~ सुधा सिंह
भागते भागते थक चुका था. अकेलापन अवसाद की तरफ़ बढ़ने लगा था. यार दोस्त या तो भूमिगत हो गये थे , या फिर जेल जा चुके थे।
कोई परचित मिल जाता और पहचान भी जाता तो ऐसे कन्नी काटता जैसे वह कभी मिला ही नहीं है. न ही वह इस नाम के किसी शख़्स से परचित है।
एक महीने से ज्यादा वक्त फ़रारी में गुज़ार कर बनारस लौटा था। बार बार मन करता था – अब गिरफ़्तारी दे देनी चाहिये। कम्बख़्त यह ख़ादिम कब तक ‘रहमान’ की खाल ओढ़े घूमाता रहेगा?
इमर्जेंसी देखा है आपने? सोच कर अब हंसी आती है , लेकिन उस दौर में चौतरफ़ा ख़ौफ़ घेरे रहता। आँख कान खोले चलता हर इंसान सी आई डी लगता।
सावन का महीना. इस माह में काशी की काया फ़ूल कर तिगुनी हो जाती है. सैलानियों , श्रद्धालुओं , सोहदों से काशी भर जाती है। फ़रारियों के लिये यह महीना अतिरिक्त सुविधा दे देता है।
ख़ादिम का रहमान औरंगज़ेब की नुकीली तरासी हुई दाढ़ी , अधबाहीं बंडी , आगे से सिला हुआ धारीदार तहमत , बेख़ौफ़ी मुखौटा लगाये वह सावन के मेले में धँस जाता रहा। घूमता निस्फ़िकर , लेकिन ख़ाली पेट की प्यासी आँखें , मारवाड़ी श्रद्धालु की मन्नत खोजने में लगी रहती , मारवाड़ी देश के किसी कोने में रहे. बैठे बैठे काशी के बाबा से , अजमेर के दरगाह से या उस उदार देवी देवता से अपना व्यापार कर ही लेता है , जो क्षणे रुष्टा , क्षणे तुष्टा के रूप में प्रचारित हैं।
लाभ का सौंवा हिस्सा कंगलों के भोज में जायगा बाबा , दया दृष्टि बनाये रखिये। बुदबुदाते हुए सेठ , सुलगती अगरबत्ती उस तिजोरी के छेद में फँसा देता जिसके पीठ पर स्वस्तिक का निशान और शुभ् लाभ लिखा रहता।
काशी का सावन मेला , शुभ लाभ वाले तिजोरियों का सौवाँ हिस्सा उन भिखारियों में तकसीम होता जो देश के कोने कोने से यहाँ काशी आ चुके होते। किमदंती सच होकर साक्षात सामने आ जाती : काशी माँ अन्नपूर्णा की नागरी है यहाँ कोई ख़ाली पेट नहीं सोता। रहमान में खड़ा ख़ादिम कई बार इस अन्न का पान कर चुका है। लेकिन कब तक यार ? चलो जेल ही हो लें. मन जेल जाने को स्वीकार लेता।
– सुनो ! अभी गिरफ़्तार मत होना , परसों दस बजे दिन में सारनाथ में मिलना।
ऐं ? जार्ज ( फ़र्नांडीस ) की आवाज़। पादरी के बाने में ? सामने इशारा करते हैं – कर्पूरी ( ठाकुर ) हैं , इन्हें किसी तरह सारनाथ भेजो।
कर्पूरी ठाकुर ? सूट बूट , टाइ में ? द रेस्टोरेंट के सामने के वि एम होटल का अहाता , बारिश की बूँदें छातों में खड़े लोग। जार्ज ग़ायब। कर्पूरी ठाकुर शिवकुमार ( बाद में काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने ) के साथ सारनाथ रवाना। रहमान तनहा कहाँ चलें?
सामने रिक्शा रिक्शे पर दुबली पतली काया , रिक्शा आवाज़ दे रहा है – एक सवारी कबीरचौरा…
रहमान कूद कर रिक्शे पर बैठ गया , काया असहज हुई , फ़रारी की दुर्गंध से ,
– भैया जी हम है!
– चंचल ? तुम?
– हूँ
– रिक्शा चलो , जल्दी करो बारिश आनेवाली है.
गोदौलिया से चौक की चढ़ाई चढ़ते समय रिक्शा चालक उतर कर चलता है। रिक्शे की गद्दी पर पड़े रहमान के पंजे पर एक मुट्ठी का दबाव पड़ा। एक नोट था।
रख लो कुछ खा लेना ,
रहमान मैदागीन पर उतर गया , गोल्डन फ़्रेम का चश्मा चढ़ाये दुबली पतली काया आगे बढ़ गई।
भैया जी बनारसी थे। मशहूर साहित्यकार “आज“ अख़बार के साहित्य संपादक।
एक मुट्ठी से दूसरी मुट्ठी में आया दस का नोट। उसने महसूस किया दस की औक़ात बढ़ रही है , मन उछल गया रहमान “ यशपाल “ ( महान क्रांतिकारी और मशहूर लेखक ) हो गया , फ़रारी में यशपाल भाग रहा है , अंग्रेज़ी साम्राज्य का मोस्ट वांटेड। गणेश शंकर विद्यार्थी आसरा देते हैं। कांग्रेस अपने सत्य और अहिंसा के कवच में सुराजी सशस्त्र क्रान्तिकारियों को किस तरह जोड़े रखा , अद्भुत तानाबाना है।
मैदागीन तिराहे पर खड़ा रहमान ख़ुद से पूछता है यशपाल के ‘झूठा सच’ या ‘मेरी तेरी उसकी बात’ को ही साहित्य अकादमी का पुरष्कार क्यों मिला ? उनके ‘सिंहावलोकन’ जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज है को क्यों नहीं जगह दिया?
वह ख़यालों में चला गया और ख़याल सुराजी कांग्रेसियों की जंग में उलझ गया। ज्यों ज्यों इतिहास के पन्ने खुलते गये , ख़ादिम यानी चंचल , यानी रहमान का केडी नीचे खिसकता गया। कितनी तकलीफ़ों से गुजरा है हमारा इतिहास? कितनी जलालतें सहा है हमारी पुरानी पीढ़ी ने ?
समाज में चली एकतरफ़ा राग के अनुपात ने भैया जी बनारसियों को सुराज की जंग से बाहर रखा है। हम इतना निर्मोही और एहसान फ़रामोश रहे हैं ?
– रिक्शा ! चौक चलोगे?
– रिक्शावाला चाय पी रहा है भाई
और वह पौडल निकल गया लेकिन रहमान किधर जाय ? अभी टू यही नहीं तय है।
तीन दिन बाद वह पकड़ लिया गया।
कैसे ?