सुधा सिंह
आज की औरतें तथाकथित विकसित समाज में विकास का पूरा आनंद ले रही हैं, हैं ना? खाने-पहनने, शादी-नौकरी सब फैसले अपनी मर्जी से। अकेली रह सकती हैं। नौकरी, बिज़नेस, फ़िल्मी या कॉरपोरेट वर्ल्ड में अपने बल बूते पर पितृसत्ता को ललकारती आगे ही आगे बढ़ रही हैं।
जब ललकारती हैं ना तो सबको बुरी लगने लगती हैं! हम में से ही टी.वी. के आगे बैठे दर्शक झट से कह देते हैं, “देखा और दे लो आजादी, इन औरतों को?”
ये वक्तव्य केवल घर के मर्दों का ही नहीं, हमारे घर की बुजुर्ग औरतों का भी होता है। तभी धीरे से कुछ और भी सुनाई देता है, “ये प्रसिद्धि इनको कहाँ से मिली? जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं।” वगैरह-वगैरह। अर्थात उस औरत की अपनी योग्यता, थी ही नहीं, ये तो सब समाज के ठेकेदारों की कृपा है।
जिन्होंने अपने घर में बैठे-बैठे ही थाल में सजा कर, उनके हिस्से की प्रसिद्धि, उनको यूँ भेंट कर दी!
प्रश्न करने वाली औरतें, आँख दिखाने वाली औरतें, सबको चुभती हैं, तब से जब वे बच्ची थीं। इसलिए वे नियंत्रण में रहें, तो उनके स्वर को परिसीमित करने का माहौल पैदा किया जाता है।
जब बड़ी होती हैं, तो इस रूप के, दिन में चाहे दर्शन हों या ना हों, पर रात में, बंद कमरे में, उस लड़की को अपनी माँ के दब्बू स्वभाव की याद दिलाती हैं।
अगर यहाँ पर भी वह अपनी इच्छा की बात करें तो पति जो कि उसे अच्छी तरह जानता है वो भी उस पल में आशंकित-सा हो जाता है।
माँ भी यही तर्क देती है कि बेटी! सदियों से यह परंपरा (दब्बू) चली आ रही है! पर कौन सी परंपरा?
ये परंपरा तो कुछ पीढ़ियों पहले की है। जब पर्दा प्रथा का आरंभ हुआ। उससे पहले एक वस्त्र में रहने वाली औरतों का इतिहास मिलता है। घर में रहते हुए, महलों में भी। पर आँखें घूरती नहीं थीं, झुकी रहती थीं।
ईसा से 500 वर्ष पूर्व यहां तक कि 200 वर्ष पूर्व, पुरातन समाज में, जब लड़कियाँ या बहुएँ भी रानी, मल्लिका बन राज़्य की बागडोर संभालती थीं।
आम औरतें न्यायालय में बिना पर्दे के जाती थीं। रामायण, महाभारत समय में, सांची, अजंता की कलाकृतियों में, भी पर्दे की कोई परंपरा नहीं थी। उस समय राजकुमारियों के स्वयंवर करवाए जाते थे, वह भी राजकुमारियों द्वारा निर्धारित शर्तों पर।
पढ़ाई, सैन्य शिक्षा, घुड़सवारी अन्य शिक्षा-दीक्षा का कार्य लड़कों के बराबर किया जाता था।
इस पर भी आप सशंकित हैं। तो ‘अर्धांगनी’ शब्द का क्या अर्थ निकालेंगे, आप? ये विकसित समाज की नहीं पुरातन समाज की धारणा है! जिसमें प्रकृति को पुरुष के समकक्ष माना जाता था, न कोई कम, न अधिक! औरत का पक्ष लेती पुरानी परंपराएं और धारणाएं कहाँ गईं?
फिर ये धारणाएं, परम्पराएं क्यों बदलीं, किसने बदलीं? कामसूत्र पर आधारित पुरातन मूर्तियों, शिलालेखों का अध्ययन भी बताता है कि ‘अर्धनारीश्वर’ को महत्व दिया जाता था। जहां पुरुष की इच्छा के समान ही नारी की इच्छा, चरम सुख की प्राप्ति को महत्व दिया जाता था।
पुरुष को अगर काम सुख की इच्छा है तो स्त्री को भी है चरम सुख की प्राप्ति या काम सुख या ऑर्गास्म की इच्छा। पुरुष की इच्छा का सम्मान न हो तो वो बाहर जाने की धमकी देता है पर औरत? बस वो ना नहीं कर सकतीं।
आज तो विकसित समाज की ये विडंबना है कि अगर औरत फिल्म जगत , कॉरपोरेट वर्ल्ड, या आम समाज में पति या किसी भी पुरुष को सुख नहीं देती तो रेप, एसिड अटेक या अन्य तरह की प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। जिसको ‘मी टू’ जैसी इंटरनेट मुहीम, सिद्ध करती हैं। या एक दो क्रांतिकारी बालाएँ, जो इस तंत्र का खुलेआम विरोध करने की हिम्मत रखती हैं।
यह पढ़े लिखे, सभ्य समाज का हाल है। पर ऐसी खबरें आदिवासी समाज की कभी नहीं आतीं। जानवरों में भी पुरुष वर्ग ही नाच-नाच कर, सुंदर रूप बना, अनोखी कला का प्रदर्शन कर स्वजातीय स्त्री वर्ग को सम्मान से रिझाता है। तो क्या माना जाए कि यह सब सभ्यता, विकास, शिक्षा का यह दुष्प्रभाव है?
नहीं ये केवल स्वार्थी, दंभी पितृसत्ता के अंध समर्थकों का कमाल है।