अग्नि आलोक
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मज़दूर हूं साहब

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तुम्हारे जश्न ने निगल ली है
मेरी आज की दिहाड़ी
मज़दूर हूं साहब

जब जब भी तुम्हारी ख़ुशी देख कर
बरबस हंसना चाहा
पेंडुलम नुमा सर्च लाइट के दायरे से
खुद को बाहर पाया

अपनी झोंपड़ी के भूखे अंधेरों को
पेट पर बम सा बांधे
मैं किसी आत्मघाती दस्ते का
सिपाही सा तो नहीं लगता हूं तुम्हें
लेबर चौक की ज़र्द रोशनी में ?

क्या सचमुच तुम्हें लगता है कि
मेरे हाथों के फावड़े, कुदाल
सिर्फ़ पहाड़, जंगल ही नहीं काट सकते
सिर्फ़ असमतल ज़मीन को
समतल ही नहीं कर सकते
बल्कि ढहा भी सकते हैं तुम्हारे महल

अगर ऐसा है तो
तुम सच के बहुत क़रीब हो

इसलिए जश्न के बहाने
बंद करो मेरी दिहाड़ी छीनने का षड्यंत्र

दिहाड़ी मज़दूर हूं साहब
लेकिन मजबूर उतना भी नहीं
कि जब चुनाव हो तुम्हारी गर्दन
और मेरी जान के बीच
तो आत्महत्या को बेहतर समझूं.

  • सुब्रतो चटर्जी
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