अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

भारत की राजनीति का निरन्तर बदलता स्वरूप

Share

                     अनिल त्रिवेदी


भारत में आजादी और लोकतंत्र आये पचहत्तर साल हो गए। फिर भी भारत के नागरिकों और राजनैतिक दलों के मानस में लोकतंत्र और नागरिकत्व के प्रति प्रायः उदासीनता का भाव लगातार बढ़ ही रहा है।पांच साल में एक बार मतदान करना फिर कोई सक्रिय नागरिक भूमिका नहीं यही प्रायः भारतीय लोकतंत्र में पचहत्तर साल से चल रहा है। राजनैतिक दलों का जो स्वरूप उभरा है वह तो व्यक्ति और सत्ता केन्द्रित समूह की तरह हो गया है। आज के विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति और राजनेताओं में सबसे अधिक जरूरत है तो वह हैं लोकतांत्रिक राजनीति की समझदारी , विवेकशीलता और धीरज की।

इसे यों भी कहा या माना जा सकता है कि भारत की राजनीति में राजनीति की समझदारी न होने से लोगों में उदासीनता का भाव लगातार गहराता जा रहा है। लोकतांत्रिक तरीके से चुने अधिकांश जनप्रतिनिधि प्रायः राजाओं या सामंतों की तरह सोचते समझते और व्यवहार करते हैं। नागरिकों और कार्यकर्त्ताओं को जागरूक करने के बजाय लुभावने सपनों में उलझाए रखना सक्रिय राजनीति में बने रहने का मूलमंत्र समझते ही नहीं प्राणप्रण से मानते भी हैं। इसीलिए भारत का नागरिक पचहत्तर सालों में स्वतंत्रचेता नागरिक के बजाय लाचार मूक प्रजा में बदल कर राजकाज पर सतत निगरानी करने के बजाय लगभग निष्प्रभावी भूमिका में चला गया है।

बिना सोचे समझे, बिना सवालों को उठाये भेड़ चाल की तरह या यंत्रवत रूप से मतदान करता है। मतदान के बाद कोई हमारी सुनवाई नहीं करता इसलिए बोलकर बुरे क्यों बने ? ऐसा अकर्मण्य मूक राग छेड़ कर लोकतांत्रिक राजनीति को खुद ही कमजोर करने में अपना भला समझता है। इसीलिए स्वतंत्र चेता राजनैतिक चिंतन के आधार पर मतदान करना और राजनीति पर मतदाताओं का नियंत्रण पचहत्तर सालों के हमारे लोकतंत्र में विकसित ही नहीं हुआ है।इसी का नतीजा तेजी से यह होता जा रहा है कि भारतीय लोकतंत्र में नागरिक दबाव न के बराबर हैऔर राजनैतिक कार्यकर्ताओं की स्थिति अपने अपने दलों की कठपुतली की तरह हो गई है नेता जैसे नचाते हैं वैसा कार्यकर्ताओं को नाचना है। भारत के राजनैतिक दलों में तो हायकमान की हां में हां मिलाने के अलावा कार्यकर्त्ताओं के पास कोई कार्य या वैचारिक विकल्प नहीं है।

राजनैतिक कार्यकर्ता तो जनता या नागरिकों से भी बुरी मनोदशा में अपने अपने राजनैतिक दलों और नेताओं का एक रस यांत्रिक गुणगान करते रहते हैं।आम चुनावों में नागरिक के पास मतदान करने का अवसर है पर राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं के पास वह भी नहीं है।जो हायकमान ने कहा है उसे आंख मिंच कर मानना ही निष्ठावान कार्यकर्ता का एकमेव कर्तव्य है।

सूचना प्रौद्योगिकी के दौर मे तो भारत के राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं की स्थिति तो दिहाड़ी मजदूर की तरह हो गई है।रोज सुबह आपको जो बना बनाया संदेश भेजा जाता है उसे फेसबुक और व्हाट्स अप  या ट्विटर पर यंत्रवत साझा करते रहना ही भारतीय लोकतंत्र के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का एक मात्र कार्यक्रम है। वैचारिक राजनैतिक समझ और लोगों से मिलजुलकर बात और वैचारिक राजनैतिक आन्दोलन खड़ा करना देश काल परिस्थितियों को समझने की वैचारिक भूख लोकतांत्रिक राजनीति और राजनैतिक कार्यकर्ताओं में समाप्त होकर, यह  विषय ही अब इतिहास की बात हो गया है।

भारत के राजनैतिक दलों की अपनी कोई अर्थनीति भी नहीं बची वह भी अब इतिहास की बात हो गई है।इसकी चिंता न राजनीति को है न राजनेताओं को है न नागरिकों को है और न ही राजनैतिक कार्यकर्ताओं को है। कभी कभी लगता है कि हम सब सर्वप्रभुता  सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य के सर्वप्रभुता सम्पन्न नागरिक के बजाय वैश्वीकरण के विशाल बाजार के एक अदने उपभोक्ता बनते जा रहे हैं और अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों और दायित्वों को लेकर जड़वत होते जा रहे हैं । लोकतंत्रिक नागरिक चेतना ही लोकदायित्व का ही दूसरा नाम है। लोकतंत्र में लोग सरकार बनाते है सरकार लोगों को नकार नहीं सकती। भारतीय लोकतंत्र में अखबार चेतना के वाहक बनने के बजाय राज  और बाजार के व्यावसायिक उत्पाद बनते जा रहे हैं।

जनसरोकार की बातचीत राजनीति में लुप्त प्रजाति बन गई। एक अरब चालीस करोड़ की आबादी का विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र लोगों के सवालों पर बात करना ही बंद कर दे।लोग भीड़ की तरह यंत्रवत जीते रहे स्वतंत्रचेता नागरिक की तरह आत्मसम्मान की राजनीति की बात ही न करें यह देश और दलों को चलाने वालों को सुहाता है। नागरिक और कार्यकर्ता देश या दल चलाने वालों से सवाल पूछे ,यह चुनें हुए और बिना चुने हुए नेताओं और राजनैतिक जमातों को पसंद ही नहीं है।

यह कैसा लोकतंत्र हम बना या चला रहे हैं जिसमें हां जी हां जी पर प्रायः सर्वसम्मति है और ना कहना, सवाल करना और हुक्मरानों और हायकमानों से असहमत होना अचानक देशद्रोह या दलद्रोह की संज्ञा पा जाता है। असहमति लोकतांत्रिक राजनीति और लोकव्यवस्था  की आत्मा है। लोकतंत्र देश के सारे नागरिकों की ताकत की अभिव्यक्ति है।एक विचार,एक नेता, एक दल,एक स्वर लोकतंत्र के लिए तारक तत्व न होकर मारक मंत्र बन गया है।

              अनिल त्रिवेदी                                 अभिभाषक एवं स्वतंत्र लेखक

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें