~ पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’
*सप्ताह, पक्ष और मास :*
विज्ञान ने बहुत बाद में सावित किया की हमारा एक दिन = चाँद का चौदह दिन. हम कब से कहते रहें है : चौदवीं का चाँद. सूर्यादि सात वारों के क्रमानुसार एक चक्र पूर्ण होने के काल का नाम सप्ताह है। सप्ताहसे अगली कालावधि पक्ष है। चन्द्रकलाओं की वृद्धि से शुक्ल- पक्ष तथा हास से कृष्णपक्ष का निर्धारण हुआ। पक्षके समान तिथि और मास का ज्ञान भी चन्द्र से ही हो सकता है। चन्द्रमा को देखकर सर्वसाधारण बतला सकता है कि आज अमावस्या है या पूर्णिमा ? अतः साधारणतया व्यवहार में चान्द्रतिथि एवं चान्द्रमास का ही प्रयोग होता है।
बार्हस्पत्य आदि नौ मासों में से अग्रांकित चार प्रकार के मास का ही प्रयोग व्यवहार में होता है :
१. सौरमास :
इस मासका सम्बन्ध सूर्यसे है। पृथ्वीकी वार्षिक गतिके कारण सूर्य विभिन्न राशियों को भोगता हुआ प्रतीत होता है। सूर्य एक राशिमें जितनी अवधितक रहता है उस अवधिको एक सौरमास कहा जाता है। राशियोंकी लम्बाईमें अन्तर होनेके कारण सौर मास कम-से-कम २९ दिन तथा अधिक-से- अधिक ३२ दिनका होता है। बारह सौरमास अर्थात् एक वर्षका मान ३६५ दिन ६ घण्टे ९ मिनट १०.८ सेकेण्ड होता है।
२. चान्द्रमास :
शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे अमावस्या- तक एक चान्द्रमास माना जाता है। अमावस्याको सूर्य- चन्द्र एक राशिके समान अंशपर होते हैं, अतः सूर्य- चन्द्रमाका अन्तर ही चान्द्रमास कहलाता है। चान्द्रमास २९ दिन ३१ घटी ५० पल ७ विपल ३० प्रतिविपलका होता है।
३. नाक्षत्रमास :
चन्द्रमाद्वारा २७ नक्षत्रोंको पार करनेके कालको नाक्षत्रमास कहते हैं। नाक्षत्रमास २७ दिन १९ घटी १७ पल ५८ विपल का होता है।
४. सावनमास :
३० दिनका माना जाता है। लोकव्यवहार एवं पंचांगोंमें चान्द्रमासको स्वीकारा गया है। यह मास वास्तवमें अमावस्यासे अगले दिन अर्थात् शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे प्रारम्भ होकर अमावस्या को समाप्त होता है। तभी पूर्णिमाको १५ तथा अमावस्याको ३० अंकसे प्रकट किया जाता है। सभी पंचांगोंमें विक्रम सम्वत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे प्रारम्भ होकर अगले चैत्रकी अमावस्याको पूर्ण होता है, पर लोकव्यवहारमें चान्द्रमास पूर्णिमाके अगले दिन कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे शुक्लपक्षकी पूर्णिमातक माना जाता है।
*महीनों का नामकरण :*
