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कितना पाखंडी है यह राष्ट्रवाद?

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बादल सरोज

इस बार के एशियाई मुकाबलों में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन शानदार रहा। उन्होंने अलग अलग मुकाबलों में 28 स्वर्ण, 38 रजत, 41 कांस्य, इस तरह कुल मिलाकर 107 पदक जीते। यह एशियाई खेलों में भारत का अब तक का सबसे बेहतर रिकॉर्ड है। हालांकि अभी भी वह पदक तालिका में 383 पदकों वाले चीन, 190 वाले कोरिया और 188 वाले जापान से पीछे चौथे नम्बर पर है। उम्मीद है आने वाली वर्षों में भारतीय खिलाड़ी और आगे जायेंगे। खिलाड़ियों को बधाई, शुभकामनाएं। 

इन खेलों में संयोग ऐसा हुआ कि इस मुकाबले में भारत के दिग्गज पहलवान बजरंग पूनिया कोई पदक नहीं जीत पाए। खेल में ऐसा होना स्वाभाविक है; पिछले दिनों भाला फेंक में एक बार फिर मैडल जीतकर आये नीरज चोपड़ा की माँ इसे बहुत ही सहजता के साथ कह भी चुकी हैं कि जब कोई खेल प्रतियोगिता होती है तो एक खिलाड़ी जीतता है तो दूसरा हारता भी है। खेलों में हार जीत कोई असामान्य या असाधारण बात नहीं है। 

मुक्केबाजी के सबसे महान खिलाड़ी मोहम्मद अली – जो पहले कैसियस क्ले थे – 56 मुकाबले जीत मगर 5 बार हारे भी। फुटबॉल के तीनो जादूगर्रों पेले, माराडोना और लियोनिल मेस्सी की टीमे कई बार हारी भी हैं। सबसे अधिक गोल दागने वाले क्रिस्टियानो रोनाल्डो की टीम तो अक्सर विश्व कप मुकाबलों के फाइनल तक भी नहीं पहुँच पाती। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की टीम 1936 का ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीतने से ठीक पहले भारत में दिल्ली इलेवन से 4-1 के बड़े अंतर से हार गयी थी। शतरंज के दिग्गज और वर्षों तक विश्व चैंपियन रहे बोरिस स्पास्की भी सिर्फ बॉबी फिशर से ही नहीं हारे, कई कई बार और भी हारे। मतलब यह है कि खेलों में हार जीत होती रहती है और इसे हमेशा खेल भावना के साथ लिया जाना चाहिये, लिया जाता है। जीतने वाले खिलाड़ियों को देश की जनता और उसकी सरकारें सराहती हैं वहीँ न जीत पाने वाले खिलाड़ियों का भी हौसला बढ़ाती हैं, उनके साथ खड़ी होती हैं। दुनिया में ऐसा ही होता है, भारत जो इंडिया भी है में भी ऐसा ही होता रहा है। 

मगर 2014 के बाद का भारत, खासतौर से इसके हुक्मरान और उनके चरण चुम्बक औपचारिक और अनौपचारिक मीडिया के मामले में, बदला हुआ भारत है। पूर्वाग्रही विद्वेष और अपनों से ही नफरत इसकी विशेष पहचान है। इसका नमूना बजरंग पूनिया के न जीत पाने के बाद संघियों की आई टी सैल की ट्रोल आर्मी की जहरीली मुहिम में नजर आया। एशियाई खेलों में बजरंग पूनिया को हराने वाले जापान के कैकी यामागुची और ईरान के रहमान अमज़द खलीली अपनी जीत पर जितने खुश नहीं हुए होंगे उससे ज्यादा ख़ुशी इन कथित राष्ट्रवादियों के थोबडों पर बजरंग पूनिया के न जीत पाने पर थी। अपनी साथी महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के खिलाफ बहादुरी के साथ डटे रहने वाले बजरंग पूनिया के हारने पर पूरे गिरोह की बांछें खिली हुयी थीं, वे और उनके भोंपू मीडिया ने बजरंग के न जीत पाने के लिए उनके द्वारा “खेलों की बजाय राजनीति” करने के उनके काम को दोषी ठहराया और इस तरह उस व्यभिचारी भाजपा सांसद की अश्लील हरकतों के खिलाफ लड़ाई को “राजनीति” बताने की दुष्टई की। इतना ही नहीं, खुद जिसके खिलाफ दिल्ली पुलिस की भरीपूरी चार्जशीट है और जिसे अदालत ने समन जारी किया हुआ है, भाजपा के चहेते सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह भी अपनी खीज उतारने के लिए प्रेस से बात करने के लिए उपलब्ध हो गए और बजरंग पूनिया के बारे में अनेक उपदेश दे डाले। 

सनद रहे कि एशियाई खेलों में न जीत पाने वालों में बजरंग अकेले नहीं हैं, भारत ने 655 एथलीटों के साथ 23 सितंबर से 8 अक्टूबर तक चीन के हांगझोऊ में एशियन गेम्स 2023 में हिस्सा लिया। जाहिर है सबके सब तो नहीं जीते। मगर उनके निशाने पर सिर्फ एक पहलवान है; होना भी चाहिए क्योंकि असल में वही सचमुच का पहलवान है भी। गलत को गलत, अन्याय को अन्याय कहने वाला, उनके खिलाफ लड़ने वाला पहलवान।

किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक देश में कायदे से चर्चा इन खेलों में खेलने गयी भारत की उस फुटबॉल खिलाड़ी चिंगलेनसाना सिंह की होनी चाहिये जो मणिपुर से है, चीन खेलने गयी है जबकि मणिपुर में खुद उसका घर जलाया जा चुका है मगर वह इस सबके बावजूद देश के लिए खेलने गयी है। मणिपुर की ही वुशु खिलाड़ी नाओरेम रोशिबिना देवी की होनी चाहिये जो मैडल लेने के बाद इसलिए रो पड़ीं क्योंकि बाकी खिलाड़ियों की तरह वे अपने घर वापस नहीं लौट पाएंगी। अपना पदक अपने राज्य मणिपुर को यह कहते हुए समर्पित किया कि “मैं चाहती हूं कि स्थिति सामान्य हो जाए… पहले से बेहतर हो जाए। सब कुछ जलते हुए देखना, अच्छा नहीं लगता।” अंडर 16 खेलों में हॉकी का विश्व मुकाबला जीतकर आये मणिपुर के मैतेई खिलाड़ी भरत लारेन्जम और कुकी खिलाड़ी लेविस जैंगमिन्लुन की होनी चाहिये जिनके निर्णायक गोलों ने बांग्ला देश के खिलाफ 2-0 से जीत दिलाई थी, लेकिन जो अब साथ साथ अपने घर नहीं लौट सकते। पूरे देश में चर्चा का विषय रिले रेस में स्वर्ण पदक जीतने वाली उस टीम की होनी चाहिये थी जिसमें मोहम्मद अजमल, मोहम्मद अनस, अमोज जैकब और राजेश रमेश की जोड़ी के रूप में सचमुच का हिन्दुस्तान था। यह वह टीम थी जिसने इतिहास रच दिया और 1962 के बाद पहली बार रिले रेस के टीम इवेंट में भारत को पहला गोल्ड मेडल दिला दिया है।

मगर ऐसा करना हुक्मरानों के विभाजनकारी एजेंडे के हिसाब से काम का नहीं है। इसलिए इन सब पर बात नहीं होगी। बात के दो आयाम होंगे – पहले में उनकी बी टीम बजरंग पूनिया का मानमर्दन करेगी। कंस को कंस, दुशासन को दुशासन कहने की उसकी हिमाकत के लिए उसकी हार का जश्न मनायेगी। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पूनिया भारत के ऐसे कुश्ती खिलाड़ी हैं जिन्होंने ओलम्पिक सहित हरेक मुकाबले में मैडल जीते हैं। वे सबसे ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय पदक जीतने वाले खिलाड़ी हैं। उन्होंने पिछले मुकाबलों में जीता एशियन खेलों का अपना गोल्ड मैडल सार्वजनिक रूप से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को समर्पित करने का एलान किया था – इसके बावजूद वे उन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी की तस्वीर सामने रखने वाली ट्रोल आर्मी के निशाने पर रहे क्योंकि उन्होंने अपनी सहयोगी महिला खिलाड़ियों के साथ यौन अपराध करने वाले भाजपा सांसद को अपराधी कहने का साहस दिखाया। इसलिए उनके न जीत पाने पर ब्रजभूषण शरण के आचरण-सहोदरों को जश्न मनाना ही है। 

