वाराणसी। भारत को आजाद हुए 76 साल हो गए पर आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा वंचना, अस्पृश्यता और गैर बराबरी की समस्या से जूझ रहा है। जातीय विभाजन की रेखा के एक तरफ खुद को उच्च जाति का बताने वाला वर्ग खड़ा है तो दूसरी ओर उन तमाम जातियों का एक भरा-पूरा समूह है जिन्हें सामजिक तौर पर नीची जाति के रूप में संबोधित किया जाता है। इस उच्चता और निम्नता का अर्थ संविधान सम्मत नहीं है बल्कि यह पारंपरिक रूप से चली आ रही उस सडांध का प्रतिफल है जो वर्ण व्यवस्था से जन्मी है। कुछ जातियों ने पूरी व्यवस्था में खुद को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिए तमाम जातियों को अन्त्यंज, अछूत और निम्नता की ऐसी परिधि पर खड़ा कर दिया है कि वह तमाम प्रयास और संघर्ष के बावजूद समाज के केंद्र में अपने सम्मानजनक अस्तित्व की स्थापना नहीं कर पा रहे हैं।
व्यवस्था की इसी विडम्बना को समझने के लिए वाराणसी जिले के गांव बलरामपुर गए। बलरामपुर पूरी तरह से जातीय व्यवस्था के सहारे बुना गया गांव है। इस गांव में एक तरफ ब्राहमण समाज रहता है तो एक तरफ पाल समाज रहता है। हम जिस हिस्से में खड़े हैं वह पूरी तरह से दलित समाज का गांव है। दलित में भी सिर्फ एक ही जाति है, वह है चमार। आर्थिक तौर पर बहुत कमजोर नहीं हैं यहाँ के लोग। जब हम पहुंचे हैं तब गांव में पुरुषों की संख्या बहुत कम दिखी। ज्यादातर पुरुष रोजी-रोजगार के लिए गांव से बाहर गए हुए थे। गांव में हमारी मुलाक़ात सिर्फ महिलाओं से हुई। ज्यादातर महिलाएं खेतों में रोपाई के काम में लगी हुई थीं। महिलाओं के साथ तमाम छोटी लड्कियां भी खेतों में रोपाई कर रही थीं। ऐसे लगता है कि कुछ लड़कियां पहली बार रोपाई कर रही हैं। सामजिक कार्यकर्त्ता मनोज कुमार, जिन्होंने हमें इन महिलाओं से मिलवाया। मनोज कुमार, जो इस गाँव में लगातार यहाँ की महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण देने के साथ ही तथा उन्हें सामाजिक-आर्थिक मजबूती देने के उपक्रम में लगे हैं । येअपने संगठन के माध्यम से यहाँ की महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह का संचालन भी करते हैं।
मनोज के साथ आने की वजह से गांव की तमाम महिलाएं बिना झिझक और संकोच के हमसे बात करने के लिए तैयार हो गईं। चूंकि गांव के जिस हिस्से में यह महिलाएं हैं वह सिर्फ इनकी ही जाति का है तो शुरुआती बातचीत में काफी विरोधाभास दिखता है। कोई भी महिला जाति और राजनीति पर बात करने में सहज नहीं दिखती। सबसे पहले हमारी बात नगीना देवी से होती है׀ नगीना देवी नौ साल पहले ब्याह कर इस गाँव में आई थीं। वह जाति के सवाल पर पहले तो कहती हैं कि हमारे यहाँ जाति को लेकर कोई खास दिक्कत नहीं है। दूसरी जाति के लोग हमारे गाँव में हैं ही नहीं कि हमको कोई दिक्कत हो׀ यहाँ का प्रधान कौन है यह पूछने पर वह बताती हैं की पप्पू पाल। नगीना इंटर पास हैं और हसबैंड प्रयागराज में रहकर जेसीबी मशीन चलाते हैं। घर-परिवार में किसी तरह की कोई आर्थिक परेशानी नहीं है।
खेती लगभग कितनी है आपकी? यह पूछने पर नगीना कहती हैं कि ‘सर एक जगह तो है नहीं। थोड़ा-थोड़ा करके दो-तीन जगह है। एक जगह बारह बिस्वा है, एक जगह दस बिस्वा है और एक जगह छ: बिस्वा है’।’ हम वापस जाति के मसविदे पर बात शुरू करते हैं। नगीना बताती हैं कि पूरे गांव में सबसे ज्यादा हमारे जाति के लोग ही हैं। सबसे ज्यादा जनसँख्या होने के बाद भी आप लोग अपना प्रधान क्यों नहीं बना पाते? इस पर नगीना बताती हैं कि हमारे लोगों की जनसँख्या तो ज्यादा है पर सीट सुरक्षित नहीं है और गांव के दूसरे लोग नहीं चाहते हैं कि हमारे समाज से कोई प्रधान हो। कौन नहीं चाहता? इस बात पर नगीना खुलकर कुछ नहीं कहना चाहती हैं, वह कहती हैं कि अब हम किसको कहें। फिलहाल नगीना के हाव-भाव से लगता है कि वह जानती हैं पर इस प्रश्न का उत्तर ना देना ही उन्हें अपने लिए ज्यादा मुनासिब लगता है।
वह एक छोटी सी चुप्पी के बाद बोलती हैं कि यहाँ की आबादी 1600 है, तो इसमें तीन बिरादरी है, बाकी की दो बिरादरी एक हो जाति के हैं ताकि कोई हरिजन प्रधान न होने पाए। हम उनसे पूछते हैं कि प्रदेश सरकार की योजनाओं का कितना लाभ मिल रहा है? इस पर नगीना देवी कहती हैं कि सिलेंडर तो हमारे गाँव में एक दो लोगों को ही मिला है। बाकी लोग अपना खुद का ही खरीद कर रख लिए हैं। फिर वह कहती हैं की सरकार कुछ दे ना दे पर मंहगाई को कंट्रोल कर ले तो हमारी बहुत सी दिक्कतें अपने आप ख़त्म हो जायेंगी। सर हम गरीब लोग हैं और महंगाई इतनी बढ़ गई है की क्या बताया जाये, हर चीज तो महंगी हो गई है। अब गैस का ही दाम देख लीजिये, सिलेंडर इतना मंहंगा हो गया है कि पूछिए मत बस हर जगह से काट-कपट कर चलाते हैं। कुछ लोग तो अब सिलेंडर की जगह इंडक्शन पर खाना बनाने लगे हैं।
इसके बाद हमारी बात संगीता से होती है। वह आठ तक पढ़ी हैं। वह चाहती हैं कि बिटिया अच्छे से पढ़े, भविष्य में कुछ लायक बने, इसीलिए बहुत मेहनत करते हैं, वह बताती हैं कि बिटिया अच्छे से पढ़ रही है बस वही एक उम्मीद है। बाकी तो जीवन जैसे तैसे चल ही रहा है।
वह सीधे खेत से आई हैं, वहां पर धान की रोपाई कर रही थी, इसलिए हम उनसे उनकी खेती को लेकर ही पूछते हैं कि अच्छा जब खेती का काम नहीं रहता तब क्या करती हैं? इस पर वह कहती हैं कि, ‘घर पर ही रहती हूँ और कोई काम नहीं है। सोचते हैं की कोई कारोबार कर लें गाँव में, जो करें, महिला समूह को भी जोड़ें वे भी करें लेकिन ऐसा कोई काम नहीं आता है।
समूह के माध्यम से कुछ ऐसा नहीं कर सकती कि कुछ बनायें, मसाला या अचार जैसी चीजें, जिनका बाजार हो? इस पर वह कहती हैं कि इस तरह की चीजों के बारे हम सोच तो रहे हैं पर अभी शुरू नहीं कर पायें हैं। बनाना तो आसान है पर बेचना और बाजार तलाशना कठिन काम है।
