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बिरसा मुंडा का हिन्दुकरण कर रहे हैं आरएसएस के लोग-रामशरण जोशी

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दंतेवाड़ा से कुछ दूर एक नकुलनाय दक्षिण बस्तर में है, आप ताज्जुब करेंगे कि वहां एक विशाल मूर्ति लगाई गई है और यह मूर्ति है महाराणा प्रताप और उनके घोड़े चेतक की। अब महाराणा प्रताप का दक्षिण बस्तर में क्या काम है? वहां आप मूर्ति लगा सकते थे बिरसा मुंडा की। पढ़ें, छह वर्ष पहले रिकार्ड की गई रामशरण जोशी से सिद्धार्थ की बातचीत

[आदिवासी विषयों पर समग्र रूप से पत्रकारिता करनेवाले रामशरण जोशी और डॉ. सिद्धार्थ की यह बातचीत 14 नवंबर, 2017 को बिरसा मुंडा की 143वीं जयंती की पूर्व संध्या पर रिकार्ड की गई। ] 

एक चीज, जिसके ऊपर मैं आपका ध्यान ले जाना चाहता हूं, वह यह कि अंग्रेजों के समय और अंग्रेजों के जाने के बाद देशी शासक वर्ग का आदिवासियों के प्रति जो रूख रहा है या फिर उनके जंगल और जमीन के इस्तेमाल की बात कही जाती रही है, वे उन्हें पीछे धकेलते रहे हैं। आज जो हमारे शासक व राजनीतिक दलों का एजेंडा है, उनमें और बिरसा मुंडा के जो एजेंडे थे, दोनों के बीच के अंतर को आप कैसे देखते हैं? 

बिरसा मुंडा ने एक बड़ा अभिनव नारा दिया– ‘लगान ना दें और आदेश का पालन ना करें।’ यह उन्नीसवीं सदी की बात है। यही बात बीसवीं सदी में गांधी दूसरे ढंग से कह देते हैं और असहयोग आंदोलन शुरू करते हैं। इस क्रम में वह दांडी यात्रा के जरिए नमक का आंदोलन शुरू करते हैं। इस तरह देखा जाय तो बिरसा मुंडा एक दूरदृष्टा थे। उन्नीसवीं सदी में ही उन्होंने अपनी स्थितियों को ध्यान में रख कर प्रतिरोध के विभिन्न आयामों को सामने रखा। एक बात ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आज हम बिरसा मुंडा को क्यों याद करते हैं? इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उनके प्रतिरोध में आधुनिकता के सभी तत्व मौजूद हैं। यह प्रतिरोध की जो विरासत है, और जो उसकी यात्रा है, उसमें उसकी पूरी झलक हम लोग उन्नीसवीं सदी के आंदोलन में देखते हैं। 

हमें यह भी देखना चाहिए कि आदिवासियों की लड़ाई अठारहवीं सदी से चल रही है। और यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या वही लड़ाई आधुनिक या बीसवीं या इक्कीसवीं सदी में मुख्य कैसे बन जाती है। जैसे जल, जंगल और जमीन का मसला आज का नहीं है, अठारहवीं सदी से चल रहा है। यह सब तब शुरू हुआ जब भू-बंदोबस्ती की जाने लगी और जब जमीनें छीनी जाने लगीं। आज जो हम इक्कीसवीं सदी में देखते हैं तो कच्चे माल की संपदा यानी प्राकृतिक संपदा आज कहां है। ये आदिवासी क्षेत्रों में हैं। चाहे वह झारखंड हो, छत्तीसगढ़ हो या मध्य प्रदेश या फिर आंध्र प्रदेश का क्षेत्र हो। जितने भी लौह अयस्क है, कोयला है, सब उसी क्षेत्र में है। यह सभी ने देखा है कि उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों में कितनी लंबी लड़ाई चली। 

क्या हम यह कह सकते हैं कि अंतर्वस्तु के रूप में अंदर जाकर देखा जाए तो जो भारतीय शासक वर्ग हैं, उनका जो रुख आदिवासियों के प्रति है– अंग्रेजों से कम क्रूर, कम उत्पीड़न करने वाला नहीं है? 