वहीँ दूसरी तरफ खिलाड़ियों की जीत को मोदी है तो मुमकिन है, से जोड़कर मोदी की वजह से हुयी जीत बताकर थैंक्यू मोदी जी का स्तुति-रुदन समारोह शुरू करना है। यह शुरू हो भी चुका है। खिलाड़ियों के लौटने के बाद मोदी जी अपनी व्यस्त चुनाव सभाओं में से समय निकाल कर इन खिलाड़ियों के साथ लंच, डिनर करेंगे, उन्हें खेल के गुर सिखायेंगे। पिछले मुकाबले के बाद भी उन्होंने यही किया था। उसके बाद जब यही खिलाड़ी – खिलाडिनें विनेश फोगाट और साक्षी मलिक की तरह किसी कोच, किसी खेल संघ के भाजपाई अध्यक्ष द्वारा अपने साथ किये किसी गलत और आपराधिक आचरण के खिलाफ आवाज उठाएंगे तो उन्हें जंतर मंतर पर पुलिस द्वारा मारा पीटा और घसीटा जाएगा, राष्ट्रद्रोही करार दिया जाएगा।

खोखला और फर्जी मोडानी राष्ट्रवाद

इस कुनबे का राष्ट्रवाद इतना ही खोखला और इतना ही फर्जी है। अब फिर इस फर्जी राष्ट्रवाद का मुजाहिरा शुरु हो चुका है। अभी पांच राज्यों के चुनाव हैं, कुछ महीनों बाद लोकसभा के चुनाव भी हैं, इसलिए उत्सवी घन गरज तेज से तेजतर करनी है। लिहाजा इन दिनों, एक बार फिर, यह ढोंगी राष्ट्रवाद अपनी विद्रूपता के चरम पर है; अपने देश की स्वतन्त्रता के मुकाबले अंग्रेजों की चाकरी को ईश्वरीय आदेश मानने वाला सावरकरी राष्ट्रवाद अब सनातनी अद्वैतवादी राष्ट्रवाद में रूपांतरित हो चुका है जिसमें मोदी ही राष्ट्र हैं। उनकी भाजपा राष्ट्र का विस्तार और उनका संघ एकमात्र निस्तार है; इसके अलावा न कोई है, न कुछ होना चाहिए, यदि कुछ है भी तो वह राष्ट्र विरोधी है। बात अहम् ब्रह्मास्मि से भी आगे पहुँच गयी है; अब मोदी ही ब्रह्मा हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही विष्णु के अब तक के सारे अवतार हैं !! 

कितना पाखंडी है यह राष्ट्रवाद?

यह राष्ट्रवाद कितना पाखंडी है इसका सबूत क्रिकेट विश्वकप के खेलों के आयोजन से ही मिल जाता है। जो संघ भाजपा गिरोह दसियों साल तक पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के भारत में खेलने का विरोध करता रहा, उसके खिलाफ साम्प्रदायिक उन्माद उकसाता रहा वही आज पाकिस्तान की क्रिकेट टीम की भागीदारी वाले आईसीसी विश्वकप का आयोजन कर रहा है। अच्छी बात है, यदि इसे सच्ची खेल भावना से किया जा रहा होता तो इसमें अनुचित कुछ नहीं है। किन्तु इसके पीछे सैकड़ों हजारों करोड़ के मुनाफे की लिप्सा के सिवाय और कुछ नहीं है; क्रिकेट को कमाऊ उद्योग बनाने वालों को पता है कि यदि वे कोई शर्त लगाते तो उनके हाथों से यह पहली बार पूरी तरह भारत में प्रतियोगिता के आयोजन का मौक़ा छिन सकता था। चंद कारपोरेट दैत्यों का मुनाफ़ा ही इनके राष्ट्रवाद की प्राणवायु है। कहते हैं कि राष्ट्रवाद धूर्तों की आख़िरी पनाहगाह – शरणस्थली – होता है। वर्ष 2014 के बाद अब इसे नया नाम; मोदी जमा अडानी का मोडानी राष्ट्रवाद का नाम मिल गया है। 

इतिहास – दुनिया भर का इतिहास – बिना किसी अपवाद के इस तरह के लोगों के साथ एक सा बर्ताव करता रहा है। उन्हें कूड़ेदान के हवाले करता रहा है। इस बात की पूरी संभावना है कि अगले महीने होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव इस पाखण्ड के अंत का आरम्भ करने वाले होंगे। बची खुची कसर अगले साल की पहली छमाही में होने वाले आम चुनाव पूरी कर देंगे, क्योंकि अंधियारे कभी उम्रदराज नहीं होते।

बादल सरोज 

सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

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