चान्द्रमासोंके नाम नक्षत्रोंके नामपर रखे गये हैं। पूर्णिमाको जो नक्षत्र होता है, उस नक्षत्रके नामपर उस मासका नाम रख दिया गया। चन्द्रमा चैत्र शुक्ल प्रतिपदाको अश्विनी नक्षत्रपर प्रकट हुआ था तथा पूर्णिमाको चित्रा नक्षत्रपर आया। इस कारण प्रथम मासका नाम चैत्र पड़ा। अगले मासकी पूर्णिमाको विशाखा नक्षत्र होनेसे उस मासका नाम वैशाख रख दिया गया। इसी प्रकार पूर्णिमाको ज्येष्ठा नक्षत्र होनेसे ज्येष्ठ, पूर्वाषाढ़ासे आषाढ़, श्रवण नक्षत्रसे श्रावण, पूर्वा भाद्रपदसे भाद्रपद, अश्विनीसे आश्विन, कृतिकासे कार्तिक, मृगशिरासे मार्गशीर्ष, पुष्य नक्षत्रसे पौष, मघासे माघ एवं पूर्वाफाल्गुनीसे फाल्गुन नाम रखा गया।
भारतीय संस्कृतिमें सूर्य एवं चन्द्र दोनोंको समान महत्त्व दिया गया है। महीनोंके रूपमें जहाँ चान्द्रमासको प्रधानता दी गयी है, वहाँ वर्षके रूपमें सौरवर्षको स्वीकारा गया है। सौरवर्ष ३६५.१/४ दिनके लगभग तथा चान्द्रमास ३५४ दिनके लगभग होता है। यदि इन दोनोंमें एकरूपता नहीं लायी जाय तो हमारे त्योहार भी मोहर्रमकी भाँति कभी ग्रीष्मऋतुमें तथा कभी शिशिर- ऋतुमें आयेंगे, ऐसा न हो, इसलिये निरयन सौरवर्ष एवं चान्द्रवर्षके लगभग ११ दिनके अन्तरको मिटानेके लिये अधिकमास या मलमासकी व्यवस्था की गयी। ३२ मास १६ दिन ४ घटी उपरान्त अधिकमास पुनः आता है।
अधिकमास ज्ञात करने हेतु वर्तमान शक सम्वत्मेंसे ९२५ घटायें। शेषमें १९ का भाग दें। यदि शेष ३ बचे तो चैत्र, ११ बचे तो वैशाख, ८ बचे तो ज्येष्ठ, १६ बचे तो आषाढ़, ५ बचे तो श्रावण, १३ बचे तो भाद्रपद, २ शेष रहे तो आश्विनमासकी वृद्धि होगी। अन्य संख्या शेष रहे तो अधिकमास नहीं होगा। माघ, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन-ये नौ मास ही अधिकमास होते हैं; क्योंकि कुम्भसे तुलातक सौरमास चान्द्रमाससे बड़ा होता है।
अतः इन मासोंमें ऐसा समय उपस्थित होता है कि चान्द्रमासकी दो अमावस्याओंके बीच संक्रान्ति नहीं पड़ती। अतः वह चान्द्रमास अधिकमास हो जाता है। इसी प्रकार वृश्चिक, धनु एवं मकर- ये तीन सौरमास चान्द्रमाससे छोटे होते हैं। इसी कारण कार्तिक, मार्गशीर्ष एवं पौषमास कभी भी अधिकमास न होकर क्षयमास होते हैं; क्योंकि इन तीन मासोंमें दो अमावस्याओंके बीच दो सौर-संक्रान्ति आ जाती है।
चान्द्रमासके दो लगातार अमावस्याओंके मध्यमें यदि सूर्यसंक्रान्ति (सूर्यका एक राशिसे दूसरी राशिमें प्रवेश) न आये, तो अधिकमास होता है। दो अमावस्याओंके मध्य दो संक्रान्तिका आना क्षयमास कहलाता है। क्षयमास १४१ वर्ष अथवा १९ वर्ष बाद आता है। जिस वर्षमें क्षयमास आता है, उस वर्षमें दो अधिकमास अवश्य होते हैं।
प्रथम अधिकमास क्षयमासके ३ मास पूर्व तथा दूसरा अधिकमास क्षयमासके ३ मास पश्चात् आता है।
*तिथि :*
सूर्य और चन्द्र बीचकी १२° डिग्री दूरीको एक तिथि कहा जाता है। अमावस्याको सूर्य और चन्द्र एक राशिके समान अंशपर होते हैं। ०° से १२° तक दूरी प्रतिपदा, १२° से २४° तक द्वितीया, २४° से ३६° तक दूरी होनेपर तृतीया होती है।
इसी प्रकार पूर्णिमाको सूर्य परस्पर १८०° तक (अन्तर) शुक्लपक्ष तथा १८०° से (उलटे) ०° तक कृष्णपक्ष होता है। १८०° से १६८° तक कृष्णपक्षकी प्रतिपदा, १६८° से १५६° तक द्वितीया, दूसरे रूपमें इस क्रमकी प्रस्तुति इस प्रकार भी हो सकती है।
चूँकि क्रान्तिवृत्तमें कुल ३६०° ही हो सकते हैं तथा पूर्णिमाको चन्द्र सूर्यसे १८०° पर होता है। अतः १८०° से १९२° तक कृष्णपक्षकी प्रतिपदा, १९२° से २०४° तक द्वितीया होगी। इस प्रकार १८०° से ३६०° तक कृष्णपक्षकी क्रमशः प्रतिपदासे अमावस्यातककी तिथियाँ होंगी।
चन्द्रकी दैनिक औसत गति ८०० कला अर्थात् १३.१/२° मानी गयी है, जिसमें ह्रास और वृद्धि दृष्टिगोचर होती है; क्योंकि सूर्यके चारों ओर घूमती हुई पृथ्वीको समान एवं विपरीत दिशामें चलकर चन्द्र पार करता है। यही कारण है कि तिथिमान भी घटता-बढ़ता रहता है। कभी तो तिथि २१ घण्टेके लगभग हो जाती है तो कभी |
२६ घण्टेके लगभगतक की। चन्द्र एक दिनमें जबतक १३.१/२° चलता है, सूर्य तबतक १° आगे बढ़ जाता है। अतः सूर्य और चन्द्रका एक दिनमें पारस्परिक अन्तर १२° रहता है। अतः प्रतिदिन एक तिथि होती है तथा इसी प्रकार क्रम चलता रहता है।
*तिथि – वृद्धि एवं तिथि-क्षय :*
यदि किसी दिन सूर्योदयसे कुछ समय पश्चात् कोई तिथि प्रारम्भ होकर दूसरे दिनके सूर्योदयसे पूर्व ही समाप्त हो जाय तो उस तिथिको क्षय माना जाता है। यदि किसी दिन सूर्योदयसे पूर्व ही कोई तिथि प्रारम्भ | होकर अगले दिन सूर्योदयके बाद भी चालू रहती है तो उस दिन तिथिकी वृद्धि हो जाती है।
पृथ्वीकी धुरी तिरछी होनेके कारण उसकी वार्षिक गतिके फलस्वरूप सूर्य दिनांक २२ जूनको कर्करेखापर दृष्टिगोचर होता है तथा २१ दिसम्बरको मकररेखापर। इस अवधिको दक्षिणायन कहते हैं। अर्थात् कर्करेखासे दक्षिणायनकी ओर (मकररेखातक) सूर्यका प्रस्थान दक्षिणायन कहलाता है।
दिनांक २२ दिसम्बरसे सूर्य उत्तरमें गमन करता है तथा २१ जूनको कर्करेखापर पुनः दृष्टिगोचर होने लगता है। यह छः मासका समय उत्तरायण कहलाता है। विषुवत्रेखासे कर्करेखातक सूर्यके गमन एवं कर्करेखासे विषुवतखापर लौटने के कालको उत्तरगोल तथा विषुवत्रेखासे मकररेखातक जाने एवं मकररेखा से वापस विषुवत्रेखापर आनेतकके कालको दक्षिणगोल कहते हैं।
आज प्रायः सभी देश वर्षको कालगणनाकी एक बड़ी इकाई तथा शताब्दीको बहुत बड़ी इकाई मानते हैं, पर प्राचीन भारतवर्ष वर्षके बाद युग (१२ वर्ष), पितृवर्ष (३० वर्ष), देववर्ष (३६० वर्ष), ब्रह्मावर्ष, विष्णुका वर्ष आदि अनेक बड़ी से बड़ी कालगणनाकी इकाइयोंसे परिचित था।
आज हम समयकी सूक्ष्म इकाई सेकेण्डको मानते हैं, पर ज्योतिर्विज्ञानमें इससे कहीं अधिक सूक्ष्मतर कालगणनाकी इकाइयाँ विद्यमान हैं।
इसी प्रकार ग्रहों की स्थिति, गति, दूरी आदिके लिये केवल डिगरी शब्दका प्रचलन है, जबकि भारतीय ज्योतिर्विज्ञान डिगरीके ६० वें भागको कला तथा कलाके ६० वें भागको विकलाके नामसे प्रतिपादितकर सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करता है।