अंग्रेजों से लेकर आज तक आदिवासियों के प्रति राज्य का जो चरित्र रहा है, उसमें बुनियादी और गुणात्मक अंतर नहीं आया है। सिर्फ एक अंतर आया है कि अंग्रेजों ने उसे विधान मंडल में, विधायिका में प्रतिनिधित्व नहीं दिया। लेकिन इस व्यवस्था में जो बुनियादी अंतर्विरोध रहे हैं, अठारहवीं सदी से लेकर आज तक उन अंतर्विरोधों का वैज्ञानिक समाधान नहीं हो पाया है। यानि उसको डिफ्यूज़ किया गया। यहां मैं दो शब्द कहूंगा– डिफ्यूज़न और रिजोल्यूशन। रिजोल्यूशन का मतलब समाधान और डिफ्यूज़न का मतलब फौरी तौर पर उस पर मरहम पट्टी लगा देना और यह मान लिया जाना कि समाधान हो गया। तो आपने विधायिका यानि संसद और विधान सभाओं में रिजर्वेशन तो कर दिया, लेकिन जो आधुनिक राज्य और उनके बीच जो अंतर्विरोध थे, बुनियादी चीजों के लेकर, उसका समाधान नहीं कर सके। आपको अगर सीमेंट चाहिए, लोहा चाहिए, स्टील चाहिए और दूसरी चीजें चाहिए तो आप तुरंत आदिवासी क्षेत्रों में जाते हैं। इसकी वजह यह है कि कॉर्पोरेट सेक्टर का यानि कॉर्पोरेट पूंजी का जो दबाव है, पिछले पच्चीस सालों में या कहा जाय कि जुलाई 1991 के बाद जो नई आर्थिक नीति आई, उसका सबसे ज्यादा असर यह रहा कि कच्चे माल के जो भी स्रोत हैं, उनको हथियाया जाय।

लेकिन अन्य देशों में क्या हुआ, यह भी देखा जाना चाहिए कि जैसे– दक्षिण अमेरिका, लैटिन अमेरिका में सत्रहवीं सदी में व्हाइट सेट्लर्स [यूरोप से जाकर बसे श्वेत लोगों] ने जो किया था ब्राजील के अंदर, क्यूबा के अंदर या चिली, अर्जेटीना के अंदर; वही प्रक्रिया हमारे देश में जो नई सरकार है या जो नई व्यवस्था है, उसके प्रतिनिधि अपना रहे हैं।

जैसे यह कहा जा रहा है कि पिछली सरकारें भी इसी तरह करती रही हैं। अब इस देश के अंदर जो कॉर्पोरेट का और हिंदुत्व की राजनीति का जैसा कि बहुत सारे लोग इसे फासीवाद नाम देते हैं। तो यह जो गठजोड़ बना है, जो सभी समुदाय के प्रति आक्रामक बना है। अब जो रिपोर्टें आ रही हैं कि इसकी आक्रामकता बढ़ी है तो आप इसको कैसे देखते हैं?

आपने बहुत अच्छा सवाल किया कि हिंदुत्व और कॉर्पोरेट पूंजी; दोनों के बीच जो गठबंधन है, यह एक नया आयाम है। पहले एक नेशनल बुर्जुआजी हमारे देश के अंदर मौजूद थी, लेकिन नेशनल बुर्जुआजी भूमंडलीकरण के बाद धीरे-धीरे हाशिए पर जा रही है। अब जो मल्टीनेशनल कंपनियां हैं, और यहां के कॉर्पोरेट हैं, सबका ध्यान आदिवासियों पर है। लेकिन अब दिक्कत यह आती है कि हम आदिवासियों को न्यूट्रीलाइज कैसे करें या उनके प्रतिरोध की क्षमता को कैसे कम करें। जैसा कि मैंने शुरू में कहा, अंतर्विरोधों को डिफ्यूज़ कैसे करें, तो उसके लिए एक धर्म चाहिए। आपको शायद यह मालूम है या नहीं कि आदिवासी क्षेत्रों में आज सबसे ज्यादा काम संघ कर रहा है। आपके जशपुर में, छत्तीसगढ़ में, झारखंड के अंदर। जैसे आप छत्तीसगढ़ के जशपुर जाएंगे तो वनवासी कल्याण आश्रम हैं, वे क्या काम कर रहे हैं? वे यही कर रहे हैं। आदिवासी को वे तो वनवासी मानते हैं। 

रामशरण जोशी से बातचीत करते सिद्धार्थ

लेकिन वे तो आदिवासियों का हिंदूकरण कर रहे हैं?

