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*जीवन~यात्रा : यहां चालबाजियां नहीं चलती*

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        ~ रीता चौधरी 

चेतना मिशन के शिविरों में प्रतिभागी बनकर भी लोग चालबाजियां कर रहे हैं! लोग परमात्मा के साथ भी धूर्तता दिखाने में मसगूल हैं. मौका लगे तो उसकी भी जेब काट लें. उसको भी लूट लें।

    चालबाजियां अब और नहीं। अब  सब खोलकर ही रख दो। कह दो : “यह मैं हूं! बुरा-भला जैसा हूं, स्वीकार कर लें। बुराइयां नहीं हैं, ऐसा भी नहीं कहता। भलाइयां भलाइयां हैं, ऐसा दावा भी नहीं करता। यह हूं बुरा-भला, सब का जोड़त्तोड़ हूं। इसे स्वीकार कर लें। अब आपके हाथ में हूं, अब जैसा बनाना चाहें बना लें।’

       होशियारी बरतो, कोई हर्जा नहीं. हमारा कुछ हर्जा नहीं है; आप ही चूक जाओगे। तो चूकते चले जा रहे हैं। लोग महज़ अपनी बुद्धि लगाते हैं। वे कहते हैं : “इत्ता तो हिसाब अपना रखना ही पड़ेगा। कल आप कहने लगो कि गङ्ढे में कूद जाओ तो कैसे कूद जाऊंगा? देख लेता हूं कि ठीक है, नीचे मखमल बिछी है तो कूद जाता हूं। अब गङ्ढे में पत्थर पड़े हों, तब तो मैं रुक जाऊंगा। जब तक मखमल बिछी है, तब तक कूदूंगा; जब गङ्ढे में देखूंगा पत्थर पड़े हैं तो मैं कहूंगा कि अब नहीं कूद सकता।’

    अपनी ऐसी चालाकी को लेकर चलोगे, चूक जाओगे। अपने को बेशर्त न छोड़ो।

*बेहद चालबाज है मन :*

     एक आदमी ने अखबार में खबर दी : आवश्यकता है एक नौकर की। विज्ञापन पढ़कर एक आदमी नौकरी के लिए आया। नौकरी की आशा से आनेवाले उम्मीदवार ने पूछा कि मुझे वेतन क्या मिलेगा? उस आदमी ने कहा, वेतन कुछ नहीं मिलेगा, केवल खाना मिलेगा। आदमी गरीब था।

   उसने कहा : “चलो ठीक है, खाना ही सही। और काम? काम क्या होगा?’–नौकर ने पूछा।

   उन सज्जन ने कहा : “सबेरे-शाम दो वक्त गुरुद्वारा जाकर लंगर में खाना खा आओ और साथ ही हमारे लिए खाना बांधकर लेते आओ।’

   ऐसा आदमी चालाक नही, बड़ा बेईमान है! खूब तरकीब निकाली कि लंगर में खाना खा लेना, तुम भी खा लेना, तुम्हारा खाना भी हो गया, खत्म! तुम्हारी नौकरी भी चुक गई और मेरे लिए खाना लेते आना। यह तुम्हारा काम है। तो मुफ्त में सब हो गया।

     ऐसे ही लोग आध्यात्म भी बड़ी होशियारी से करना चाहते हैं–मुफ्त में कर लेना चाहते हैं. कुछ लगे ना, कुछ रेखा न खिंचे, कुछ दांव पर ना लगे! अपने को बचाकर घट जाए घटना। मुफ्त मिल जाए। कोई प्रयास न करना पड़े और कोई कठिनाई न झेलनी पड़े।

    जहां अहंकार को चोट लगती हो, जहां बुद्धि को चोट लगती हो वहीं पीछे हट जाओगे। आपकी वही कसौटी है।

   इसलिए पलटूदास कहते हैं : कोई साहसी हो तो बढ़े। साहसी ही ही नहीं, पागल हो, तो हिम्मत करे इतनी।

सब दांव पर लगा देने का अर्थ है पागल की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। अंधे की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं।

    पहले दांव पर लगाने के लिए खूब सोच लो, विचार लो। कोई यह नहीं कह रहा है कि सोचो-विचारो मत। खूब सोचो, खूब विचारो, वर्षों बिताओ, चिंतन-मनन करो, सब तरफ से जांच-परख कर लो; लेकिन एक बार जब निर्णय कर लो कि ठीक है, ठीक आदमी के करीब आ गए, यही आदमी है–जब ऐसा लगे कि यही आदमी है तो फिर आगा-पीछा न सोचो। फिर कहो कि ठीक है, अब तुम्हारे साथ चलता हूं : नरक जाओ तो नरक, स्वर्ग जाओ तो स्वर्ग; अब तुम जहां रहोगे वहीं मेरा स्वर्ग है।और तुम जैसे रखोगे वही मेरा स्वर्ग है।

   संसर्पण ही है कर्णाधार.

   यही पहुंचा देगा उस पार.

बस यह समर्पण सही जगह होना चाहिए. 

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