अग्नि आलोक
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*भय से मुक्ति आत्मबल*

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी एकदम दार्शनिक मानसिकता में हैं।
सीतारामजी मानव जीवन के लिए एक संत के द्वारा कहा गया समीकरण पढ़ कर सुनाया,भूत काल का चिंतन+भविष्य काल की चिंता=जीवन।
मनुष्य ,बीते दिनों के संघर्ष के अनुभवों पर चिंतन करता रहता है,और उसे भविष्यकाल की चिंता सताती रहती है,यही तो मानव जीवन है।
चिंता को चिता समान कहा है।
चिंता मतलब भय।भय के पर्यायवाची शब्द हैं भय- त्रास, भीति, डर, खौफ और बहुत बार इसी खौफ के कारण मानव अवसाद में चला जाता है।
भय दो प्रकार के होते हैं।
एक भय मानव को Cautious मतलब सतर्क करता है।
नुकसान से बचना भी तो लाभ ही है। यह भय किसी झरने के पास चिकनाई वाली सतह पर जाने से रोकता है,आग से बचने के लिए सावधान करता है। मानवीय भूल से होने वाली दुर्घटनाओं से बचाता है।
एक भय मानव की मानसिक बीमार है,इसे Phobia कहते हैं।
फोबिया मतलब सदा अनावश्यक भय ग्रस्त रहना,आशंकित रहना।
जो व्यक्ति सबसे ज्यादा भय ग्रस्त होता है,लोगों को आतंकित करता है?
निर्भय होने के लिए आत्मबल मजबूत होना चाहिए। मजबूती का पर्यायवाची शब्द महात्मा गांधी है।
गांधीजी का शस्त्र अहिंसा था।
शस्त्रों का ज़ख़ीरा जमा करना भी तो भय ही है।
दूसरों को वही व्यक्ति डराता है जो स्वयं भयग्रस्त होता है।
फिल्मों के खलनायक प्रत्यक्ष उदाहरण है।
भय ही मानवों को भगवान का स्मरण करवाता है।
इन दिनों हमारे सियासतदानों को जांच एजेंसियों का भय सता रहा है,कुछ तो अनुभव ले रहे है,कुछ आशंकित है,कब कोई जांच एजेंसी धावा बोल दे?
चुनाव परिणाम के बाद धनबल से बिकाऊ निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त का भय?
मुफ़लिसी में भय किस हद तक हो सकता है,यह शायर मोहसिन नक़वी इस शेर में प्रकट होता है।
वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
गली में फिर खिलौने बेचने वाला न आ जाए
झूठे आश्वासनों पर अंध विश्वास करने वाले और झूठे वादों का प्रचार करने वालें स्वयं भी धोखा ही खाते हैं। ऐसे लोगों के लिए, शायर शकील बदायुनी का यह शेर मौजू है।
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

यही हश्र अच्छेदिनों का हो रहा है।
उपर्युक्त कथन के बाद सीतारामजी ने कहा जो आत्मबल से परिपूर्ण होते हैं और जिनका जुनून होता है,यथास्थितिवाद से लड़ना, हर क्षेत्र में व्याप्त संकीर्ण,संकुचित,दकियानूसी सोच के खिलाफ निर्भीय होकर अपनी आवाज को बुलंद करना।ऐसे लोगों के लिए ख्यात साहित्यकार जयशंकर प्रसादजी के महा काव्य कामायनी की निम्न पंक्तियां प्रासंगिक है।
वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या,
जिस पथ पर बिखरे शूल न हो;
नाविक की धैर्य परीक्षा क्या,
यदि धाराएँ प्रतिकूल न

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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