1. भीमा कोरेगांव की घटना में देश के चुनिंदा मानवाधिकार कार्यकर्ता लंबे अरसे से जेल में निरुद्ध हैं। अदालतें उनके जमानत आवेदन मंजूर करने तैयार नहीं है। वे बीमार पड़ते जा रहे हैं। कोरोना संक्रमित होने की पूरी संभावनाएं रही हैं। किसी को तो हो भी गया। वरिष्ठ कवि वरवर राव को इसी आधार पर अस्पताल में भर्ती किया गया था। जनसेवकों की जान खतरे में आज भी है। संविधान अदालतों से पूछ रहा है ” माई लाॅर्ड्स क्या करना चाहते हो?” अदालतें जवाब दे रही हैं ‘संविधान फिलहाल चुप रहो! हम अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को कुचलने बनाई गई दंड प्रक्रिया संहिता के हथकंडों से आश्वस्त हैं। फिलहाल पुलिस काम चला रही है।” संविधान ने अनुच्छेद 21 में लिखा था। ‘किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।‘ ‘उसका मतलब सरकार को मनमर्जी की पूरी ताकत देना हो गया।
2. संविधान सभा में धाकड़ सदस्य प्रोफेसर के टी शाह ने कारगर हस्तक्षेप में कहा था ‘हमें हर व्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देना है।‘ किसी को भी ‘ड्यू प्रोसेस आफ लॉ‘ छोड़कर दूसरी तरह से गिरफ्तार नहीं किया जाए। न ही जेल में रखा जाए। काजी सैयद करीमुद्दीन ने दो टूक कहा था यह अनुच्छेद जिस भाषा में परोसा गया है, उस वजह से राजनीतिक पार्टियों की धड़ेबंदी और अनुशासनहीनता के दौर में घातक अस्त्र बनकर जनता की गर्दन को काटेगा। कानून की वैधता की जांच किए बिना अदालतें राहत देने में खुद को लाचार और शर्मसार महसूस करेंगी। सदस्य चिक्कू भाई शाह ने चेतावनी देते कहा था हर सरकार ज्यादा से ज्यादा अधिकार हड़पती रहेगी और ले भी लेगी। नागरिक आज़ादी पर बहुत बड़ा खतरा आएगा।
3. डाॅ0 अम्बेडकर ने बोझिल मन लेकिन साफगोई में कहा था ‘‘वैसे तो न्यायपालिका को अधिकार है कि जांचे कि सरकारों और विधायिकाओं द्वारा बनाए कानून सही हैं या गलत। नागरिक आज़ादी के सिद्धांतों के मुताबिक व्यक्ति की स्वतंत्रता और मूल अधिकारों की जांच करें। सरकारों और विधायिकाओं पर उत्तेजना, दलबंदी और आपसी सिरफुटौवल का असर पड़ सकता है। कानून संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकता है। दोनों ओर संकट है। मैं दलबंदी से विधायिकाओं द्वारा बनाए जा सकने वाले कानूनों की संभावना को नकार नहीं सकता। साथ ही बंद कमरे में बैठे जजों पर भी पूरा विश्वास नहीं कर सकता कि सही फैसला करेंगे या गलत। ऐसी हालत है इधर गिरो तो खाई और उधर गिरो तो कुंआ। मैं खुद कुछ नहीं कहूंगा। सभा पर छोड़ता हूं, जैसा चाहे वैसा फैसला करे।‘‘
4. अनुच्छेद के नुकीलेपन की आंतरिक भाषा तार तार करते डॉ बख्शी टेकचंद ने याद दिलाया यह प्रावधान अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भारत सुरक्षा अधिनियम की नकल है। उसके तहत भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त सैकड़ों व्यक्तियों की आजादी छीनते नजरबंद कर किया गया था। ऐसे ही प्रावधान 1919 में पारित रौलट एक्ट में भी थे। उसके खिलाफ गांधी ने आंदोलन चलाया ही था। नागरिक आज़ादी छीनने की कोशिश करते अधिनियम सरकारें बनाती हैं। भाजपा गलबहियां करती है। हर सरकार का मनुष्य विरोधी आचरण लोकतंत्र देख रहा है। फादर स्टेन स्वामी तो कुरबान हो ही गए। गौतम नवलखा की जान खतरे में बताई जाती है। बाकी भी कहां सुरक्षित हैं।
5 आतंकवाद और नक्सलवाद विरोधी कानूनों से अपराधियों में तो खौफ नहीं बढ़ा। जनता बहुत भयभीत हो गई है। पुलिस की ताकत में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई है। बिना जिम्मेदारी के किसी के साथ छेड़खानी कर लेती है। इरोम शर्मिला के साथ तो कई महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर पुलिस को चुनौती दी थी आओ हमारा रेप करो। इन कानूनों की संवैधानिकता को लेकर थानेदार में कहां समझ हो सकती है? अदालतों की भी हालत खराब है! वे थानेदार की डायरी पढ़कर संविधान की पोथी को हाथ लगाने से डरती हैं कि कहीं करेंट न मार दे।
6. भीमा कोरेगांव के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी के खिलाफ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में याचिका पेश तो की। लेकिन नतीजा टायं टांय फिस्स! वे सलमान खान तो हैं नहीं जो हरीश साल्वे जैसा महंगा वकील चार्टर्ड प्लेन से जमानत करा ही ले। बाबा साहब की उम्मीदों को धता बताती अदालतों के कारण उनका खुद का वंशज आनंद तेल्तुंबडे जेल में सड़ रहा। बाबा साहब और गांधीजी जीवित होते तो भीमा कोरेगांव के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुकदमे को लेकर जो कहते, वह जनता के लिए व्यापक संदेश बन जाता! क्यों नहीं फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर पूरी क्षमता के साथ पब्लिक डोमेन में मुकदमा चलाया जाता? लोग देखेते तो कि क्या मुकदमा है जिसमें पुलिस चालान तक पेश नहीं कर पाती। तब भी महाराष्ट्र सरकार केंद्र सरकार से जुड़कर रहे तो लोकतंत्र की रक्षा कौन करेगा?