अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

जायज मामलों में जमानत न देना बौद्धिक बेईमानी

Share

,मुनेश त्यागी 

      भारत के वकील समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा पिछले पंद्रह बीस सालों से बहुत ही जोरदार तरीके से लगातार आवाज उठाता चला रहा है और अदालतों से गुजारिश करता चला आ रहा है कि जमानतीय अपराधों में अभियुक्तों को विभिन्न न्यायालयों द्वारा जमानत दी जानी चाहिए, ताकि बेगुनाह अभियुक्तों को अनावश्यक रूप से जेल में सड़ने से बचाया जा सके। इसके पीछे जस्टिस कृष्णा अय्यर का वह फैसला काम कर रहा था कि जिसमें उन्होंने कहा था कि “बेल इज द रूल, जेल इज द एक्सेप्शन” यानी जमानत नियम है और जेल अपवाद है। मगर विभिन्न न्यायालयों के न्यायाधीश, वकीलों की इस जायज बात को एक के बाद एक बहाने बनाकर, अनसुना करते चले आ रहे थे। अब जैसे बिल्ली के बहाने छिक्का टूट गया है। अब जैसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वकीलों की इस गुजारिश को सुन लिया है जिसमें उसने अवधारित किया है कि जमानती मामलों में जमानत न देना बौद्धिक बेईमानी है जिसे न्यायिक बेईमानी भी कहा जा सकता है।

         अभी अभी दिए गए अपने एक अहम फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जायज मामलों में जमानत न देना “बौद्धिक बेईमानी” है। इस कमेंट के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायिक अधिकारी की याचिका पर तत्काल सुनवाई से इनकार कर दिया, जिन्हें एक जायज मामले में जमानत देने से मना करने पर, राज्य न्यायिक अकादमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया था।

    सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की पीठ ने कहा कि अगर जमानत देने में बेईमानी एक समस्या है तो यह भी एक तरह की बेईमानी है कि जिन मामलों में जमानत मिलनी चाहिए, उन में जमानत न दी जाए, यह एक “बौध्दिक बेईमानी” है।

      इस न्यायिक अधिकारी द्वारा जमानत नहीं देने वाले आदेश को सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन माना गया था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दो मई को इलाहाबाद हाई कोर्ट से लखनऊ के जज को न्यायिक अकादमी में अपने न्यायिक कौशल को सुधारने के लिए भेजने के लिए कहा था। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब लखनऊ के न्यायिक अधिकारी ने कोर्ट से दखल देने की मांग की और सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। 

    सर्वोच्च न्यायालय की पीठ यह आदेश दूसरे अन्य न्यायिक अधिकारियों के लिए भी उदाहरण है। उन अधिकारियों के लिए यह एक अहम उदाहरण है जो जमानत देने वाले मामलों में जमानत देने में आनाकानी करते हैं और अभियुक्तों को जमानत न देकर उन्हें कैसे परेशान किया जाता है और बहुत लंबे समय तक जेल के अंदर रखा जाता है। यह न्यायिक मन: स्थिति कानून के शासन, संविधान के उद्देश्यों और सिद्धांतों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेशों के खिलाफ है।

      न्यायिक प्रक्रिया को अपनाते हुए अनेकों अनेक मामलों में निचली अदालतें नियमित रूप से अभियुक्तों की गिरफ्तारी का आदेश देती हैं और गिरफ्तारी के परिणाम स्वरूप अदालतों में मुकदमेबाजी का बोझ कम करते हैं।

      प्रभावित जज की ओर से, पीठ के समक्ष लखनऊ के जज की तथाकथित परेशानियों का उल्लेख किया था। कोर्ट को बताया गया कि ये जज साहब 30 जून को रिटायर होने वाले हैं और उनका नाम इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए विचाराधीन है। यह उनके कैरियर का अहम सवाल है। उन्हें अपने जीवन में 30 वर्षों से अधिक न्यायिक सेवा का अनुभव है। इस पर पीठ ने कमेंट किया कि यदि वे पिछले 30 साल से एक न्यायिक अधिकारी हैं तो उन्हें और भी बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिए थी और संभल संभल कर काम करना चाहिए था और इस अदालत के आदेशों को समझना और मानना चाहिए था।      

          सर्वोच्च न्यायालय ने जज के अधिवक्ता की इस दलील को नकारते हुए कहा कि ऐसे जज को कुछ दिन के लिए अकादमी में भेजा जाना उपयोगी होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा कि जज का नजरिया बदलना चाहिए। अगर वह हाईकोर्ट में जाएंगे तो वहां पर भी फिर से वही काम करेंगे। हमने कई आदेश पारित किए हैं कि अगर जांच के दौरान आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया है तो उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। आरोप पत्र पर विचार के समय उन्हें तलब किया जाना चाहिए और जमानत दे देनी चाहिए। 

     पीठ ने आगे कहा कि अगर अभियुक्त समन के बावजूद भी न्यायालय में पेश नहीं होता हैं तो शुरुआत में जमानती वारंट जारी किया जाना चाहिए और उसके बाद गैर जमानती वारंट किया जा सकता है। न्यायिक अधिकारी की सीनियोरिटी एक बड़ा कारण है कि वह जमानत देने में लचीलापन क्यों नहीं अपनाते थे? जमानत देने योग्य मामलों में जमानत देने में आनाकानी क्यों करते थे और जमानत ना देने के पीछे उनका आशय क्या था?

      करोड़ों अभियुक्तों के लिए सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला बहुत ही अहम फैसला है, उन्हें तत्काल राहत देने वाला है। इस फैसले के आने के बाद अब निचली अदालतों के न्यायाधीशों को मजबूर होना पड़ेगा कि वे जमानत योग्य मामलों में अभियुक्तों को जमानत दें, उन्हें बेवजह या मनमाने रूप से जेल में ना भेजें। रूल ऑफ लॉ और “रूल ऑफ़ बेल” का यही आशय है कि जमानत दिए जाने वाले और जमानत योग्य मामलों में अभियुक्तों को तत्काल जमानत पर रिहा कर देना चाहिए।

     भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला अभियुक्तों और वकीलों के लिए राहत की सांस ले कर आया है। वकील समुदाय और दूसरे जानकार लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का तहे दिल से स्वागत किया है। वहां पर खुशी की लहर दौड़ गई है। उनका कहना है कि अब वे काफी लंबे समय से जेलों में सड़ रहे अपने अभियुक्तों को जमानत पर बाहर निकलवा सकेंगे। उम्मीद है कि निचली अदालतों के न्यायाधीश, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के इस बहुत ही अहम फैसले पर गम्भीरता से विचार करेंगे और जायज मामलों में अभियुक्तों को समय से जमानत पर रिहा करेंगे और जायज मामलों में जमानत ना देकर बौद्धिक बेईमानी नहीं करेंगे।

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें