गुरु दत्त की ‘प्यासा’ अगर नायिका प्रधान फिल्म होती तो क्या होता? नैराश्य और गम में डूबी शायरा बनकर कौन अभिनेत्री इस फिल्म को अमर कर पाती?
यकीनन मीना कुमारी. चाहे फिल्में हों या निजी जीवन, या फिर वो नज्में और शायरी जिन्हें वे अकेलेपन में डायरियों में उकेरा करतीं थीं. मीना कुमारी ने जितना दर्द रुपहले परदे पर प्रदर्शित किया था, उससे कहीं ज्यादा घूंट-घूंट पिया था. मूक फिल्मों के दौर से लेकर हमारे इस दौर तक में – जहां नायिकाएं डिप्रेशन से गुजरने पर सार्वजनिक तौर पर बातचीत करने से हिचकिचाती नहीं – मीना के अलावा कोई दूसरी अभिनेत्री नहीं हुई, जो अपने दर्द-ओ-गम पर ही मर मिटी हो.
उनकी लिखी एक नज्म है कि ‘कोई चाहत है न जरूरत है/ मौत क्या इतनी खूबसूरत है/ मौत की गोद मिल रही हो अगर/ जागे रहने की क्या जरूरत है.’ वहीं ‘प्यासा’ का नायक इन्हीं जज्बातों को अलग अंदाज में बयां करते हुए गाता है कि ‘तंग आ चुके हैं कश्मकश-ए-जिंदगी से हम/ ठुकरा न दें जहां को कहीं बेदिली से हम.’ चाहे शराबनोशी हो, प्यार न मिलने की छटपटाहट हो, या फिर रगों में दौड़ता वो गम हो जिसके होने की वजह न खुद को समझ आए न दूसरों को समझाई जा सके – गुरु दत्त और मीना कुमारी की जिंदगी में बहुत कुछ था, जो उन्हें एक-दूसरे का पूरक बनाता है.
गुरु दत्त कविताएं नहीं लिखते थे. वरना मीना कुमारी जैसी ही लिखते. मीना फिल्में नहीं बनाती थीं. वरना गुरु दत्त की ही तरह दर्द को परदे पर संवार पाने वाली सिनेमाई कवि कहलातीं.
मीना कुमारी ने अपनी कुछ नज्मों और गजलों को एक एलबम की शक्ल दी थी. नाम था ‘आइ राइट आइ रिसाइट.’ 14 साल में बनकर तैयार हुई उनकी फिल्म ‘पाकीजा’ का संगीत देने वाले खय्याम ने इसका संगीत दिया था और मीना ने न सिर्फ इसके लिए अपनी उदास व निराशावादी कविताओं का पाठ किया बल्कि सूनेपन को सारा समेटकर उन्हें बेइंतिहा ही खूबसूरत अंदाज में गाया भी.
मीना कुमारी को फैज अहमद फैज की नज्मों से भी इश्क था. गुरु दत्त की जिस फिल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ में छोटी बहू बनकर उन्होंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया था, उसको जब 1963 का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला, तब उन्होंने मुंबई के खचाखच भरे रीगल सिनेमा में आयोजित समारोह में फैज की ही नज्मों का पाठ किया था.
‘नाज’ नाम का तखल्लुस अपनाकर शायरी लिखने वाली मीना का झुकाव उर्दू शायरी की तरफ कुछ ऐसा था कि फुरसत के वक्त में वो घंटों मीर से लेकर फैज तक को पढ़ा करतीं. शायरी के प्रति यह लगाव ही उन्हें युवा गुलजार के करीब भी लाया. जहां एक तरफ मीना के पति कमाल अमरोही मानते थे कि उन्हें पोइट्री की बिलकुल समझ नहीं है, वहीं उनके अभिनय के प्रशंसक होने के बावजूद ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे निर्देशक कहा करते थे कि उनकी पोएट्री में कोई गहराई नहीं है.
लेकिन गुलजार उनके लिखे को हमेशा तवज्जो देते. गुलजार की नजर में मीना को इमेजरी की बहुत समझ थी जोकि उनके लिखे में एकदम जीवंत हो जाती. इसीलिए शायद मरते वक्त मीना कुमारी अपनी सभी डायरियां गुलजार को सौंप गईं. उनमें से कुछ नज्मों-गजलों को गुलजार साहब ने ‘मीना कुमारी की शायरी’ नामक किताब की शक्ल दी, लेकिन डायरियों के उस जखीरे में लिखा बहुत कुछ अपनी निगरानी में कहीं बक्सा-बंद करके रख दिया.
दिवगंत पत्रकार विनोद मेहता अपनी किताब ‘मीना कुमारी : द क्लासिक बायोग्राफी’ में बताते हैं कि गुलजार और मीना की मुलाकात बिमल रॉय की फिल्म ‘बेनजीर’ (1964) के सेट्स पर हुई. गुलजार इस फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर थे और उन्होंने पिछले साल ही ‘बंदिनी’ (1963) फिल्म से बतौर गीतकार फिल्मों में डेब्यू किया था. मीना को उनका साथ बहुत भाता था क्योंकि साथ बैठकर वे किताबों पर बातें करते और मीर तकी मीर के कलाम पर चर्चा. जब सेट पर साथ नहीं होते तो टेलीफोन पर गुफ्तगू करते और साथ होने का कोई मौका नहीं छोड़ते. इत्तेफाकन ही होगा, कि ‘बेनजीर’ की शूटिंग के दौरान ही कई सालों की टूटन लिए फिर रहा मीना और उनके पति कमाल अमरोही का रिश्ता आखिरकार टूट गया था.
सालों बाद मीना कुमारी के गुजर जाने के बाद, कमाल अमरोही इस बात पर ज्यादा खफा थे कि उनकी ‘मंजू’ ने एक बाहरवाले को उनके व अपने निजी जीवन से पटी पड़ी डायरियां सौंप दीं थीं.
शायरी के अलावा मीना कुमारी को सफेद रंग से भी बेइंतिहा प्यार था. अपनी फिल्मों के प्रीमियर से लेकर सार्वजनिक समारोहों और अवॉर्ड फंक्शनों तक में वे सफेद साड़ी पहनकर जातीं और अक्सर जो मैचिंग पर्स साथ में रखतीं, वो भी सफेद रंग का होता. जिन घरों में वे रहतीं, वहां की चीजों में सफेद रंग महका करता और इस रंग के प्रति उनकी आसक्ति देखकर लगता है कि प्रेम की प्यासी मीना शायद अपनी स्याह-अंधेरी जिंदगी को इस सफेद रंग से रोशन कर देना चाहती थीं.
गुलजार भी न जाने क्यूं हमेशा सफेद रंग ही पहनते हैं.