जैसा की आपने बताया की यहाँ अधिक संख्या दलित (चमार )जाती की है तो और कौन कौन सी जातियाँ हैं? और क्या वे लोग कभी आप लोगों को जातीय स्तर पर परेशान करते हैं? इस पर वह कहती हैं कि नही अब कोई परेशान नहीं करता है। अब सब एक सामान हो चुके है, तो कोई परेशान नहीं करता है। बगल में ब्राह्मण लोग हैं, पर अब कुछ दिक्कत नहीं होती। हमारी शादी से पहले दिक्कत होती थी बहुत मार-पीट होती थी लेकिन अब कोई दिक्कत नहीं होती। वह बताती हैं कि हम लोग भी सुनते हैं कि तमाम जगहों पर अगर चमार जाति के लोग घोड़े पर बैठ कर बारात जाते हैं तो वहाँ की दबंग जाति रोक देती है। पर ऐसी कोई घटना इस गाँव में नहीं हुई। हिम्मत नहीं करते, चाहे रात भर आर्केस्टा हो लेकिन कोई कुछ नही करता न उनके बारात में यहाँ से कोई जाता है और न हमलोगों के यहाँ वे लोग भी कभी आते हैं।
गाँव की सबसे बड़ी दिक्कत क्या दिखती है और गाँव में क्या-क्या परेशानियाँ हैं? इस पर वह कहती हैं कि, ‘गाँव में नाला नहीं है और कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ डॉ. भीमराव अम्बेडकर मूर्ति लगाई जाये जहाँ पूजा पाठ किया जा सके।
जाति के तिरस्कार के दर्द का कितना कुहासा मन पर छाया हुआ है। वह अब महिलाओं की सामूहिक वार्ता में उभर आता है। एक आवाज पर दूसरी आवाज की ओवरलैपिंग होने लगाती है। यहां सब के पास जातीय दर्द के तमाम अनुभव हैं पर इन महिलाओं में यह कूवत भी दिखती है कि आने वाले कल में अपने मन की तपिश से इस कुहासे को मिटा देंगी।
अम्बेडकर जी तो पूजा पाठ के विरोधी थे और आप लोग अम्बेडकर जी की पूजा करेंगी? इस पर वह कहती हैं कि ‘हम लोग के लिए तो अंबेडकर जी ही भगवान हैं।
लेकिन अंबेडकर जी तो कहते थे की दलित समाज को पूजा पाठ की नहीं बल्कि ज्ञान की जरूरत है इस पर सुमित्रा कहती हैं कि ‘ज्ञान तो ठीक है लेकिन हमलोग कोई व्रत रखते हैं तो पूजा करने के लिए अम्बेडकर जी की मूर्ति के पास ही जाते हैं। इसलिए अगर कोई अच्छी जगह रहती तो मूर्ति लग जाती। शादी होती है तो जैसे मौर वगैरा भी चढ़ता है धाम में तो हम लोग धाम में नहीं जाते हैं। सब अम्बेडकर जी के मूर्ति के पास ही चढ़ाते हैं। अब शादी विवाह होता है तो उसमें पहले ब्राह्मण बुलाते थे पर लेकिन अब धी-धीरे जानकर हो गए है सब लोग तो अब नहीं बुलाते हैं।
इस पर हम थोड़ा सा कठिन सवाल पूछ लेते हैं कि भगवान को मानती हैं? तब वह कहती हैं कि बस हम तो भीम साहब को मानते है। हमें तो भगवान ने कोई रास्ता ही नहीं दिखाया न, जो भी दिखाया वे तो बाबा साहब ने ही दिखाया है, उन्होंने बताया कि पढ़ोगे तो बढ़ोगे। जब लोग पढ़े हैं तभी तो ज्ञान आया है इसीलिए हम अपने बच्चों को भी यही बताते हैं। फिलहाल हम लोग सबको मानते हैं जहाँ भी जाते हैं सबको मानते हैं।
मंदिरों में जाती हैं? इस पर वह कहती हैं कि जाते हैं, ऐसा बात नहीं है कि हम बाबा साहब को मानते हैं तो किसी देवी देवता को नहीं माने सबको मानते हैं, किसी प्रकार का विरोध नही करते पहले के लोग करते थे विरोध, लेकिन हम लोग नहीं करते। जाते हैं तो नारियल चुनरी जो भी चढ़ता है, सब चढ़ाते हैं। इस पर हम कुछ कहें उससे पहले ही किसी महिला का तंज आता है वह कहती हैं कि सब ब्राह्मण ही ले जाते हैं। इस एक तंज भरी टिपण्णी से वह गिरह खुलनी शुरू हो जाती है जिसे हम जानना समझाना चाहते थे। तभी एक अन्य महिला की टिप्पणी आती है ‘हाँ ले जाते हैं भाई जिसके यहाँ रहेगा वह ले जायेगा, इतना मेहनत से कमा कर लाते हैं और दे देती हैं तो ले जाता है नहीं देती तो नहीं ले जाता।
उन्होंने वापस अपनी बात शुरू की, घर के आदमी डांटते हैं लेकिन कभी-कदार चले जाते हैं बाकी गाँव में एकाध लोग ही होंगे जो इधर उधर जाते हैं। नहीं तो सारे लोग अंबेडकर जी की मूर्ति के पास ही जाते हैं। सबको पता चलना चाहिये अब, ब्राह्मणों ने इतने दिन अछूत बनाकर रखा, अब उन्हीं के देवी-देवता को चढाएंगी पैसा तो वही लेकर जायेंगे। देवी-देवता तो कोई लेकर जाता नही पैसा। लेकिन अब सब बदल गया है अब कोई ब्राहमण को बुलाता ही नहीं है अगर कोई ब्राह्मण को बुलाकर पूजा करवा लेता है तो उससे संपर्क नहीं रखना है, यह तय हो चुका है।
इसके बाद हमारी बात रिंकी देवी से होती है वह बीए तक पढ़ी हैं, रिंकी के पास अपने समाज को लेकर एक नजरिया है वह अपनी सामजिक स्थिति को राजनीतिक लेंस के माध्यम से देखने का प्रयास करती हैं। वह गांव की बात नहीं बल्कि सरकार की बात करती हैं। वह कहती हैं कि सरकार बस नगाड़ा बजा रही है। कहीं कुछ हो नहीं रहा है, अब देखिये कि कितनी बेरोजगारी है, सरकार रोजगार के लिए कुछ नहीं कर रही है और दूसरी जाति के लोग हर समस्या की जड़ आरक्षण को बताते हैं।आज पढ़ी लिखी महिलायें और पुरुष काफी ज्यादा संख्या में बेरोजगार हैं। बड़ी बात ये है की महिलायें भी कुछ काम करना चाहती हैं। अपनी पारिवारिक स्थिति को देखते हुए पर उन्हें भी नोकरी नहीं मिल पा रही है। मेहनत करने के बाद भी हम लोग जहां के तहां हैं। जो लोग आरक्षण की बात करते हैं, वह हमें बताएं की क्या उन्होंने कभी हमें बराबरी का सम्मान दिया।
पर राजनीति और समाज की कलई अनीता देवी खोलती हैं। वह बड़ी बेबाकी से कहती हैं कि बहुत बुरा लगता है जब कोई जाति से जज करता है। अनीता पढ़ी लिखी हैं वह अपने बच्चों को एक बेहतर भाविष्य देने की मुहिम में लगी हैं। बड़ा बेटा इंजीनयरिंग की पढ़ाई कर रही है।अनीता के पास बहुत सी स्मृतियाँ हैं, जब जाति के आधार पर उन्हें तिरस्कृत होना पड़ा। अनिता के मुखर होते ही बीच से एक महिला का सवाल आता है कि अरे जो पूछ रहे हैं उनकी जाति भी तो पूछ लो कि कौन जाति के हैं। मैं कोई उत्तर देता, उससे पहले ही अनीता बोल देती हैं- अरे! किसी भी जाति के हों पर जो सच्चाई है वह बदल थोड़ी जायेगी।
जाति के तिरस्कार के दर्द का कितना कुहासा मन पर छाया हुआ है। वह अब महिलाओं की सामूहिक वार्ता में उभर आता है। एक आवाज पर दूसरी आवाज की ओवरलैपिंग होने लगाती है। यहां सब के पास जातीय दर्द के तमाम अनुभव हैं पर इन महिलाओं में यह कूवत भी दिखती है कि आने वाले कल में अपने मन की तपिश से इस कुहासे को मिटा देंगी।