मैं उसी पर आ रहा हूं। वे हिंदूकरण का जो आंदोलन चला रहे हैं, उसे सबसे पहले दिलीप सिंह जुदेव ने 1970-80 के आस-पास छत्तीसगढ़ में यानि रायगढ़, जशपुर और आपके अंबेकपूर जैसे क्षेत्रों में चलाया। उसके कारण बहुत सारे आदिवासी हिंदू बनने लगे। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी मैं बता दूं कि ईसाई मिशनरियों का, बल्कि सबसे पहले उन्हीं का काम रहा है। फिर ईसाईयों को काउंटर करने के लिए यह संघ आया। लेकिन उसमें एक नया शब्द जुड़ा हिंदुत्व। लेकिन जब हम हिंदुत्व की बात करते हैं तो उससे एक क्वालिटेटिव चेंज आता है राजनीति में। लेकिन होता यह है कि राजनीति धीरे-धीरे राष्ट्र को थियोक्रेटिक स्टेट [धर्मशासि‍त राज्य] की तरफ ले जाती है। यानि जिसको बोलते हैं कल्चरल नेशनलिज्म या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। मैं यह कहता हूं कि जिसे मैंने लिखा भी है कि आज जो आदिवासियों का आंतरिक उपनिवेशीकरण किया जा रहा है, उसका अंत होना चाहिए। कॉर्पोरेट पूंजी इस आंतरिक उपनिवेशवाद को और भी मजबूत कर रही है। 

तो क्या हम यह कह सकते हैं कि कॉर्पोरेट तो उनके आर्थिक संसाधनों का लूट रहा है और राज्य उनका हिंदुकरण कर रहा है। मतलब दोनों के बीच एक गठजोड़ है कि तुम आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमाओ और हम उनका हिंदूकरण करेंगे? 

