अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

ध्यान : ”मैं हूँ” पहले यह जानो, अनुभव करो

Share

डॉ. विकास मानव

मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरा सिर, मेरा प्राइवेट पार्ट, मेरा शरीर, मेरा प्रेमी/मेरी प्रेमिका, मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरा संसार : सब पता है. लेकिन मैं कौन? यह नहीं पता है. खुद का पता नहीं, बात खुदा की. ऊपर से तुर्रा यह की मनुष्य सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी.

शिव शिवा को ध्यान सूत्र देते हैं : हे प्रिये! यह बोध बना रहे कि “मैं हूं”. तब शाश्वत आविर्भूत होता है।

      हम हैं, लेकिन हमें बोध नहीं है कि हम हैं। हमें आत्म-स्मरण नहीं है। आप खा रहे हो, या स्नान कर रहे हो, या टहल रहे हो; लेकिन इसका बोध नहीं है कि मैं हूं। सजग नहीं हो कि मैं हूं सब कुछ है, केवल आप नहीं हो।

      झाड़ हैं, मकान हैं, चलते रास्ते हैं, सब कुछ है; आप अपने चारों ओर की चीजों के प्रति सजग हो, लेकिन सिर्फ अपने होने के प्रति कि मैं हूं सजग नहीं हो।

    अगर आप सारे संसार के प्रति भी सजग हो और अपने प्रति सजग नहीं हो तो सब सजगता झूठी है। क्यों? क्योंकि आपका मन सबको प्रतिबिंबित कर सकता है, लेकिन वह आपको प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। अगर आपको अपना बोध है तो आप मन के पार चले गए।

आत्म-स्मरण मन में प्रतिबिंबित नहीं हो सकता, क्योंकि आप मन के पीछे हो। मन उन्हीं चीजों को प्रतिबिंबित करता है जो उसके सामने होती हैं। आप केवल दूसरों को देख सकते हो,  अपने को नहीं देख सकते। आपकी आंखें सबको देख सकती हैं, लेकिन अपने को नहीं देख सकतीं।

      अगर आप अपने को देखना चाहो तो दर्पण की जरूरत होगी। दर्पण में ही  अपने को देख सकते हो, लेकिन उसके लिए दर्पण के सामने खड़ा होना होगा।  मन दर्पण है तो वह सारे संसार को प्रतिबिंबित कर सकता है, लेकिन आपको प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। क्योंकि आप उसके सामने नहीं खड़े हो सकते, सदा पीछे हो. आप दर्पण के पीछे खड़े हो। ध्यान आपको दर्पण के यानि मन के सामने खड़ा करता है.

    यह विधि कहती है कि कुछ भी करते हुए यह बोध बना रहे कि मैं हूं और इस तरह शाश्वत को आविर्भूत कर लो। अपने भीतर उसे आविष्कृत कर लो जो सतत प्रवाह है, ऊर्जा है, जीवन है, शाश्वत है।

      शुरू में यह बहुत कठिन होगा। यह सरल मालूम होता है, लेकिन आप भूल- भूल जाओगे। तीन या चार सेकेंड के लिए भी आप अपना स्मरण नहीं रख सकते। लगेगा कि मैं अपना स्मरण कर रहा हूं और अचानक किसी दूसरे विचार में चले गए। अगर यह विचार भी उठा कि ठीक है, मैं तो अपना स्‍मरण कर रहा हूं तो भी आप चूक गए; क्‍योंकि यह विचार आत्‍म-स्‍मरण नहीं है।

    आत्म-स्मरण में कोई विचार नहीं होगा, आप बिलकुल रिक्‍त और खाली होगे। आत्म-स्मरण कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। ऐसा नहीं है कि आप कहते रहो कि हां, मैं हूं। यह कहते ही कि मैं हूं चूक गए। मैं हूं यह सोचना एक मानसिक कृत्य है। यह अनुभव करो कि मैं हूं। मैं हूं इन शब्दों को नहीं अनुभव करना है। उसे शब्द मत दो, बस अनुभव करो कि मैं हूं। सोचो मत, अनुभव करो।

प्रयोग करो। कठिन जरूर है, लेकिन अगर  प्रयोग में लगन से लगे रहे तो यह घटित होता है। आसन, वसन की कोई जरूरत नहीं है इस ध्यान में. कुछ भी करते हुए स्मरण रखो कि मैं हूं अपने होने को महसूस करो। किसी विचार या धारणा को नहीं लाना है, बस महसूस करना है।

     उदाहरण स्वरूप मैं आपका हाथ छूता हूं या आपके सिर पर अपना हाथ रखता हूं तो उसे शब्द मत दो, सिर्फ स्पर्श को अनुभव करो। इस अनुभव में स्पर्श को ही नहीं, स्पर्शित को भी अनुभव करो। तब आपकी चेतना के तीर में दो फलक होंगे।

