से मिला था. आज वह हिंदी सिनेमा में सर्वश्रेष्ठ एक्टर्स की श्रेणी मे आते हैं. अब तक मनोज बाजपेयी कई कालजयी फ़िल्मों में यादगार अदाकारी कर चुके हैं. मनोज की यादगार फ़िल्मों का जिक्र करें तो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में सरदार खान का उनका किरदार जीवंत है, आम तौर पर एक कहावत है कि जिसने यह फिल्म नहीं देखा वह अब तक सिनेमाई लिहाज से एक कल्ट फिल्म से महरूम है, उसे सबसे पहले ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ ज़रूर देखना चाहिए.
‘अलीगढ़’ फिल्म में एक गे प्रोफेसर का यादगार किरदार ‘मनोज बाजपेयी’ की अदाकारी का वैचारिक स्मारक है. जब तक यह सिनेमा रहेगा तब तक उनका यह किरदार चर्चित रहेगा. मनोज अपने इस किरदार को सबसे अहम मानते हुए कहते हैं – “यह फिल्म मेरे लिए काफी अहम रही. क्योंकि फिल्म समीक्षकों ने कहा कि जो लोग फिल्म में गे का रोल करते हैं, उनका करियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया है, इतिहास गवाह है. मैंने यह फिल्म की आज आपके सामने हूं. इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि लोगों ज्ञान नहीं देना चाहिए, क्योंकि सबसे ज्यादा बेवकूफ़ी ज्ञान देने में ही होती है”. शूल, पिंजर, सत्या, स्वामी, 1971,राजनीति, कौन, चटगांव, अक्स, रोड, चक्रव्यूह, आरक्षण, सत्याग्रह, आदि फ़िल्मों को देखने के बाद ‘मनोज बाजपेयी’ की अभिनय क्षमता को देखा जा सकता है.
सत्या फिल्म के बाद समाज पर असर तो पड़ा ही था ख़ाकसार हिन्दी सिनेमा में ऐसी कहानियो की बाढ़ आ गई थी. आम तौर पर सिनेमा समय – समय पर अपना स्वरूप बदलता रहता है, फ़िल्मों में तकनीकी बदलाव तो होते ही हैं, लेकिन सिनेमा अपने समय – समय पर नायकों को ढूढ़ लेता है. सिनेमा ने ‘मनोज बाजपेयी’ को सत्या के बाद ढूढ़ लिया था, आम तौर पर शूल फिल्म से मनोज की पहिचान बनी थी, लेकिन उनका सिक्का सत्या से चला था. बदलते हुए समय के साथ मनोज हिन्दी सिनेमा में अदाकारी का नया-नया अध्याय लिखते चले गए. आज भी आपार सफ़लता के बाद मनोज बाजपेयी में बोलने की कला अपने शबाब पर जा रही है. आम तौर पर ऐसे कलाकार अपनी ज़िन्दगी देखने के नजरिए एवं महसूस करने का प्रतिफल होते हैं. गांव को कभी न भूल पाना जिस मिट्टी से मनोज पैदा हुए, उस महक की खुशबु हमेशा अपने पास महकाना सिद्ध करता है कि वो कितने जमीन से जुड़े हुए हैं. गांव में जन्मा बच्चा अपनी बचपन की जिंदगी में असल ज़िन्दगी में भी एक अदाकार ही होता है, उसे मौसम की हर मार सहनी पड़ती है, फिर आँखों में पल रहे सपनों के लिए पलायन कर जाना. बचपन की अदाकारी एक अनुभव ही होती है, कि शहर में कम से कम में गुजारा करना.. ज़िन्दगी औसत संसाधनो के साथ जीते हुए ज़िन्दगी का हर रंग जीना आ जाता है, फिर वही बच्चा बड़ा होकर मंच में अपने अब तक के जीवन को उड़ेल देता है.. जिसे मनोज बाजपेयी कहते हैं. इतने बड़े स्टार होने के बाद भी बड़े – बड़े मंचों से बचपन से ही माँ की दी हुई सीखो का अनुशरण करना, इससे नई जनरेशन सीख लेती हैं, कि कितने भी बड़े हो जाओ माँ की सीख बड़े वृक्ष बनने की जड़ होती है. मनोज बाजपेयी हमेशा अपनी माँ की बोली एक लाइन बोलते हैं “सफ़लता मिलना इतना मुश्किल नहीं है, लेकिन सफ़लता पाचन बहुत मुश्किल है, खासकर जिसे सफलता न मिले उसे बेवक़ूफ़ नहीं समझना चाहिए”. उनकी माँ की सीख वैश्विक सच है.
अभी तक कहा जाता रहा है कि गांव के बच्चे शहर के बच्चों से काफी पीछे होते हैं सब बकवास बातेँ हैं, क्योंकि व्यक्तिव विकास, बाहरी आवरण होता हैं, लेकिन गांव का बच्चा अगर अपनी प्रतिभा को महसूस कर ले तो वो हर विधा में बहुमुखी होता है, बस महसूस करने का एवं ज़िन्दगी जीने का एक अलहदा दृष्टिकोण होना चाहिए. मनोज बाजपेयी ने नाट्य विद्यालय के समय कहा था कि मैं सुपरस्टार नहीं एक अदाकार बनना चाहता हूं. ‘मनोज बाजपेयी’ अपने ख्वाबों के मुताबिक एक नायाब अदाकार बन चुके हैं. जिस तरह से लगातार कालजयी अभिनय करते जा रहे हैं, मनोज बाजपेयी सिनेमा में अदाकारी के लिहाज से सर्वोत्तम मुकाम पर होंगे, लेकिन अभी उनका स्वर्णिम दौर जारी है…. जिनका अभिनय आज के दौर में अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए सिलेबस है. वहीँ किसी भी क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल करने के लिए भी उनका जुनून, लगन, समर्पण एक प्रेरणा हैं, रंगमंच, एवं अदाकारी, के नायाब फनकार को मेरा सलाम..
मनोज बाजपेयी’ रंगमंच का एक ऐसा अदाकार , जो आज केवल और केवल अपनी अदाकारी से अपने चरम पर हैं. जिसका लक्ष्य कभी सुपरस्टार बनना नहीं, अपितु एक अदाकार बनना था. सच्चाई यह भी है कि न तो वो अमिताभ बच्चन की तरह बुलन्द आवाज़ के मालिक हैं, न ही सलमान के तरह डोले – शोले हैं, और न ही शाहरुख की तरह रोमांस कर सकते… और न ही अक्षय, जॉन की तरह एक्शन कर सकते, फिर भी उनके पास है, सबसे अलहदा दृष्टिकोण के साथ – साथ बेह्तरीन संवाद अदायगी है. अदाकारी में बोलने का अपना एक मह्त्व होता है. ‘मनोज बाजपेयी’ बोलने के लिहाज से आज के दौर में सबसे उत्तम हैं..उनकी आवाज़ से नफासत टपकती है. अपनी उम्र के इस पड़ाव में आते आते अदाकार सीरियस अभिनय शुरू करते हैं, लेकिन ‘मनोज बाजपेयी’ किवदंती बन गए हैं. यह मुकम्मल मयार उनकी अपनी मेहनत, लगन, के साथ – साथ ही सीखने-समझने का प्रतिफल है.
‘मनोज बाजपेयी’ बचपन में अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों को देखकर प्रभावित होते थे, आम तौर पर 70 – 80 वाले दशक में जवान होती पीढ़ियों का यही मानना था… जैसे ही ‘मनोज बाजपेयी’ ने अभिनय की बारीकियां सीखीं, उन्हें पता चला कि कला फ़िल्में क्या हैं! और मसाला फ़िल्में क्या हैं. समाज पर दोनों का अपना – अपना प्रभाव है, हालाँकि सिनेमा का अपना व्यपारिक हित भी प्रमुख होता है. हिंदी सिनेमा में अभिनय को लेकर कोई सोच नहीं थी, कोई मानक नहीं था, तब दिलीप कुमार एक सोच एक मानक लेकर आए, कि उत्तम सिनेमा, अदाकारी का यह एक सफल मानक हो सकता है. ‘मनोज बाजपेयी’ अभिनय को अपने साथ साधते हैं, जो भी देखते हैं, सुनते हैं, उसका निचोड़ अभिनय की तकनीक में लाने की कोशिश करते हैं, यह बात बिलकुल सही है कि कई पीढ़ियों तक दिलीप कुमार ही अभिनय की मिसाल बने रहे, लेकिन आज के दौर में मनोज अभिनय का एक उत्तम मानक बने हुए हैं. बाद की तीन पीढ़ियों और अभी तक दिलीप साब की छाप अभिनेताओं में दिखती है . हालाँकि जगदीश सेठी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, मोतीलाल थे, जो मूलतः अदाकारी के उस्तादों में से एक थे. यह परिपक्व सोच अभिनय के लिहाज से ‘मनोज बाजपेयी’ की बढ़ती हुई समझ के साथ विकसित हुई थी.
