शंभूनाथ शुक्ल
दस साल बाद बाढ़ ने फिर क़हर ढा दिया है। जहां 2013 में उत्तराखंड तबाह हुआ था, वहीं 2023 में हिमाचल। मंडी शहर तो बर्बादी के कगार पर है। चारों तरफ़ बस जल ही जल। सिरमौर में लोग फंसे हुए हैं। अटल टनल बंद है और शिमला-मनाली हाई वे के यात्री इधर-उधर टिके हैं। ब्यास नदी उफान पर है। हिमाचल में भारी बारिश और जल प्रलय चंडीगढ़ को अपने दायरे में ले लिया है। मोहाली की एक रिहायशी मल्टी स्टोरी कॉलोनी गुलमोहर में तो नावें चल रही हैं। भू-तल डूब चुका है। लोग ऊपर की मंज़िलों पर खड़े मदद की गुहार कर रहे हैं।
उत्तराखंड भी दस साल पहले जैसी विपदा भले न आई हो लेकिन पूरा राज्य बाढ़ की चपेट में है। पंजाब, हरियाणा के साथ-साथ दिल्ली-एनसीआर भी बदहाल है। ग़ुरुग्राम में आवाजाही ठप है तो नोएडा के कई सेक्टर जलमग्न हैं। दिल्ली में यमुना का पानी ख़तरे के निशान से ऊपर बह रहा है। जल भराव और बाढ़ की हालत इन राज्यों के लिए आम हो गई है। मगर पिछले कुछ वर्षों से राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के सूखे इलाक़ों में भी पानी भर रहा है।
आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है? इस पर विचार न किया गया तो भविष्य में स्थिति और भयावह हो जाएगी। बहुत-से लोग 2013 का वह भयावह मंज़र भूल चुके होंगे जब 2013 में केदारनाथ हादसा हुआ था। उस समय 16 जून की रात अचानक केदारनाथ में जोर का धमाका हुआ और नीरव सन्नाटे में पानी की ऊंची-ऊंची लहरों ने पत्थरों को लुढ़काना शुरू कर दिया। गर्मी के दिन थे इसलिए उत्तराखंड के इस प्राचीन शिव मंदिर के दर्शनों के लिए असंख्य श्रद्धालु आए हुए थे। इस हादसे में कितने लोग मरे थे और कितने लापता हुए थे, इसका कोई पुख़्ता आंकड़ा आज तक नहीं मिल सका है।
बस यही बताया गया कि केदारनाथ धाम के चोराबारी ग्लेशियर के ऊपर बदल फटा था। और इसके बाद जो भगदड़ मची उसमें कौन कहां गया, कुछ नहीं पता चल सका। केदारनाथ के एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी है दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड है। इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं- मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी। उस रात ये सारी नदियां उफन पड़ी थीं। इसके बाद पूरे उत्तराखंड में ज़बर्दस्त बारिश शुरू हो गई और समस्त 40 हज़ार किमी का यह पहाड़ी राज्य बुरी तरह बाढ़ से घिर गया।
यह हादसा भले केदारनाथ धाम से शुरू हुआ हो लेकिन उत्तराखंड के बाक़ी धाम (बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री) भी सैलाब से बच नहीं सके। बाद में उत्तराखंड की बदहाली के जो चित्र आए, वे दिल दहला देने वाले थे। लोग बुरी तरह भयभीत हो गए। पानी के सैलाब ने सब कुछ लील लिया था। केदारनाथ में तो सिर्फ़ केदारनाथ का मंदिर ही शेष बचा था। कत्यूरी शैली में बने इस मंदिर की बनावट ऐसी है, कि इसका ध्वंस लगभग असंभव है। देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट की मानें तो 13वीं सदी से 17वीं सदी तक यह मंदिर बर्फ़ से दबा रहा। लेकिन जब बर्फ़ हटी तो मंदिर यथावत था।
यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि कत्यूरी शैली में बने मंदिरों को इस तरह बनाया गया था कि वे प्राकृतिक आपदाओं में सुरक्षित रह सकें। किंतु मनुष्य जो आपदाएं लाते हैं, उनसे प्रकृति कुपित होती है। प्रकृति के कुपित होने से सबसे अधिक नुक़सान मनुष्यों को ही होता है। मगर मनुष्य उसे कुपित करने के सारे उपक्रम करते रहते हैं। उस समय लगा था कि शायद मनुष्य इस हादसे से चेतेगा और नदियों के जल प्रवाह को रोकने या बाधित करने की हरकतें नहीं करेगा। मगर उस हादसे को लोग भूल गये, और फिर से वैसी ही हरकतें शुरू कर दीं, जो प्राकृतिक कोप का कारण बनती हैं। जैसे नदियों के जल-प्रवाह को रोकना, उसके प्रसार क्षेत्र में खनन, डूब क्षेत्र में बसावट। नतीजा यह होता है कि न बाढ़ रुक पाती है न सूखा।
भले बाढ़ और सूखे की वजह अल-नीनो और ला-नीना को बताया जाए। परंतु प्रकृति के कोप से बचने के जो उपाय तलाशे गये थे, उनकी अवहेलना समाज को भारी पड़ती है। केदारनाथ की सभी नदियों के प्रवाह क्षेत्र में यदि होटेल और गेस्ट हाउस न बनाये जाते तो यकीनन चोराबारी ग्लेशियर से आया पानी अपनी स्वाभाविक गति से बह जाता। किंतु जिस तरह से वहां भीड़ को ठहरने के लिए मंदाकिनी के बहाव को बाधित किया गया, उससे यह बर्बादी होनी ही थी। इसके अलावा पहले जो तीर्थयात्री केदार धाम में आता था, वह अपनी आस्था और श्रद्धा के चलते आता था। मगर पर्यटन को बढ़ावा देने के मक़सद से उसे एक धार्मिक स्थल से पर्यटन स्थल बना दिया गया। नतीजन वे लोग भी इन धामों में आने लगे, जो लोग सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए यहां आते थे।
तब मध्य हिमालय में सब कुछ स्वाहा हो गया था। आदि शंकराचार्य ने कल्चुरी राजाओं की मदद से वहां केदारनाथ मंदिर बनवाया था, बस वही बचा रहा। आधुनिक सरकारें सड़क, बांध और भवन तो बनवा सकती हैं लेकिन मंदिर नहीं। करीब एक हजार साल से भी ज्यादा समय तक केदारनाथ मंदिर अपनी भव्यता और दुर्गमता के कारण जाना जाता रहा है। बद्री और केदार घाटी की खोज आदि शंकराचार्य ने की थी। तब यहां तिब्बती बौद्धों का कब्जा था लेकिन आदि शंकराचार्य का कहना था कि भगवान नारायण ने यहां साक्षात अवतार लिया था और बाद में बौद्धों ने उनकी प्रतिमा कुंड में फेंक कर इस घाटी पर कब्जा कर लिया।
आदि शंकराचार्य अपने साथ कुछ दक्षिणात्य ब्राह्मणों को लेकर गए थे और भयानक शीत में वे कुंड में कूदे तथा भगवान बद्री की प्रतिमा निकाली तथा उसे स्थापित किया। उनके बाद कल्चुरी राजाओं के शिल्पी आए तथा उनकी रक्षा के लिए सेना भी। यहां से दस्युओं और चोरों को मार भगाया गया और शिल्पियों ने यहीं के पत्थरों से बद्री और केदार घाटी में क्रमश: भगवान बद्रीनाथ तथा शिवलिंग की भव्य मूर्तियां स्थापित कीं।
आदि शंकराचार्य ने सिर्फ यही नहीं किया। उन्होंने आज से हजार साल पहले भारत देश को एक सूत्र में पिरोने की एक ऐसी अवधारणा प्रस्तुत की जो शायद उसके पहले किसी ने नहीं सोची थी।
पूरे भारत के पश्चिमोत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालय ही फैला है। और इसके नीचे का भूभाग एक प्रायद्वीप जैसा है, जिसका सारा मौसम हिमालय की पहाड़िय़ों और बर्फ से ढकी चोटियों से प्रभावित होता है। आज अगर भारत का मौसम उष्ण कटिबंधीय है तो उसकी वजह यही हिमालय है। जाड़ा, गरमी और बरसात की वजह यही हिम प्रदेश है। वर्ना शायद भारत में भी अन्य मुल्कों की तरह एक सा मौसम रहा करता। या तो भयानक गर्मी या भयानक जाड़ा अथवा बारहों महीने की बारिश। पर हिमालय में शहर बसाने की कल्पना करने वाले हमारे हुक्मरान भूल जाते हैं कि हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड़ है। इसे आल्पस की तरह तोड़ा नहीं जा सकता है न ही इसे अरावली की तरह रौंदा जा सकता है।
इसीलिए हमारे धार्मिक ग्रंथों में इसे धर्म और अध्यात्म का केंद्र बताया गया है। चाहे वे वैदिक ऋषि-मुनि रहे हों अथवा बौद्ध व सिख हिमालय में अपने अध्यात्म की भूख मिटाने गए। इसीलिए सदैव से हिमालय में तीर्थयात्री जाते रहे हैं पर्यटक नहीं। पर्यटकों के लिए अंग्रेजों ने अपेक्षाकृत कम ऊंची पहाड़िय़ों को विकसित कर लिया था। शिमला, कसौली, मसूरी, नैनीताल से लेकर दार्जिलिंग तक। इसके ऊपर का भाग सिर्फ धार्मिक यात्रियों तक सीमित रखा गया और अभी कुल पचास साल पहले तक ये धार्मिक यात्री बद्री, केदार, गंगोत्री तथा यमुनोत्री की पूरी यात्रा हरिद्वार से ही पैदल तय करते थे।
पहले जो भी यात्री इन धामों की यात्रा करने जाया करते थे वे अपने नाते-रिश्तेदारों से मिलकर यात्रा शुरू करते थे क्योंकि उनके सकुशल लौटने की उम्मीद कम ही हुआ करती थी। एक कहावत प्रचलित थी- जाए जो बद्री, वो लौटे न उद्री, और लौटे जो उद्री तो होय न दलिद्दरी। यानी बद्री-केदार जाने वाले का लौटना यदा कदा ही हो पाता था और लौटा तो फिर वह गरीब तो नहीं रहता था। यह एक किंवदंती थी। तब जो पहाड़ों के धाम पर इतनी दूर गया वह लौटेगा, इसकी उम्मीद न के बराबर हुआ करती थी।
लेकिन सुदूर बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा गंगोत्री तो क्या गोमुख तक आज यात्रियों की भीड़ लगी रहती है। उनमें आध्यात्मिकता कम इन इलाकों में जाकर मौज मस्ती करने का भाव अधिक रहता है। इसीलिए वे अपने साथ खाने-पीने की इतनी चीजें ले जाते हैं कि उनकी गंदगी से इस सारे क्षेत्र से पानी निकलने के रास्ते तक बंद हो गए हैं।
पहले के यात्री तीर्थ के भाव से निकलते थे और कहीं भी लकड़ियों को जुगाड़कर चूल्हा जलाया और खिचड़ी बनाकर खा ली लेकिन अब तो उन्हें वह सब चाहिए जो दिल्ली आदि महानगरों में उपलब्ध है। उनकी चाहत के लिए यहां दुकानें तथा होटल खुले। पहाड़ में जगह नहीं मिलती इसलिए अधिकतर होटल नदी द्वारा छोड़ी गई रेती में बनाए गए और सारा कचरा नदी में फेंका जाने लगा।
नतीजा यह हुआ कि नदी में गाद जमा होने लगी और धारा प्रभावित होने लगी। केदारनाथ का पूरा हादसा पर्यटकों की इसी हरकत की देन है। जो जगह वानप्रस्थ में प्रवेश कर चुके यात्रियों के लिए तय की गई थी उसमें वह लोग भी अपना हक जमाने लगे जिन्होंने अभी जिंदगी शुरू तक नहीं की है।
नदियों के प्रवाह क्षेत्र और डूब क्षेत्र पर क़ब्ज़ा, खनन आदि ने हिमालय की सूरत बिगाड़ दी है। जिसकी वजह से अरब सागर और बंगाल की खड़ी से आने वाला मॉनसून हिमालय की चोटियों से टकरा कर नमी पैदा करता है। नतीजा होता है, घनघोर बारिश।