इसे यूं कहिए कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक नजरिए में धर्म का इस्तेमाल हो रहा है। मैंने अपने कई किताबों में लिखा है। अब जैसे एक-दो रोचक बातें मैं आपको बताऊंगा, शायद आपको मालूम नहीं होगा। दंतेवाड़ा से कुछ दूर एक नकुलनाय दक्षिण बस्तर में है, आप ताज्जुब करेंगे कि वहां एक विशाल मूर्ति लगाई गई है और यह मूर्ति है महाराणा प्रताप और उनके घोड़े चेतक की। अब महाराणा प्रताप का दक्षिण बस्तर में क्या काम है? वहां आप मूर्ति लगा सकते थे बिरसा मुंडा की। यह हिंदूकरण का सबसे बड़ा उदाहरण है। दूसरा बड़ा उदाहरण एक और देता हूं कि आपने दंतेश्वरी माई का नाम सुना होगा। यह आदिवासियों की देवी हैं। दंतेश्वरी माई का दंतेवाड़ा में एक मंदिर आज भी है और अब इसमें एक नई बात सामने आई है। अभी मैंने देखा कि दंतेश्वरी माई के मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने हनुमान जी की एक विशालकाय आदमकद मूर्ति स्थापित की गई है। यह हिंदुत्व का दूसरा उदाहरण है। आज आदिवासी क्षेत्रों में आप जहां जाएंगे, वहां पर बाकायदा सोमवार, मंगलवार को व्रत रखा जाता है। हनुमान चालीसा का पाठ होता है। जितने भी हिंदू देवी-देवता हैं, उनको माना जाता है। आदिवासियों के जो पारंपरिक देवी-देवता हैं उनको हिंदू देवी-देवता से रिप्लेस [बदल] कर रहे हैं। अब इसमें दो बातें हैं। एक तरफ तो उनके अंतर्विरोधों को डिफ्यूज़ करना और उनमें जो कहीं-न-कहीं प्रतिरोध की क्षमता जो विकसित हो रही है, उसको खत्म करना और तीसरी यह कि उनको अपनी तरफ अपने हिंदू फोल्ड में लाना। आप जानते हैं कि संघ के गुरू गोलवलकर की किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में वह सिख, बौद्ध और जैन जितने भी हैं, इनको वो अलग नहीं मानते। वो मानते हैं कि ये हिंदू फोल्ड के ही लोग हैं और हिंदुओं से अलग नहीं हैं। कहने का मतलब यह है कि ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में आदिवासियों को थोड़ा बहुत चलताऊं ढंग से लिखा है। इसलिए क्योंकि वे आदिवासियों को पूरे तौर पर हिंदू फोल्ड में लाना चाहते हैं। हिंदू फोल्ड में ला करके हिंदुत्व स्टेट जैसा कि मैंने कहा। कालांतर में मान लीजिए कि कल को साढ़े चार सौ या पांच सौ सीटें मिल जाएं तो मुझे डर है कि जो मौजूदा संविधान है, इसके साथ कुछ भी हो सकता है। यह रिप्लेस भी हो सकता है। वे मानते भी हैं कि यह हिंदू स्टेट है। गुरू गोलवलकर जी ने लगातार यही कहा है कि यह हिंदू स्टेट है और यहां का रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है, चाहे वे आदिवासी हों, चाहे वो मुसलमान हों, चाहे वो ईसाई हों। और इसका उदाहरण हल्के-फुल्के ढंग से जर्मनी में रहने वालों के बारे में कहा जाता था कि प्रत्येक व्यक्ति जर्मन है। …सावरकर ने बाद में यही किया और पॉलिटिक्स से जोड़ा। इसलिए पूरे ‘स्कीम ऑफ थॉट्स’ (वैचारिक दायरे) में, उस फ्रेम में, जो आपका बिरसा मुंडा हों या छत्तीसगढ़ के एक और आदिवासी नायक हैं वीर नारायण सिंह, इसी तरह आपका बस्तर का गुंडा धुर जो कि भूमकाल के नायक थे, उनको ये मुख्यधारा में कभी महत्व नहीं देते। वे महत्व देते हैं तो महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे लोगों को। 

तो क्या मैं यह कह सकता हूं कि जैसे कि बिरसा की परंपरा के नायक हैं और उन नायकों की जगह जो हिंदुवादी नायक हैं, वे स्थापित किए जा रहे हैं और बिरसा जैसे लोगों को पृष्ठभूमि में ढकेलने की कोशिश की जा रही है। यह एक बड़ा सांस्कृतिक खतरा बन के सामने आ रहा है? 

यह तो स्पष्ट है। जब वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं, जब वे वेदों से शुरू करते हैं और कहते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, अटक (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का एक शहर) से कटक तक, एक ही हिंदू संस्कृति है तो जाहिर है कि उनका जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, वे इसको महत्वपूर्ण मानते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है। किसी भी राजनीतिक दल को देखिए। मूलत: राजनीति मायने रखती है। बाकी जो धर्म है, याद रखिए हर स्टेट और हर समय की राजनीतिक अर्थव्यवस्था ही मायने रखती हैं। तो राज्य कौन-सी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को अपने साथ लेकर चल रहा है। आज का जो राज्य है, राजनीतिक अर्थव्यवस्था का उद्देश्य है कॉर्पोरेट सेक्टर को मजबूत करना। और यह विमर्श पूरी दुनिया में चल रहा है कि क्या ऐसा समय कभी आ सकता है कि जब दुनिया में कॉर्पोरेट सेक्टर राज्य को, जो कि पारंपरिक राज्य है, उसी को रिप्लेस कर दें। अब इसमें दो उदाहरण हैं। 2016 में अमेरिका में ट्रंप का जीतना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से कॉरपारेट हैं। उससे पहले वहां कोई ऐसा राष्ट्रपति नहीं हुआ था, जो उद्योगपति रहा हो। और इधर नरेंद्र मोदी के बारे में भी यही मानते हैं कि कॉर्पोरेट ही उनको आगे बढ़ा रहा हो।

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