~ पुष्पा गुप्ता
इसरो टेक्नेलोजी खरीदने और उपयोग करने मे देश का अरबों रुपैया प्रति वर्ष बचाती है जिसको आम आदमी उपयोग करता है और जिसको खरीदने के लिए भारत के टैक्स पेयर का पैसा विदेश जाते रहे हैं.
इसरो के टेक्नोलोजी का प्रयोग करोड़ो भारतीय करते हैं. इसरो भारत मे विज्ञान के प्रचार प्रसार करती है. इसरो के बिना भारत मे विज्ञान को सुलभ नही बनाया जा सकता है.
इसरो देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों मे अपना प्रयोगशाला बनाती है जिसपर देश के हजारों (लाखों?) छात्र अपना प्रयोग करते हैं और विज्ञान सीखते हैं. इसरो भारत के विश्वविद्यालयों को शोध के माध्यम से सुदृढ बनाती है. इसरो भारत मे रिसर्च के कल्चर को बढावा देती है.
इसरो भारत के स्टार्टाप को फंडिंग देती है. चंद्रमा अभियान से परे एक विकसित भारत के लिए इसरो की हमे आवश्यकता है. इसरो भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम करती है.
इन बातों को थोड़ा विस्तृत रुप से समझते हैं :
विक्रम लैंडर की बात सोचिए. इसमे लगे पहिया की बात सोचिए. जिस धुरि पर पहिया घूमता है उसकी बात सोचिए. पहिए और धुरि को टाइट करने वाली उस नट-बोल्ट की बात सोचिए. पूरे चंद्रयान मे इस नटबोल्ट की तरह पचासो हजार कल-पूर्जे होंगे. लेकिन हम अपना ध्यान उस धुरि और नट-बोल्ट पर केंद्रित करते हैं.
मान लीजिए इसरो के वैज्ञानिकों के एक बैठक मे इस बात पर विवेचना हो रही है कि नट-बोल्ट किस मैटेरियल का बनाया जा सकता है, लोहा, चांदी, कांसा, प्लेटिनम, किसका?
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विषम परिस्थिति है. दिन के समय तापमान पर पानी उबलने लगता है और रात के समय शून्य से 200 डिग्री नीचे चला जाता है. क्या लोहा, कांसा, प्लेटिनम उस तापमान को झेल पाएगा. ऐसा तो नही उस तापमान पर कुछ ज्यादा ही फैल जाए या सिकुड़ जाए, भुरभुरा हो जाए? चंद्रमा पर उतरते वक्त पहिया जाम हो जाए? ट्रेन की पटरी भी तो फैलती सिकुड़ती है.
अन्य परियोजनाओं के माध्यम से कुछ जानकारियाँ इसरो को पहले से है, विश्व के अन्य वैज्ञानिक इसपर कुछ शोध कर चुके हैं, लेकिन जानकारी पर्याप्त नही है. फिर इसरो ने इस बात के अध्ययन के लिए एक टीम बनाएगा कि, पूरे प्रोजेक्ट मे कहीं भी गलती की गुंजाइस नही है. मीडिया का एक वर्ग सेंध लगाए बैठी है. इधर एक गलती हुई और भारत देश की किरकिरी शुरु.
इसलिए इसरो सुनिश्चित करना चाहता है कि जिस मैटेरियल का यह धुरी और नट-बोल्ट इत्यादि बनेगा वह चंद्रमा के वातावरण को झेल पाए और विक्रम लैंन्डर को सही से लैंड करा पाए. हो सकता है इसरो के इस टीम के इस रिसर्च मे मानवीय भूल हो जाए. क्या हम उस भूल को अफोर्ड कर पाएंगे?
इसरो अपने टीम के अलावा इसी बात का अध्ययन के लिए भारत के विश्वविद्यालयों को प्रोजेक्ट देती है ताकि कई लोगों के शोध से यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसरो का शोध पक्का है. आइ.आइ.टी जैसे विश्वविद्यालय को यह प्रोजेक्ट मिलता है और इस काम पर अपने पी.एच.डी स्टुडेंट को लगाती है. फिर यह काम एक ही विश्वविद्यालय को नही दिया जाता है. कई विश्वविद्य्लाय को यह काम सौंपा जाता है. इस विषय पर देश के कई शोध छात्र अपना शोध पूरा करते हैं. इसरो अपने टीम के रिसर्च और विश्वविद्यालयों मे हुए रिसर्च का तुलनात्मक अध्ययन करती है. फिर उन मैटेरियल का लिस्ट बनाती है और उसकी कीमत को एस्टिमेट किया जाता है.
ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिका, रुस, चीन को यह जानकारी पहले से है. लेकिन ये लोग भारत को यह जानकारी नही देंगे. देंगे भी तो करोड़ो अरबो रुपया लेकर. खैर विभिन्न जगहों पर हुए इस शोध मे प्राप्त हुए मैटेरियल की लिस्ट मे जो सबसे ‘सस्ती’ होती है उसे चुन लिया जाता है.
इस शोध से ना केवल विक्रम के धुरी मे लगे मैटेरियल पर शोध होता है बल्कि अनेक अन्य मैटेरियल पर शोध हो जाता है कि, किस परिस्थिति मे कौन सा मैटेरियल उपयोगी होगा. मसलन अस्पताल के व्हील चेयर के धुरी मे कौन सा मैटेरियल प्रयोग हो सकता है? सियाचीन मे चलने वाली आर्मी के स्ट्रालर के धुरी मे कौन सा मैटेरियल उपयोग होगा? बंदूक के नाल मे लगने के लिए, कौन सा मैटिरियल उपयोगी होगा जो हल्का भी हो, सस्ता भी हो और मजबूत भी.
यहां पर मैने चंद्रयान के मात्र एक कल-पूर्जा की बात की है. चंद्रयान मे पचासो हजार कल-पूर्जे हैं. यही कहानी शेष सभी कल पूर्जे की होगी. हो सकता है मेरा उदाहरण बहुत ही ‘तुच्छ’ हो लेकिन यह इसरो के काम करने के तरीके पर प्रकाश डालता है.
देश के विश्वविद्यालयों में कितने शोध हो रहे होंगे. अमुमन सभी प्रमुख आइ.आइ.टी मे इसरो का अपना शोध केंद्र है जहाँ पर निरंतर शोध हो रहे होते हैं. छोटे विश्वविद्यालय मे भी ऐसे शोध होते हैं, मैने देखा था कि कश्मीर के एक विश्वविद्यालय मे भी इसरो का प्रोजेक्ट चल रहा है. इसके अतिरिक्त इसरो देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों मे अपना प्रयोगशाला बनाती है ताकि आम विद्यार्थी वैज्ञानिक प्रयोग कर सकें.
इनफोसिस जैसे प्राइवेट कम्पनी अपना निजी टेक्नोलोजी बनाने के लिए देश मे प्रतिवर्ष 50 पी.एच.डी स्पांसर करती है. इसरो कितना करती होगी इसका अंदाजा लगाइए? मुझे लगता है प्रति वर्ष कम से कम 100 पी.एच.डी. ये लोग अपना शोध करके देश के दूसरे हिस्से मे जाते होंगे जहाँ अपने अनुभव से अन्य लोगों को ट्रेनिंग देते होंगे. ध्यान दीजिए कि इसरो के इन शोधों के माध्यम से देश मे साइन्स और टेक्नोलोजी का कितना बड़ा माहौल बनाने का काम करती है.
इसरो के शोध के परिणाम इसरो अपने विभिन्न परियोजनाओं मे प्रयोग करते हैं. बहुत सारे शोध का कोई उपयोग नही होता है. (यही विज्ञान है). इसरो के पास सैकड़ो हजारों ऐसे टेक्नोलोजी है जो आम लोगों के लिए उपलब्ध है.
इसरो की एक परियोजना है. यदि इसरो के टेक्नोलोजी को लेकर आप भारत मे कोई स्टार्टप खोलना चाहते हैं, इसरो आपको सुविधा देगा, आपको पैसा और माहौल मुहैय्या करवाएगा. इसरो के वेबसाइट पर विस्तृत विवरण है. आपने ‘पेपर बोट’ नामक पेय कम्पनी का नाम सुना है. कोई सिरफिरा डी.आर.डी.ओ के शोध पर यह कम्पनी खोल दिया. गुगल कीजिए.