‘मनोज बाजपेयी’ ऐक्टिंग के उस स्तर पर पहुंच गए हैं, कि आज के अभिनय सीख रहे बच्चे सिर्फ और सिर्फ सीख सकते हैं, कि अभिनय में विविधता कैसे आती है, हालांकि मनोज का मानना है कि अभिनय कोई गॉड गिफ्ट नहीं होती, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, तकनीकी शिक्षा के लिए एक उस्ताद की आवश्यकता होती है, ऐसे ही अभिनय के लिए एक उस्ताद की आवश्यकता होती है, एक बेह्तरीन उस्ताद एक नायाब शागिर्द को रास्ता दिखा सकता है. ‘मनोज बाजपेयी’ कला, अभिनय, के साथ – साथ जमीन से जुड़े हुए हैं. उनके ज़िन्दगी के संघर्ष, मेहनत, जुनून के हद तक अदाकारी से इश्क़ उन्हें इस मुकाम तक ले आया है, कि उनकी अदाकारी आज के कला विद्यार्थियों के लिए इबादत बन चुकी है.
‘मनोज बाजपेयी’ 23 अप्रैल 1969 को नरकटियागंज, बिहार में पैदा हुए थे. मनोज का नाम भी हिन्दी सिनेमा सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार, हीरो मनोज कुमार के नाम पर ही रखा गया था. आम तौर पर बिहार में पैदा होते ही बड़े सपने देखना मतलब अधिकारों में नहीं होता. बड़े ख्वाबों पर बड़े शहर के बच्चों का हक होता है, जिन बेवकूफ़ लोगों ने यह कुंठित लकीरें खींची हैं, वो ‘मनोज बाजपेयी’ को देख लें, उनको अपनी खींची हुई लकीरें मिटानी होंगी. आज सभी के लिए एक प्रेरणा है. बचपन से एक्टर बनने की चाह, गांव से पटना, पटना से NSD (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) से हिन्दी सिनेमा सिल्वर स्क्रीन से वैश्विक अदाकार बनना आसान नहीं था. शुरुआत में हिन्दी भाषी बच्चों को पहले साबित करना होता है कि हम औरों की तरह ही बहुमुखी हैं. भाषा प्रतिभा का कोई पैरामीटर नहीं होती… ख़ासकर ‘मनोज बाजपेयी’ जैसे गाँव के होनहार छात्रों के संघर्ष की पराकाष्ठा होती है. जो ‘स’ को ‘श’ ‘ब’ को ‘व’ बोलता हो, क्योंकि अदाकारी में बोलने का अपना महत्व है. आज मनोज सधे हुए संवाद बोलने के लिए ही जाने जाते हैं. थियेटर, करते हुए बच्चे अभिनय के उस स्तर तक पहुंच सकते हैं, डायलॉग बोलने के साथ से ही वो बहुमुखी प्रतिभा देखी जा सकती है.
मनोज का संघर्ष ऐसा कि लोग देखकर ही प्रतिभा का आकलन करते थे. फोटो, सीवी आदि पीठ फेरते ही कचरे के डस्टबीन में पहुंच जाती थीं. कभी कोई उनका फेवर नहीं करता था, क्योंकि उनका औसतन शरीर उनकी अक्षमता जाहिर करता था. अपनी मेहनत से मुकाम पर पहुंचने के बाद आज ‘मनोज बाजपेयी’ प्रसिद्ध निर्देशकों की अपेक्षा नए निर्देशकों के साथ काम करना पसंद करते हैं, क्योंकि उनको लगता है, कि नए लोगों को मौका देना आवश्यक है, क्योंकि सिनेमा भी समय के साथ बदलता है, तब ही विविधता आती है. इस तरह की सोच उस व्यक्ति की ही हो सकती है, जिसने अपनी ज़िन्दगी में संघर्ष किया हो. ‘मनोज बाजपेयी’ आज के दौर में सपोर्टिंग इंसान हैं. नए – नए अदाकारों के साथ काम करते हैं, उनका कहना है कि हम भी परिपूर्ण नहीं होते हमें भी बदलते हुए सिनेमा के साथ खुद पर प्रयोग करते रहना चाहिए.
मनोज अपनी शख्सियत के बारे में कहते हैं “मैं जब थिएटर करता था, तो मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती थी, किसी पुस्तक को ढूंढने में.. आज सब कुछ बच्चों हाथ में है, आज मेरे गांव जब कोई लड़का सपना देखता है तो उसे आसानी से अचीव कर सकता है. यह मेरे साथ हुआ वह नॉर्मल नहीं था. मैं अपने घर के बाहर जा कर हाथ हिलाउंगा. तो लोग कहेंगे कि इसे क्या हुआ यह पागल हो गया क्या? लेकिन फिल्मों के बाद मैं लोगों के बीच बैठता हूं तो लोग मेरी तारीफ करते हैं. मैंने अपनी मातृभाषा को कभी नहीं छिपाया. मैं उन लोगों की परेशानी समझता हूं जो लोग मेरे यहां से बड़े शहरों में आते तो उनकी लिए यह समस्या बनी रहती है. मैं उन लोगों से कहता हूं कि आप जो हैं बने रहिए हालाँकि बहुत मुश्किल होता है”. हालाँकि यह भी एक सामाजिक सड़न है जो लोगों में असुरक्षा की भावना जागृत करती है”.
1994 में मनोज बाजपेयी ने अपना कैरियर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक स्वाभिमान के साथ शुरु किया. इसी धारावाहिक से आशुतोष राणा और रोहित रॉय को भी पहचान मिली. जिसके लिए उन्हें 1500 रुपए प्रति एपिसोड मिलता था. ‘मनोज बाजपेयी’ ने गोविन्द निल्हानी की फिल्म द्रोहकाल1994 से हिन्दी सिनेमा में पदार्पण किया था. इसके बाद बाजपेयी बायोग्राफिकल फिल्म बैंडिट क्वीन में नजर आये. फ़िल्मों में काम मिलना, एवं सफ़ल होना दोनों का अंतर्संबंध नहीं होता है. मनोज को हिंदी सिनेमा में पहचान बनाने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा था. उनको फेम फिल्म शूल से मिला था. आज वह हिंदी सिनेमा में सर्वश्रेष्ठ एक्टर्स की श्रेणी मे आते हैं. अब तक मनोज बाजपेयी कई कालजयी फ़िल्मों में यादगार अदाकारी कर चुके हैं. मनोज की यादगार फ़िल्मों का जिक्र करें तो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में सरदार खान का उनका किरदार जीवंत है, आम तौर पर एक कहावत है कि जिसने यह फिल्म नहीं देखा वह अब तक सिनेमाई लिहाज से एक कल्ट फिल्म से महरूम है, उसे सबसे पहले ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ ज़रूर देखना चाहिए.
‘अलीगढ़’ फिल्म में एक गे प्रोफेसर का यादगार किरदार ‘मनोज बाजपेयी’ की अदाकारी का वैचारिक स्मारक है. जब तक यह सिनेमा रहेगा तब तक उनका यह किरदार चर्चित रहेगा. मनोज अपने इस किरदार को सबसे अहम मानते हुए कहते हैं – “यह फिल्म मेरे लिए काफी अहम रही. क्योंकि फिल्म समीक्षकों ने कहा कि जो लोग फिल्म में गे का रोल करते हैं, उनका करियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया है, इतिहास गवाह है. मैंने यह फिल्म की आज आपके सामने हूं. इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि लोगों ज्ञान नहीं देना चाहिए, क्योंकि सबसे ज्यादा बेवकूफ़ी ज्ञान देने में ही होती है”. शूल, पिंजर, सत्या, स्वामी, 1971,राजनीति, कौन, चटगांव, अक्स, रोड, चक्रव्यूह, आरक्षण, सत्याग्रह, आदि फ़िल्मों को देखने के बाद ‘मनोज बाजपेयी’ की अभिनय क्षमता को देखा जा सकता है.
सत्या फिल्म के बाद समाज पर असर तो पड़ा ही था ख़ाकसार हिन्दी सिनेमा में ऐसी कहानियो की बाढ़ आ गई थी. आम तौर पर सिनेमा समय – समय पर अपना स्वरूप बदलता रहता है, फ़िल्मों में तकनीकी बदलाव तो होते ही हैं, लेकिन सिनेमा अपने समय – समय पर नायकों को ढूढ़ लेता है. सिनेमा ने ‘मनोज बाजपेयी’ को सत्या के बाद ढूढ़ लिया था, आम तौर पर शूल फिल्म से मनोज की पहिचान बनी थी, लेकिन उनका सिक्का सत्या से चला था. बदलते हुए समय के साथ मनोज हिन्दी सिनेमा में अदाकारी का नया-नया अध्याय लिखते चले गए. आज भी आपार सफ़लता के बाद मनोज बाजपेयी में बोलने की कला अपने शबाब पर जा रही है. आम तौर पर ऐसे कलाकार अपनी ज़िन्दगी देखने के नजरिए एवं महसूस करने का प्रतिफल होते हैं. गांव को कभी न भूल पाना जिस मिट्टी से मनोज पैदा हुए, उस महक की खुशबु हमेशा अपने पास महकाना सिद्ध करता है कि वो कितने जमीन से जुड़े हुए हैं. गांव में जन्मा बच्चा अपनी बचपन की जिंदगी में असल ज़िन्दगी में भी एक अदाकार ही होता है, उसे मौसम की हर मार सहनी पड़ती है, फिर आँखों में पल रहे सपनों के लिए पलायन कर जाना. बचपन की अदाकारी एक अनुभव ही होती है, कि शहर में कम से कम में गुजारा करना.. ज़िन्दगी औसत संसाधनो के साथ जीते हुए ज़िन्दगी का हर रंग जीना आ जाता है, फिर वही बच्चा बड़ा होकर मंच में अपने अब तक के जीवन को उड़ेल देता है.. जिसे मनोज बाजपेयी कहते हैं. इतने बड़े स्टार होने के बाद भी बड़े – बड़े मंचों से बचपन से ही माँ की दी हुई सीखो का अनुशरण करना, इससे नई जनरेशन सीख लेती हैं, कि कितने भी बड़े हो जाओ माँ की सीख बड़े वृक्ष बनने की जड़ होती है. मनोज बाजपेयी हमेशा अपनी माँ की बोली एक लाइन बोलते हैं “सफ़लता मिलना इतना मुश्किल नहीं है, लेकिन सफ़लता पाचन बहुत मुश्किल है, खासकर जिसे सफलता न मिले उसे बेवक़ूफ़ नहीं समझना चाहिए”. उनकी माँ की सीख वैश्विक सच है.
अभी तक कहा जाता रहा है कि गांव के बच्चे शहर के बच्चों से काफी पीछे होते हैं सब बकवास बातेँ हैं, क्योंकि व्यक्तिव विकास, बाहरी आवरण होता हैं, लेकिन गांव का बच्चा अगर अपनी प्रतिभा को महसूस कर ले तो वो हर विधा में बहुमुखी होता है, बस महसूस करने का एवं ज़िन्दगी जीने का एक अलहदा दृष्टिकोण होना चाहिए. मनोज बाजपेयी ने नाट्य विद्यालय के समय कहा था कि मैं सुपरस्टार नहीं एक अदाकार बनना चाहता हूं. ‘मनोज बाजपेयी’ अपने ख्वाबों के मुताबिक एक नायाब अदाकार बन चुके हैं. जिस तरह से लगातार कालजयी अभिनय करते जा रहे हैं, मनोज बाजपेयी सिनेमा में अदाकारी के लिहाज से सर्वोत्तम मुकाम पर होंगे, लेकिन अभी उनका स्वर्णिम दौर जारी है…. जिनका अभिनय आज के दौर में अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए सिलेबस है. वहीँ किसी भी क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल करने के लिए भी उनका जुनून, लगन, समर्पण एक प्रेरणा हैं, रंगमंच, एवं अदाकारी, के नायाब फनकार को मेरा सलाम..