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*स्वास्थ्य संपदा के लिए कितनी जरूरी है वन संपदा*

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       ~ पुष्पा गुप्ता 

    “वन जब नष्ट होते हैं तो जल नष्ट होता हैं, मत्स्य और जीवन नष्ट होता हैं, फसलें नष्ट होती हैं , पशु नष्ट होते हैं, मृदा की उर्वरा शक्ति विदा ले लेती हैं, और तब वे पुराने प्रेत एक के पीछे एक प्रकट होने लगते हैं, बाढ़, सूखा, आग, अकाल, और महामारी.”

   – राबर्ट चैंबर्स (विज्ञान लेखक).

   मैं ही द्वार कुटी का तेरे, और मनुष्य का चीर साथी, शैशव में पलना हूँ सबका, साँसों का अंतिम साथी।

मैं उदार, भोजन, भूखों का , सुषमा का साकार सुमन, मानव एक निवेदन तुमसे, नष्ट न करना मम  जीवन॥

इस भू- धरा पर जीवन की सफल संकल्पना के लिए प्राकृतिक प्रदत जल, वायु, वनस्पति, भूमि, तथा वनों का मानव जीवन में उपयोग करते हुए उसके संरक्षण तथा संवर्धन की नैतिक जिम्मेदारी भी मानव की है परंतु बढ़ती जनसंख्या, वातानुकूलित जीवन शैली ने मानवीय उपभोग को इस कदर बना दिया कि उसने सिर्फ प्रकृति का दोहन किया तथा  मानव तथा प्रकृति के बीच संतुलन को बनाये रखने के प्रति ध्यान नहीं दिया जिसके भयावह परिणाम आज सूखा, बाढ़, अत्यधिक गर्मी , बाढ़ के रूप में जीवन के विनाश के लिए दृष्टिगत हो रहे है।

   जीवन शब्द मूल रूप से दो शब्दों से मिलकर बना है, जीव तथा वन । हम हैं,  हमारी प्यारी धरती माता हैं,  तथा हमारा आकाश। इस बसुंधरा पर जड़ तथा चेतन का अपना संसार है। प्रत्येक वस्तु एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, एक दूसरे पर आधारित है, तथा एक दूसरे पर प्रभाव डालती है।

     इसलिए पर्यावरण के अवयवों का आपस में संतुलन नितांत आवश्यक है। जहा प्रकृति तथा मानव के बीच संतुलन की स्थिति बना हुआ है, वहाँ प्रकृति के समस्त वरदान मिले हुए  हैं – शुद्ध हवा,  धूप , पानी और शांति।

   जहा प्रकृति में संतुलन शेष नहीं रहा, वहाँ हमारी मानवीय गलतियों का ही परिणाम है कि आज अशुद्ध हवा , दूषित जल, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, भूस्खलन, कोलाहल वातावरण के साथ -साथ वन्य प्राणियों व मनुष्यों के बीच द्वन्द  के रूप में परिलक्षित हो रहा है।  पृथ्वी को माता की तथा मानव को पुत्र की संज्ञा से विभूषित किया गया है, जैसा की हमारे वेदों में वर्णित है।

      अथर्ववेद का उद्घोष है कि “माता भूमि”: पुत्रों अंह पृथिव्या :। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं … यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे  पृथिव्या :। अर्थात माता पृथ्वी ( मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि  को नमस्कार है।

      धरती माता के समान हमारा पालन – पोषण करती है , मानव ही नहीं समस्त जीवधारियों का वासस्थान भूमि ही है जिसपर रहकर ही वह अपने जीवन को सफल तरीके से संचालित कर सकते है। 

       भू- धरा पर उपस्थित वनस्पति, पेड़- पौधे, ही मानव तथा वन्य प्राणियों के जीवन की धड़कन का आधार है। मानव सभ्यता के विकास क्रम के पूर्व कालखंड से लेकार वर्तमान कालखंड में भी मनुष्य अपनी आवश्यकतावों की पूर्ति के लिए वनस्पतियों, पेड़ों पर आश्रित रहा है। पेड़ – पौधों तथा वनों से मानव तथा समाज को  आदिकाल से लेकर आज तक  प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है।

आज का युग औद्योगिकरण का हो चला है जिसमे मनुष्य तथा पशुओँ के लिए भोज्य पदार्थ, चारा, ईंधन , ईमारती लकड़ियों की प्राप्ति , विभिन्न औषधियों के श्रोत,  रेशे , फल – फूल , कृषि उपकरणों के लिए लघु काष्ठ तथा पेपर उद्योग के लिए कच्चे माल की आपूर्ति वनों के माध्यम से ही सुनिश्चित होती है।

     इसके  अलावा वन तापक्रम को नियंत्रित करने के साथ – साथ वर्षा की निरन्तरता को बनाए रखने में सहायक सिद्ध होते है। जीवन के लिए हानिकारक हरित गृह गैसों यथा कार्बन डाईआक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, को प्राणदायिनी आक्सीजन में परिवर्तित करने में अपनी महती भूमिका निभाते है, जिससे जीवन की कल्पना सुनिश्चित  और चलायमान है।

     पेड़- पौधे तथा वन तेज तथा गर्म हवा से मानव तथा फसलों की रक्षा करते है।

       अमेरिका के कृषि वैज्ञानिक पाब्लों के अनुसार – भारत देश  में शुद्ध आक्सीजन के लिए प्रति वृक्ष 16-18  व्यक्ति निर्भर है। यह निर्भरता बिहार राज्य के पटना शहर में प्रति वृक्ष 3500 व्यक्ति तथा पश्चिम बंगाल के कोलकत्ता जैसे महानगरों में 15,000 का आंकड़ा भी पार हो चला है।

     वर्ष 2011 की एक जनगणना के अनुसार वर्ष वर्ष 2001 से वर्ष 2011 के बीच एक दशक में जनसंख्या वृद्धि की दार 17.64 प्रतिशत है। आँकड़े यह दर्शा रहे है कि जनजीवन कितना अस्त – व्यस्त हो गया है।

     अतः अब आवश्यक हो गया की पर्यावरण से निरंतर सेवाये प्राप्त करते रहने के लिए हम सभी को अधिक से अधिक वनों को लगाना चाहिए।

        प्रो . टीo  एमo  दास द्वारा वर्ष 1980 में भारतीय विज्ञान काँग्रेस में प्रस्तुत किये गये अपने शोध पत्र के अनुसार – एक मध्यम आकार का वृक्ष 50 वर्ष की आयु तक आक्सीजन का उत्पादन , जन्तु प्रोटीन का संरक्षण , मृदा क्षरण नियंत्रण ,जल चक्र बनाए रखना, वायु प्रदूषण नियंत्रण का कार्य करता है।

     एक हेक्टेयर में लगाए उष्ण कटिबंधीय वन से 128.74 लाख रुपये की पर्यावरण सेवाये प्राप्त होती है। समस्त जीवधारी तथा वनस्पति एक दूसरे के पूरक हैं।

      वनस्पतिया ही इस धरा पर हमारे द्वारा निकाले गए कार्बन डाईआक्साइड गैस  को ग्रहण करके जल तथा प्रकाश की उपास्थि में अपने भोज्य पदार्थ का निर्माण करती हैं तथा हमें साँस लेने हेतु प्राण वायु आक्सीजन गैस उपलब्ध कराती है ,जिससे सभी वाणी प्राणी के साथ इस धरा पर जीतने जीव- जन्तु व्याप्त है वह अपना जीवन चलाते है। 

एक हेक्टेयर भूमि में लगे वन प्रति वर्ष औसतन 3-4 मैट्रिक टन अशुद्ध वायु ग्रहण करके एक मैट्रिक टन शुद्ध वायु का उत्पादन करता है। वही दूसरी तरफ वक वृक्ष के द्वारा प्रति दिन 400 लीटर जल वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया के द्वारा वातावरण में भेजता है जिससे गर्म  वायु आद्र बनी रहती है तथा वायुमंडल का तापमान एक  समान रहता है।

     कोरोना नामक वैश्विक महामारी में लोगों ने शुद्ध वायु की सुचिता के बिना दम -तोड़ दिया था। घरों तथा बाजारों में आक्सीजन के बॉक्स की भारी मांग अपने जीवन को बचाने के लिए आमजन के द्वारा लगातार मांग की जा रही थी परंतु उसकी सूचित भी उपलब्ध नहीं हो पा रही थी कि लोगों के जीवन को बचाया जा सके।

    उस समय लोगों ने खेती- के साथ बारी की पुरानी अपनी विरासत रुपि अवधारणा को निश्चित रूप से अपनाने के लिए वर्तमान के साथ ही भविष्य के लिए संस्मरण किया है। 

       निश्चित ही यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की बिना खेती – बारी को साथ लिए हम जीवन की सफल कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते है।

       एक अनुमान के अनुसार यह तथ्य आम जनमानस के सामने आया है कि एक मनुष्य सांस लेने के लिए 1.752 टन आक्सीजन प्रतिवर्ष उपयोग करता है तथा एक मध्यम आयु का वृक्ष, एक वर्ष में लगभग 1.6 टन आक्सीजन उत्सर्जित करता है अर्थात एक वृक्ष अपने जीवन काल में लगभग  उतनी ही आक्सीजन देता है, जितनी एक व्यक्ति को अपने जीवन काल में सांस लेने के लिए आक्सीजन की आवश्यकता है। 

      वृक्ष की अंधाधुंध कटाई तथा शहरीकरण के कारण आज पर्यावरणीय असंतुलन के कारण ही ग्लोबल वार्मिंग जैसी विश्वव्यापी समस्या के साथ ही ओज़ोन गैसों के बढ़ते प्रभाव के कारण ओज़ोन परत  में छिद्र होने की संभावना बढ़ती जा रही है, जिससे भविष्य में परा-बैगनी किरणों के सीधे प्रभाव के कारण त्वचा कैंसर संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ेगा साथ ही लगातार बढ़ते तापमान के कारण ग्लैशियर के पिघलने की संभावना के कारण समुद्री तटीय स्थानों पर बसे शहरों में बाढ़ की समस्या के कारण उनके डूबने की संभावना भविष्य में दिखाई दे रही है।

       एक अध्ययन के अनुसार पूरे विश्व में ऊर्जा उत्पन्न करने में करीब 24.6 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। ऊर्जा क्षम उपकरणों का उपयोग व प्रदूषित गैसों के प्राकृतिक अवशोषक, वनों के आवरण में वृद्धि कर वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा काम की जा सकती है। 

     वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने का एक मुख्य एक मुख्य कारण वनों की निरंतर हो रही कटाई है।

     आज वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड की सांद्रता 450 पीपीएम है जिसमे निरंतर वृद्धि जारी है तथा भविष्य में 540 पीपीएम तक सांद्रता पहुचने की संभावना है। एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष कई एकड़ वन को काट दिया जाता है अथवा जला दिया जाता है। यह कुल कार्बन उत्सर्जन के 20 से 25 प्रतिशत भाग के लिए उत्तरदायी है।

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