इसरो भविष्य के अपने परियोजनाओं से सम्बंधित चंद्रयान के पहिए मे लगा धुरी किस मैटेरियल का होगा, इस तरीके के सैकड़ो रिसर्च प्रोब्लम इसरो के पास उपलब्ध है. यदि आप भारत के नागरिक हैं और शोध करते हैं तो आप इसरो को प्रोजेक्त प्रोपोजल दे सकते हैं. इसरो आपको शोध करने के लिए पैसा मुहैय्या करवाएगा. निश्चित तौर पर इसरो सुनिश्चित करेगा कि उसके पैसा का सदुपयोग हुआ है और आप आप इसरो के शोध को पाकिस्तान को नही बेच रहे हैं.
इसरो के इन शोधों से राकेट ही चंद्रमा पर नही पहुँचता बल्कि विभिन्न क्षेत्रों मे इस शोध का उपयोग होता है. पिछले एक पोस्ट मे मैने बताया था कि वह क्या कारण है कि फ्रांस जैसा छोटा देश रफायल जहाज बना लेता है और हम नही. इसका उत्तर यहीं निहित है. क्योंकि फ्रांस अंतरिक्ष विज्ञान और डिफेंस क्षेत्र मे इतने शोध किए हैं कि जिसका प्रयोग विभिन क्षेत्रो मे हो रहा है. फ्रांस उन शोधों के आधार पर टेक्नोलोजी बनाकर दुनियाँ को बेचती है और अमीर बना हुआ है. आप उनके टेक्नोलोजी का प्रयोग फ्री मे नही कर सकते वे अरबों रुपैया मांगते हैं.
उदाहरण से समझते हैं. मनमोहन सिंह सरकार ने चेक रिपब्लिक से टट्रा ट्रक खरीदे जिसमे बहुत बड़ा घोटाला हुआ था. उस समय टाट्रा ट्रक की कीमत एक करोड़ थी. ध्यान दीजिए टाट्रा ट्रक आखिर बना किस चीज से है—लोहा, प्लस्टिक इत्यादि. लोहे और प्लस्टिक का कीमत कितना होगा—दो लाख , चार लाख? उसको बनाने मे कितना लेबर लगा होगा उसकी कितनी सैलरी होगी—वही दो चार लाख ? फिर ट्रक का कीमत एक करोड़ क्यों. क्योंकि ट्रक मे ऐसे टेक्नोलोजी लगा है जिसका दाम इतना रखा गया है. टेक्नोलोजी क्या है? वही ज्ञान जो शोध के बाद प्राप्त होता है. जो लोग मुझसे वाक्युद्ध करना चाहते हैं कर सकते हैं. जी हाँ मेरा मानना है कि
मैटेरियल + ज्ञान = टेक्नोलोजी
इस देश मे मैटेरियल कि कोई कमी नही है. इसरो अपने शोध के दौरान ऐसे ऐसे ज्ञान को अर्जित करती है जो बाद मे आम लोगों के लिए टेक्नोलोजी का रुप धारण कर लेती है. जिसका कीमत हम अरबों रुपैया मे चुकता करते आए हैं— टाट्रा ट्रक, रफायल जहाज इसका सद्य: उदाहरण है.
इसरो ऐसे ऐसे क्षेत्र मे अपना शोध करती है जिसका आम जनता कल्पना भी नही कर सकती.
उदाहरण के तौर पर :
1. टेलीकम्युनिकेशन इंजिनियरिंग,
2. मैटेरियल साइंस
3. मेकैनिकल इंजिनियरिंग,
4. कैमरा विज्ञान
5. फूड साइंस
6. मनोविज्ञान
7. भवन निर्माण विज्ञान
8. भूकम्प
9. मौसम
इनकी संख्याँ सैकड़ों हजारों हो सकती है. यदि एक लाइन मे बोलूं तो इसरो अपने शोध के माध्यम से देश के लिए टेक्नोलोजी बनाती है और देश मे विज्ञान के वास्तविक प्रचार-प्रसार का काम करती है. इसके अलावा चंद्रयान को भी चंद्रमा तक ले जाने के काम करती है. इसरो के शोध से देश के अरबों रुपैया का प्रतिवर्ष बचत होता है जो हम टेक्नोलोजी खरीदने मे लगा देते हैं.
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