अग्नि आलोक
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*रावनीय प्रवृत्ति ही दानवीय है*

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शशिकांत गुप्ते

असंख्य जगह,बुराई के प्रतिक के रूप में निर्मित रावण के पुतलों का दहन पूर्ण हर्षो उल्लास के साथ किया गया।
रावण के पुतले तो जल कर ख़ाक हो गए हैं। हमारे अंदर की बुराई खत्म हुई? यह कभी होगी भी?यह सर्वदा के लिए अनुत्तरित प्रश्न हैं? प्रश्न जरूर अनुत्तरित हैं लेकिन रावण के पुतलों को जलाने की हमारी परंपरा अनवरत रहेगी यह निश्चित है।
रावण ब्राह्मण था। प्रकांड विद्वान था। लेकिन उसमें अंहकार था। अहंकार,रावण का पर्यायवाची बन गया। पर्यायवाची बनने से रावण एक प्रवृत्ति बन गया। यह प्रवृत्ति ही बुराई का प्रतीक बन गई।
रावण के जीवन “चरित्र” में लिखा है कि, रावण ने नव ग्रहों को अपने सिंहासन के नीचे दबा कर रखा था। इसीलिए रावण को किसी भी ग्रह की कोई पीड़ा होती नहीं थी।
संभवतः रावण स्वयं को अपराजित समझता था।
कलयुग में रावणीय प्रवृत्ति के लोगों के लिए कहा जाता है कि, कलयुगी रावण अपने जेहन से निर्वस्त्र होने से इनके नव ग्रह बलवान होते हैं।
यदि कोई किसी मानव में रावण नामक दानवीय प्रवृत्ति कभी समाप्त हो जाए और उसका जेहन जागृत हो जाए?
जिसकी संभावना कम ही है। फिर भी मान कर चले कि,किसी मानव का जेहन जागृत हो ही जाए तो, वह पश्च्याताप करते हुए मन ही मन निम्न गीत गुनगुना सकता है?
यह गीत है सन 1960 में प्रदर्शित फिल्म बिंदिया का इसे लिखा है,गीतकार राजेंद्र कृष्णजी ने।
मैं अपने आप से घबरा गया हूँ
मुझे ऐ ज़िन्दगी दीवाना कर दे
कहाँ से ये फ़रेब-ए-आरज़ू मुझको कहाँ लाया
जिसे मैं पूजता था आज तक, निकला वो इक साया
ख़ता दिल की है, मैं शरमा गया हूँ
बड़े ही शौक से इक ख़्वाब में खोया हुआ था मैं
अजब मस्ती भरी इक नींद में सोया हुआ था मैं
खुली जब आँख तो, थर्रा गया हूँ, थर्रा गया हूँ
इतना ही लिखा के बाद मैने स्वयं को टटोल कर आश्वस्त किया कहीं मैं सपना नहीं देख रहा हूं? सपने नहीं खोया हूं मै जाग रहा हूं,और मै घर के अंदर बैठ कर लिख रहा हूं। घर में मेरा साया दिखने का कोई कारण भी नहीं है।
मै स्वयं भी पूर्ण रूप से जागृत होकर उक्त गीत गुनगुना लग गया।
मै अपने आप से घबरा गया हूँ…..

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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