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*वैदिक दर्शन : मानस शरीर*

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          डॉ. विकास मानव

    जैसे मन में कोमलता, कठोरता, निर्लज्जता और लज्जा आदि अनेक गुण रहते हैं, उसी तरह शरीर में भी उन्हीं से मिलते-जुलते लक्षण दिखते हैं।

महर्षि चरक ने कहा है :

    शरीरं ह्यपि सत्त्वमनुविधीयते, सत्त्वं च शरीरम्।

 (चरक संहिता. 4/36) 

     अर्थात् मनुष्य का शरीर उसके मन के अनुसार होता है और मन शरीर के अनुसार होता है।

सांख्याशास्त्र के अनुसार प्रकृति से संसार की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकृति में तीन गुण हैं— सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। शान्ति, सन्तोष, प्रकाश, ज्ञान, आनन्द आदि सत्त्वगुण के कार्य हैं; ऐश्वर्य-भोग, तृष्णा, इच्छा, सुख, दुःख आदि रजोगुण के विकार है और मोह, निद्रा, आलस्य, भय आदि तमोगुण के परिणाम है। जब तक उक्त तीनों गुणों की सम अवस्था रहती है तब तक प्रलय की अवस्था रहती है। जब इनमें विषमता उत्पन्न होती है तभी सृष्टि का आरम्भ होता है।

     इन गुणों का पहला परिणाम मन पर होता है। महर्षि चरक के शब्दों में मन के अनुरूप इन गुणों के आधार पर फिर भित्र-भित्र शरीर भेद बनते हैं। 

    त्रिविधं खलु सत्त्वं शुद्धं, राजसं तामसमिति। तत्र शुद्धमदोषमाख्यातं कल्याणां- शत्वात्। राजसं सदोषमाख्यातं रोषांशत्वात्। तामसमपि सदोषमाख्यातं मोहांशत्वात्। तेषान्तु त्रयाणामपि सत्त्वानामेकैकस्य भेदाश्रमपरिसंख्येयं तरतमयोगाच्छरीरयोनिविशेषे- भ्यश्चान्योन्यानुविधानत्वाच्च । शरीरं ह्यपि सत्त्वमनुविधीयते, सत्त्वं च शरीरम्। तस्मा- त्कतिचित्सत्त्व भेदाननूकाभिनिर्देशेन निदर्शनार्थमनुव्याख्यास्यामः।

 (च. सं. 4/37) 

      अर्थात् प्राणियों का मन तीन प्रकार का होता है— शुद्ध (सात्त्विक), राजस और तामस। इनमें शुद्ध सत्त्व निर्दोष माना जाता है, क्योंकि इसमें सत्त्व गुण धर्म के कारण की ही प्रधानता रहती है किन्तु राजस एवं तामस मन सदोष माने जाते हैं। इन तीनों स्वभावों में, मन की प्रवृत्तियों में, आहारों और विहारों में एवं शरीर की रचनाओं तथा प्रभावों में निश्चित भेद रहेगा।

महर्षि चरक ने सत्त्वगुणप्रधान मन के 7 भेद, रजोगुणप्रधान के 6 भेद और तमोगुणप्रधान के 3 भेद एवं इनके गुणों का दिग्दर्शन किया है। 

   *शुद्ध सत्त्व :*

(1). तद्यथा – शुचिं सत्याभिसन्धं जितात्मानं संविभागिनं ज्ञानविज्ञानवचनप्रति- वचनसम्पन्नं स्मृतिमन्तं कामक्रोधलोभमानमोहेयहर्षामिषपितं समं सर्वभूतेषु ब्राह्मं विद्यात्।

 (च. सं. 4/37)

   अर्थात् पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, संविभागी (जो सम्पत्ति को बाँटकर खाये, किसी का हिस्सा न दबाये), ज्ञान-विज्ञान और उत्तर- प्रत्युत्तर में निपुण, उत्तम स्मृतिवाला, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, अज्ञान, ईर्ष्या, हर्ष और विक्षोभ से रहित समस्त प्राणियों पर दया करनेवाला हो, उस अन्तःकरण को ‘ब्राह्मसत्त्व’ जानना चाहिए। यह सात्त्विक अन्तःकरणों में भी सबसे श्रेष्ठ है।

(2). इज्याध्ययनव्रतहोमब्रह्मचर्यपरमतिथिव्रतमुपशान्तमदमानरागद्वेषमोहलो भरोषं प्रतिभावचनविज्ञानोपधारणशक्तिसम्पन्नमार्थं विद्यात्।

 (च. सं. 4/37)

      यज्ञ, वेदपाठ, व्रत, हवन, ब्रह्मचर्य में तत्पर, अतिथियों की सेवा में निरत, मद, अहंकार, राग, द्वेष, मोह, लोभ और क्रोध से रहित, उत्तर- प्रत्युत्तर की शक्ति, विचारशक्ति और धारणाशक्ति से सम्पन्न अन्तःकरण को ‘आर्यसत्त्व’ जानना चाहिए। शूरमोजस्विनं तेजसोपेतमक्लिष्टकर्माणं दीर्घदर्शिनं.

 (3). ऐश्वर्यवन्तमादेयवाक्यं यज्वानं धर्मार्थकामाभिरतमैन्द्रं विद्यात्।

 (च.सं.4/37)

     ऐश्वर्य (धन-जन) से पूर्ण, युक्तियुक्त बात कहनेवाले, यज्ञों में रुचि रखनेवाले, वीर स्वभाव, तेजस्वी, ओजस्वी, क्षुद्र कार्यों से घृणा करनेवाले, दूरदर्शी, धर्म, धन और कामसुख पुरुष के अन्तःकरण को ऐन्द्र (इन्द्रसम्बन्धी) सत्त्व जानना चाहिए। 

(4). लेखास्थवृत्तं प्राप्तकारिणमसम्प्रहार्यमुत्थानवन्तं स्मृतिमन्तमैश्वर्यलम्भिनं व्यपगतरागेष्यद्वेषमोहं याम्यं विद्यात्।

 (च. सं. 4/37)

     कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का सर्वदा विचार रखनेवाले, समय पर न चूकनेवाले, अदम्य स्वभाव, सहाय सम्पन्न, धारणायुक्त, ऐश्वर्यवान् तथा राग, द्वेष, मोह से रहित पुरुष को याम्य ( यमराजसम्बन्धी) सत्त्व से युक्त जानना चाहिए। 

(5). शूरं धीरं, शुचिमशुचिद्वेषिणं यज्वानमम्भोविहाररतिमक्लिष्टकर्माणं स्थानकोपप्रसादं वारुणं विद्यात्।

 (च. सं. 4/37) 

    वीर, धैर्यवान्, पवित्र, अपवित्रता से द्वेष रखनेवाला, जलविहार का प्रेमी, क्षुद्र कार्यों का विरोधी, उचित क्रोध और प्रसन्नता दिखानेवाला पुरुष वारुण (वरुण सम्बन्धी) सत्त्व से युक्त होता है।

 (6). स्थानमानोपभोगपरिवारसम्पन्नं धर्मार्थकामनित्यं शुचिं सुखविहारं व्यक्तकोप- प्रसादं कौबेरं विद्यात् ।

(च. सं. 4/37)

     स्थान, सम्मान, उपभोग और परिवार से पूर्ण धर्म, अर्थ और काम में तत्पर, पवित्र, सुखी, विहारप्रिय, समुचित क्रोध और प्रसन्नता से युक्त पुरुष कौबेर (कुबेर सम्बन्धी) सत्त्व से युक्त होता है।

(7). प्रियनृत्यगीतवादित्रोल्लापकश्लोकाख्यायिकेतिहासपुराणेषु कुशलं गन्धमाल्या- नुलेपनवसनस्त्रीविहारकामनित्यमनसूयकं गान्धर्वं विद्यात्।

 (च. सं. 4/37)