      वृक्षों की छाया में टहल रहे हो; वृक्ष हैं, हवा है, उगता हुआ सूरज है। यह है आपके चारों ओर का संसार और आप उसके प्रति सजग हो। घूमते हुए क्षणभर के लिए ठिठक जाओ और अचानक स्मरण करो कि मैं हूं अपने होने को अनुभव करो। कोई शब्द मत दो, सिर्फ अनुभव करो कि मैं हूं।

      यह शब्दहीन अनुभूति, क्षण मात्र के लिए ही सही, आपको सत्य की वह झलक दे जाएगी जो कोई एल .एस .डी. नहीं दे सकती।

      क्षणभर के लिए ही सही, आप अपने अस्तित्व के केंद्र पर फेंक दिए जाते हो। तब आप दर्पण के पीछे नहीं हो, प्रतिबिंबों के जगत के पार चले गए हो। तब आप अस्तित्वगत हो।

 यह प्रयोग आप किसी भी समय कर सकते हो। इसके लिए न किसी खास जगह की जरूरत है और न किसी खास समय की। यह नहीं कह सकते कि मेरे पास समय नहीं है। भोजन करते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। तुम करते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। चलते हुए या बैठे हुए, किसी समय भी यह प्रयोग कर सकते हो। कोई भी काम करते हुए अचानक अपना स्मरण करो और फिर अपने होने की उस झलक को जारी रखने की चेष्टा करो।

    आरम्भ में जरूर यह कठिन होगा। एक क्षण लगेगा कि यह रहा और दूसरे क्षण ही वह विदा हो जाएगा। कोई विचार प्रवेश कर जाएगा, कोई प्रतिबिंब, कोई चित्र मन में तैर जाएगा और उसमें उलझ जाओगे। उससे दुखी मत होना, निराश मत होना। ऐसा होता है, क्योंकि हम जन्मों-जन्मों से प्रतिबिंबों में उलझे रहे हैं। यह यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है। अविलंब, आप ही आप हम प्रतिबिंबों में उलझ जाते हैं।

    लेकिन अगर एक क्षण के लिए भी आपको झलक मिल गई तो वह प्रारंभ के लिए काफी है। इसलिए काफ़ी है कि आपको कभी दो क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। सदा एक क्षण ही आपके हाथ में होता है। अगर एक क्षण के लिए भी झलक मिल जाए तो उसमें ज्यादा बने रह सकते हो। सिर्फ चेष्टा की जरूरत है, सतत चेष्टा की।

     आपको एक क्षण ही तो दिया जाता है?  दो क्षण तो कभी एक साथ नहीं आते। दो क्षणों की फिक्र मत करो, आपको सदा एक क्षण ही मिलेगा। अगर एक क्षण के लिए बोध हो सके तो जीवन भर के लिए बोध बना रह सकता है। सिर्फ प्रयत्न चाहिए। यह प्रयोग सारा दिन चल सकता है। जब भी स्मरण आए, अपने को स्मरण करो।

यह ध्यान सूत्र जब कहता है कि ‘बोध बना रहे कि मैं हूं, तो आप क्या करोगे? क्या याद करोगे कि मेरा फलाने है? क्या स्मरण करोगे कि मैं फलां परिवार का हूं फला धर्म का हूं फलां-फलां परंपरा का हूं? क्या याद करोगे कि मैं अमुक देश का हूं अमुक जाति का हूं अमुक मत का हूं? क्या स्मरण करोगे कि मैं कम्युनिस्ट हूं या हिंदू या ईसाई हूं? क्या स्मरण करोगे? ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए. आप यह सब हो भी नहीं.

      किसी नाम की जरूरत नहीं है, किसी देश की जरूरत नहीं है, सिर्फ होने की जरूरत है कि आप हो। तो अपने से यह मत कहो कि आप कौन हो। यह मत कहो कि मैं यह हूं वह हूं। आप हो, इस अस्तित्व को स्मरण करो।

      यह कठिन इसलिए हो जाता है, क्योंकि हम कभी मात्र अस्तित्व को स्मरण नहीं करते। हम सदा उसे स्मरण करते हैं जो एक लेबल है, पदवी है, नाम है, वह अस्तित्व नहीं है। जब भी आप अपने बारे में सोचते हो,  अपने नाम, धर्म, देश इत्यादि की सोचते हो,  कभी इस मात्र अस्तित्व की नहीं सोचते कि मैं हूं।

आप इसकी यानि “स्व की” साधना कर सकते हो। अपनी कुर्सी में या किसी पेड़ के नीचे विश्रामपूर्वक बैठ जाओ, सब कुछ भूल जाओ और इस अपने होनेपन को अनुभव करो। न ईसाई हो, न हिंदू न बौद्ध, न भारतीय, न अंग्रेज, न जर्मन; न पति न पत्नि : बस आप हो, इसकी प्रतीति भर हो, भाव भर हो। तब आपके लिए याद रखना आसान होगा कि यह सूत्र क्या कहता है।

    जिस क्षण आपको बोध होता है कि मैं कौन हूं उसी क्षण शाश्वत की धारा में फेंक दिए जाते हो। जो असत्य है, उसकी मृत्यु निश्चित है. केवल सत्य शेष रहता है। वही आप हो. इसका अनुभव अहम है, ज्ञान नहीं.

