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नागा साधु जीते जी करते सात पीढ़ी का श्राद्ध:राजाओं संग युद्ध लड़ने जाते थे

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श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा। यह देश का सबसे पुराना और बड़ा अखाड़ा है। इस अखाड़े में शामिल होना आसान नहीं। अगर कोई शामिल हो भी गया तो साधु बनने के लिए उसे कड़े तप से गुजरना होता है। इस समय यहां से दस लाख नागा साधु जुड़े हैं।

आज पंथ में हम आपको बताएंगे कि श्री पंचदशनाम जूना अखाड़े में शामिल होने की परंपरा क्या है।

मैं उत्तराखंड की तलहटी में बसे हरिद्वार पहुंचती हूं। वैसे तो इस अखाड़े का मुख्य कार्यालय बनारस के हनुमान घाट पर है, लेकिन हरिद्वार में इसकी सबसे पुरानी और महत्वपूर्ण शाखा है। हरिद्वार का मायादेवी मंदिर जूना अखाड़े का है। कुंभ के वक्त जूना अखाड़े का टेंट इसी मंदिर में लगता है।

जब मैं मायादेवी मंदिर पहुंचती हूं तब यहां श्री महंत सुरेशानंद सरस्वती जी पूजा कर रहे हैं। मैं यह बात पहले से जानती थी कि नागा साधुओं से बात करना आसान नहीं है। हरिद्वार के एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी से मैंने अनुरोध किया। उनके रेफरेंस से श्री महंत सुरेशानंद सरस्वती जी बात करने के लिए राजी हुए।

जूना अखाड़े समेत सभी 13 अखाड़ों की मुख्य गतिविधियां तो कुंभ में ही होती हैं। बाकी समय उनका जीवन कैसा रहता है, यह जानने की जिज्ञासा मुझे यहां लेकर आई है।

श्री महंत सुरेशानंद सरस्वती बताते हैं कि इन दिनों तो सभी साधु पूजा-पाठ ही करते हैं। कुंभ के आसपास ज्यादा व्यस्तता रहती है। बाकी समय में तमाम नागा साधु या तो अखाड़े में रहते हैं या अपने-अपने मठों और आश्रमों में।

मैंने सवाल किया कि नागा साधु बनने की पहली शर्त क्या होती है। वह कहते हैं कि संन्यास लेना। अखाड़े में इस शर्त के साथ आने वाले को सबसे पहले महापुरुष बनाया जाता है। महापुरुष का मतलब होता है कि वह किसी एक गुरु की शरण में रहता है, गुरुसेवा करता है। पूजा-पाठ के तौर तरीके सीखता है।

फिर जब भी कुंभ आता है तो महापुरुष बने संन्यासी को अवधूत बनाया जाता है। अवधूत बनाने से पहले उससे साफतौर से पूछा जाता है कि वह नागा बनने के लिए तैयार है या नहीं। अगर एक भी संन्यासी मना कर देता है तो वह वापस घर जा सकता है, लेकिन महापुरुष रहने तक किसी को भी घर जाने की इजाजत नहीं रहती है।

वधूत बनने का प्रोसेस क्या है? मेरे अंदर जाने की इच्छा हुई।

श्री महंत सुरेशानंद सरस्वती कहते हैं, ‘एक दफा अवधूत बनने के बाद घर वापसी की कोई गुंजाइश नहीं होती है। उस व्यक्ति से तीन कसमें ली जाती हैं कि नारी, चोरी और झूठ से दूर रहेगा। वह इन बातों का वचन देता है। अवधूत बनाने से पहले उसे गंगा में 108 दफा डुबकी लगानी होती है। उसके बाद चोटी गुरु उसकी चोटी काटते हैं, लंगोट गुरु उसे लंगोटी देते हैं। इसके साथ ही उसे भस्म, भगवा और कंठी दी जाती है। फिर उसके कान में गुप्त मंत्र फूंका जाता है। उसका मुंडन कर दिया जाता है, उसे धर्म कमंडल दिया जाता है, जनेऊ दिया जाता है।’

महंत जी कहते हैं, नहीं…नहीं। इतना आसान नहीं। उसे अपनी सात पीढ़ियों का श्राद्ध करना पड़ता है। उसे अपनी आने वाली सात पीढ़ियों का भी श्राद्ध करना पड़ता है। वो अपने ननिहाल की सात पीढ़ियों का भी श्राद्ध करता है। यह सब करने के बाद वो अपना ही पिंडदान कर देता है। इसके बाद उसका नाम बदल जाता है।

बाकायदा अपने परिवार वालों से बोल देता है कि मैं तुम सब के लिए मर चुका हूं। उसका यह एक नया जन्म माना जाता है। अब वह न तो घर जा सकता है और न ही परिवार से कोई नाता रख सकता है।’

तो फिर नागा बनने का प्रोसेस इससे मुश्किल भरा होता है क्या?

श्री महंत सुरेशानंद सरस्वती बताते हैं, ‘अवधूत बनने के बाद का अगला क्रम होता है नागा बनना। कुंभ मेले के शाही स्नान वाले दिन से एक दिन पहले उसे 24 घंटे का उपवास रखवाया जाता है। पूरे 24 घंटे उसे तपस्या में बैठना होता है, जलते कंडों के बीच उसे बिठाया जाता है, मंत्रोच्चारण होता रहता है। चौबीस घंटे के बाद उसे धर्म ध्वजा के नीचे लाकर खड़ा किया जाता है। उससे बोला जाता है कि ऊपर धर्म ध्वजा की तरफ देखो। जब वह ऊपर आसमान में धर्म ध्वजा की ओर देखता है तो उसके बाद दिगंबर गुरु उसके लिंग को पकड़कर नीचे की ओर सात बार जोर से झटका देते हैं और उसकी लंगोटी खोल देते हैं। इसके बाद वह शाही स्नान करता है और वह नागा साधु बन जाता है।नागा साधुओं में दिगंबर गुरु हर कोई नहीं बन सकता है। इसके लिए बाकायदा अभ्यास की जरूरत होती है।

कुंभ के अलावा बाकी दिनों में नागा साधु सुबह 4 बजे उठकर पूजा-पाठ करते हैं। उसके बाद उनकी दिनचर्या वैसे ही रहती है जैसे किसी भी आम साधु की रहती है। समाज में विचरते हुए वह कपड़े पहनते हैं, लेकिन कुंभ, अर्धकुंभ या किसी किसी मठ में तप करते वक्त वह एकदम बिना कपड़ों के रहते हैं। इनकी पूजा के मंत्र गुप्त रहते हैं। कुंभ में हर साधु को अपने सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देनी होती है उसे पुकार कहते हैं। जितना बड़ा साधु उतनी बड़ी पुकार।

हालांकि निरंजनी अखाड़े में भी नागा साधु हैं, लेकिन जूना अखाड़े में इनकी संख्या ज्यादा है। प्रशासनिक अधिकारी रह चुके सुरजीत पंवार बताते हैं कि जूना अखाड़े के साधुओं से बात करना, टेबल पर मोलतोल करना, प्रशासनिक बात मनवाना कतई आसान काम नहीं। कुंभ समेत कई मामलों में इनसे बात करना तलवार की धार पर चलने जैसा है। नगर प्रवेश से लेकर शाही स्नान तक पुलिस प्रशासन पग-पग पर पल-पल निगाह बनाए रहता है।

कुंभ में सबसे पहले तो नगर प्रवेश होता है। जिसमें हाथी, घोड़े, बग्गियां, ट्रॉली आदि पर साधुओं का नगर आगमन होता है। वह एक प्रकार से शक्ति को दिखाना भी होता है। इनकी पानी की टंकी की सुरक्षा से लेकर शाही स्नान करवाने तक इनकी सुरक्षा में पूरा पुलिस अमला लगा रहता है।

नगर प्रवेश के बाद धर्म ध्वजा लगाई जाती है। धर्म ध्वजा बनाने के लिए जंगल से 52 गज के पेड़ की पूरी लकड़ी लाई जाती है। पेड़ को पुलिस प्रशासन और वन विभाग की देखरेख में काटकर लाया जाता है। पेड़ का चुनाव करने की शर्त है। ये कहीं से कटा नहीं होना चाहिए और न ही उसमें कहीं कील होनी चाहिए। जंगल से लाकर उसमें झंडा लगाया जाता है। इसके बाद मंत्रोच्चारण के साथ धर्म ध्वजा खड़ी की जाती है।

इस कार्यक्रम के बाद ही साधु टेंट में आ सकते हैं। धर्म ध्वजा खड़ा करने का मतलब है कि कुंभ का आगाज हो गया है। फिर अगले दिन पेशवाई निकलती है। पेशवाई में यह लोग अपने देवता, भाले, तलवार लेकर चलते हैं। सबसे आगे इनके सभापति, महामंडलेश्वर होते हैं, पद के क्रम अनुसार बाकी साधु होते हैं। पेशवाई एक प्रकार से सैनिक बल दिखाने की प्रथा है।कुंभ स्नान में नागा साधुओं का वैभव राजाओं जैसा होता था, इस वजह से इसे शाही स्नान कहा गया है।

नागा संन्यासी की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इस परंपरा का प्रारंभ कब हुआ, किसने किया, कहा नहीं जा सकता। कई ऋषि इनके प्रेरण स्रोत रहे हैं। जैसे- पतंजलि, अवदूत मुनि कपिल, ऋषभदेव। इन्हें इन लोगों का पूर्वज माना गया है। दत्तात्रेय को ये अपना ईष्ट देवता मानते हैं।

नागा साधुओं के दो अंग माने गए हैं। शस्त्रधारी और शास्त्रधारी। शस्त्रधारियों ने मलविद्या सीखी और शास्त्रधारी शास्त्रों के अध्ययन में लगे। शस्त्रधारियों का संगठित रूप ही अखाड़े में दिखाई देता है।

रणभूमि का हिस्सा बनने के लिए राजा नागाओं को देते थे न्योता

इनके शौर्य से मध्यकालीन इतिहास भरा हुआ है। धर्म के खिलाफ, शासकों के खिलाफ इन्होंने लड़ाइयां लड़ी हैं। कई राजा इन्हें लड़ाइयां लड़ने के लिए बुलाया करते थे। 1666 में हरिद्वार में, 1748 में अहमद शाह अब्दाली से, 1757 में गोकुल में, हजारों नागा साधुओं ने लड़ाइयां लड़ीं और वीरगति को प्राप्त हुए। इनमें स्वनाम धन्य गोसाईं और राजेंद्र गिरी का नाम प्रमुख है।

इसके अलावा कच्छ और भुज में भी इन्होंने रण लड़े। मठ इनके गढ़ हुआ करते थे और यह हाथियों और घोड़ों पर चला करते थे। भाला और त्रिशूल तब भी इनका मुख्य हथियार होता था और आज भी है। मध्यप्रदेश में नागौद राज्य की नींव नागा संन्यासियों ने डाली। वहां के शासक इनके उपासक थे।

बता दें कि जूना अखाड़े की स्थापना सन 1145 में उत्तरांचल के कर्णप्रयाग में की गई थी। यहीं इनका पहला मठ बनाया गया था। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। भगवान शिव इनके आदि देव हैं। 13 में से सात अखाड़े शैव हैं जो शिव को मानते हैं।

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