     नृत्य, गीत, वाद्य, स्तुति, कविता, कथा, इतिहास और पुराणों में कुशल; सुगन्धि द्रव्य (इत्र आदि), पुष्पमाला, चन्दन, कपूर, केसर, अगर, सुन्दर वस्त्रों का प्रेमी और स्त्रियों के साथ विहार करने में अनुरक्त एवं असूया (दूसरों के उत्कर्ष की निन्दा) से रहित पुरुष को गान्धर्व (गन्धर्व सम्बन्धी) सत्त्व से सम्पन्न जानना चाहिए। 

    इस प्रकार ये सात भेद शुद्ध (सत्त्वगुणप्रधान) सत्त्व के बताये है। यद्यपि ध्यानपूर्वक देखने से इनमें बहुत भेद प्रतीत होगा एवं रजोगुण के लक्षण भी इनमें अनेक जगह मिलेगें, परन्तु संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं मिल सकती जो केवल एक ही गुण से बनी हो या किसी एक गुण का अविकृत रूप हो। चाहे कोई गुण क्यों न हो, उसमें कुछ-न-कुछ दूसरे गुण का सम्पर्क या विकार का अंश अवश्य रहेगा।

     सत्त्वगुण की प्रधानता होने के कारण ही इन सबको शुद्धसत्त्व कहा है। बहुत से स्त्री-पुरुष ऐसे भी होंगे जिनमें इन उक्त गुणों में किसी के आद्यन्त लक्षण न मिलें बल्कि कई में से कुछ-कुछ गुण ही मिलें। इन सातों में संसार का श्रेयस्कर (कल्याणकारी) अंश विद्यमान है।

  *राजससत्त्व :*

(1). शूरं चण्डमसूयकमैश्वर्यवन्तमौपधिकं रौद्रमननुक्रोशमात्मपूजकमासुरं विद्यात्।

     अर्थात् शूर, क्रोधी, दूसरों की निन्दा करनेवाला (दूसरों के गुणों में भी दोष दिखानेवाला), धनसम्पत्र, कपटी, दुःखदायी, निर्दय और आत्मश्लाघा में निरत प्राणी को आसुर (असुर सम्बन्धी) सत्त्व जानना चाहिए। 

(2). अमर्षिणमनुबन्धकोपं छिद्रप्रहारिणं क्रूरमाहारातिमात्ररुचिमामिषप्रियतमं स्वप्ना- यासबहुलमी राक्षसं विद्यात्।

     असहिष्णु, क्रोध का सिलसिला (अनुबन्ध) बनाये रखनेवाला, कमजोर पाकर मारनेवाला, क्रूर, भोजन में अत्यन्त रुचि रखनेवाला, मांस का अतिप्रेमी, निद्रालु और बहुत भ्रमण करनेवाला तथा ईर्ष्यालु (दूसरों की उन्नति को न सह सकनेवाला) पुरुष को राक्षस सत्त्व से युक्त जानना चाहिए।

 (3). महाशनं स्त्रैणं स्त्रीरहस्काममशुचिं शुचिद्वेषिणं भीरुं भीषयितारं विकृत- विहाराहारशीलं पैशाचं विद्यात्।

      बहुत खानेवाला, स्त्रियों में निरत, एकान्त स्त्रीसहवास का उत्सुक, अपवित्र स्वभाव, पवित्रता का द्वेषी, डरपोक, डरानेवाला, विकृत आहार-विहार और शील से संयुक्त सत्त्व पैशाच (पिशाच सम्बन्धी) होता है। 

(4). क्रुद्धशूरमक्रुद्धभीरुं तीक्ष्णमायासबहुलं सन्त्रस्तगोचरमाहारविहारपरं सार्प विद्यात्।

      क्रोध आ जाने पर शूर और क्रोध न होने पर भीरु, उग्र स्वभाव, भ्रमणशील, भयानक आहार-विहार में निरत सत्त्व को सार्प (सर्प सम्बन्धी) जानना चाहिए। 

(5). आहारकाममतिदुःखशीलाचारोपचारमसूयकमसंविभागिनमतिलोलुपकर्मशीलं प्रेतं विद्यात्।

      सदा खाने के लिए व्यग्र, दुःखित स्वभाव, निन्दक, पेटू (जो केवल अपना पेट भरे दूसरों को न दे) अकर्मण्य, अतिलोभी, सत्त्व को प्रैत (प्रेत सम्बन्धी) जानना चाहिए। 

(6). अनुषक्तकाममजस्त्रमाहारविहारपरमनवस्थितममर्पणमसञ्चयं शाकुनं विद्यात्।

 (च.सं. 4/38) 

    सदा कामातुर, निरन्तर खाने और घूमनेवाला, चंचल, असहिष्णु, परिग्रहहीन सत्त्व को शाकुन (पक्षि सम्बन्धी) जानना चाहिए। क्रोध का अंश रजोगुण का रूप है और क्रोध न्यूनाधिक मात्रा में सबमें रहता है। क्रोध प्रधानतया राक्षस, पिशाच, सर्प आदि में रहता है। अतः जिस पुरुष का स्वभाव जिससे मिलता-जुलता हो उसको सादृश्य के कारण उसी कोटि में गिना दिया है।

      अन्यथा कोई पुरुष चिड़िया या साँप कैसे हो सकता है ? क्रोध, चंचलता, कामातुरता आदि रजोगुण के प्रधान लक्षण है।   

   *तामससत्त्व :*

 तमोगुण के तीन भेद हैं- पशु, मत्स्य और वनस्पति। इनमें मोह (अज्ञान) की प्रधानता रहती है। भूषणहीन, बुद्धिहीन, निन्दित आहार-विहार करनेवाले, निद्राशील, डरपोक, पेटू, आलसी आदि पुरुष तमोगुणी होते हैं। इन गुणों के अनुसार लोगों के भोजन की रुचि में भी भेद होता है। जो भोजन सात्त्विक पुरुष की रुचि के अनुकूल होंगे वे तामस पुरुष को कभी पसन्द नहीं आ सकते।

गीता में इसका वर्णन इस प्रकार है :

   रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।

 (गीता. 17/8) 

   रसीले, चिकने, पुष्टिकारक, मधुर आहार (भोजन) सात्त्विक पुरुषों को पसन्द होते हैं। 

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।

 आहारा राजसस्येष्टाः।।

 (गीता. 17/9) 

    कड़वे (चरपरे), खट्टे, नमकीन, अति गरम (चाय आदि), तीखे (शराब आदि), रूक्ष (चना प्रभृति) और जलन पैदा करनेवाले भोजन रजोगुणी पुरुष को रुचिकर होते है।

यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत्।

 उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।

 (गीता. 17/10) 

    नीरस, सड़ा हुआ, बासी, जूठा और अपवित्र भोजन तमोगुणी पुरुषों को पसन्द होता है।

      भोजन की भाँति अन्य आहार-विहार और आचार-विचारों में भी उक्त तीनों गुणों के अनुसार भेद होता है। आप किसी आदमी के कमरे में जाइये तो वहाँ के सामान को देखकर आप यह आसानी से समझ सकेंगे कि उसकी मानस प्रकृति कैसी है। उसके स्थान की बनावट, उसके कमरे की सजावट, उसकी तस्वीरों का चुनाव, उसके पढ़ने की पुस्तकें, उसके पहनने के कपड़े, उसके शरीर की वेषभूषा यहाँ तक कि उसके चेहरे और खासकर उसकी नज़र को देखकर आप यह परख सकेंगे कि वह सत्त्वगुणी है या रजोगुणी अथवा तमोगुणी है।

     जैसा आदमी का अन्तःकरण होता है, वैसी ही उसकी रुचि होती है और उसी के अनुसार वह अपने लिए चीजें चुनता है।

     इस तरह तीन गुणों के अनुसार तीन प्रकार के अन्तःकरण होते है और जैसा अन्तःकरण या मन होता है वैसा ही शरीर भी हो जाता है। मन का पता तो व्यवहार से चलता है किन्तु शरीर को तो दूर से देख कर ही पहचाना जा सकता है।

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