     हम मृत्यु से इतना डरते हैं, लेकिन झूठ को मिटना ही है। असत्य सदा नहीं रह सकता है। हम असत्य से बंधे हैं, असत्य से तादात्म किए बैठे हैं। आपमें जो हिंदू है, वह तो मरेगा; जो राम है या कृष्ण है, वह तो मरेगा; जो कम्युनिस्ट है, आस्तिक है, नास्तिक है, वह तो मरेगा-जो-जो नाम-रूप है वह सब मरेगा। अगर आप नाम-रूप के मोह में पड़े हो, उससे आसक्‍त हो तो जाहिर है कि मृत्यु का डर आपको घेरेगा।

   आपके भीतर जो सत्य है, जो अस्तित्वगत है, जो आधारभूत है, वह अमृत है। जब नाम-रूप भूल जाते हैं और दृष्टि भीतर के अनाम और अरूप पर पड़ती है, तब आप शाश्वत में प्रवेश कर गए।

यह ध्यानविधि अत्यंत कारगर विधियों में से एक है और हजारों साल से प्रशिक्षकों ने इसका उपयोग किया है। बुद्ध इसे उपयोग में लाए, महावीर लाए, जीसस लाए। आधुनिक जमाने में पश्चिमी दार्शनिक गुरजिएफ ने इसका खूब उपयोग किया। मैं भी इस विधि का प्रयोग मेरे ध्यान शिविरों में प्रतिभाग करने वालों पर करता हूँ. सभी विधियों से इस विधि की क्षमता सर्वाधिक है। इसका प्रयोग करो। बिना प्रशिक्षक के यह प्रयोग समय लेगा, महीनों लग सकते हैं। लेकिन सफलता असंदिग्ध है.

      हम जैसे हैं, असल में हम विक्षिप्त ही हैं, पागल ही हैं। जो नहीं जानते हैं कि हम क्या हैं, हम कौन हैं, वे पागल ही हैं। लेकिन हम इस विक्षिप्तता को ही स्वास्थ्य माने बैठे हैं।

      जब आप पीछे लौटने की कोशिश करोगे, जब सत्य से संपर्क साधोगे तो वह विक्षिप्तता जैसा, पागलपन जैसा ही मालूम पड़ेगा। हम जैसे हैं, जो हैं, उसकी पृष्ठभूमि में सत्य ठीक विपरीत है। अगर आप जैसे हो उसको ही स्वास्थ्य मानते हो तो सत्य जरूर पागलपन मालूम पड़ेगा।

   सत्य दर्शन, स्व दर्शन की घड़ी के आने के पूर्व आप नहीं पूछ सकते कि मैं कौन हूं। या फिर आप सतत पूछते रह सकते हो कि मैं कौन हूं मैं कौन हूं और मन जो भी उत्तर देगा वह गलत होगा, अप्रासंगिक होगा।

     ध्यान पथ पर होने पर पूछते जाओ कि मैं कौन हूं मैं कौन हूं तब एक क्षण आएगा जब यह प्रश्न नहीं पूछ सकते। पहले सब उत्तर गिर जाते हैं और फिर खुद प्रश्न गिर जाता है और खो जाता है। और जब यह प्रश्न भी कि ‘मैं कौन हूं?’ गिर जाता है, जानते हो कि आप कौन हो।

     एक क्षण आएगा जब कोई उत्तर नहीं आएगा। वही सम्यक क्षण होगा। अब आप सही उत्तर के करीब आ रहे हो। जब कोई उत्तर नहीं आता है, उत्तर के करीब होते हो। क्योंकि अब मन मौन हो रहा है, अब मन से बहुत दूर निकल गए हो। जब कोई उत्तर नहीं होगा और जब आपके चारों ओर एक शून्‍य निर्मित हो जाएगा तो  प्रश्न पूछना व्यर्थ मालूम होगा।  किससे पूछ रहे हो? जवाब देने वाला अब कोई नहीं है।

    अचानक प्रश्न भी गिर जाएगा। प्रश्न के गिरते ही मन का आखिरी हिस्सा भी गिर गया, खो गया, क्योंकि यह प्रश्न भी मन का ही था। वे उत्तर भी मन के थे और यह प्रश्न भी मन का था। दोनों विलीन हो गए। अब आप बस हो।

    इस विधि का प्रयोग करो। अगर आप लगन से लगे रहे तो पूरी संभावना है कि यह विधि आपको सत्य की/आप की झलक दे जाएगी; और सत्य शाश्वत है।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें