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*पाना- खोना, बंधन- मुक्ति, अमृत- ज़हर : क्या है प्रेम?*

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        डॉ. विकास मानव

    प्रेम क्या है : किसी को पाना या खुद को खो देना? एक बंधन या फिर मुक्ति? अमृत या फिर जहर? जीवन या मृत्यु : सबकी अपनी अपनी राय हो सकती हैं. वास्तव में प्रेम क्या है?

   आइए जानते हैं :

मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं मैं तुमसे प्रेम करता हूं आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं वह नहीं कर सकते।

     बहुत सारी अड़चनें हैं लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है।

अगर आप खुद को नहीं मिटाते तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा जो अभी तक आपका था उसे मिटना होगा जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते तो यह प्रेम नहीं है बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।

      जीवन में हमने कई तरह के संबंध बना रखे हैं जैसे पारिवारिक संबंध वैवाहिक संबंध व्यापारिक संबंध सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं। ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेमपूर्वक कर सकते हैं।

     लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं तो इसे खुद को मिटा देन की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम मिटा देने की बात कहते हैं तो हो सकता है यह नकारात्मक लगे।

     जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व अपनी पसंद-नापसंद अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।

जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका आपके महसूस करने का तरीका आपकी पसंद-नापसंद आपका दर्शन आपकी विचारधारा सब कुछ पिघल जाता है। आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे।

     इसे अपने लिए खुद कीजिए क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है। आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं तो आप देखेंगे कि इस ’मैं’ का विनाश अपने आप होता चला जाएगा।

*कुछ मत करो, लेकिन प्रेम कर लो*

     प्रेम का सार सूत्र  है कि जो तुम अपने लिए चाहते हो वही तुम दूसरे के लिए करने लगो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह तुम दूसरे के साथ मत करो।

  प्रेम का अर्थ यह है कि दूसरे को तुम अपने जैसा देखो, आत्मवत। एक व्यक्ति भी तुम्हें अपने जैसा दिखाई पड़ने लगे तो तुम्हारे जीवन में झरोखा खुल गया।फिर यह झरोखा बड़ा होता जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है कि सारे अस्तित्व के साथ तुम ऐसे ही व्यवहार करते हो जैसे तुम अपने साथ करना चाहोगे।

    जब तुम सारे अस्तित्व के साथ ऐसा व्यवहार करते हो जैसे अस्तित्व तुम्हारा ही फैलाव है तो सारा अस्तित्व भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करता है। तुम जो देते हो वही तुम पर लौट आता है। तुम थोड़ा सा प्रेम देते हो, हजार गुना होकर तुम पर बरस जाता है। तुम थोड़ा सा मुस्कुराते हो, सारा जगत तुम्हारे साथ मुस्कुराता है।

कहावत है कि रोओ तो अकेले रोओगे, हंसो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसता है।बड़ी ठीक कहावत है। रोने में कोई साथी नहीं है, क्योंकि अस्तित्व रोना जानता ही नहीं। अस्तित्व केवल उत्सव जानता है। उसका कसूर भी नहीं है।

     रोओ–अकेले रोओगे। हंसो–फूल, पहाड़, पत्थर, चांदत्तारे, सभी तुम्हारे साथ तुम हंसते हुए पाओगे। रोने वाला अकेला रह जाता है। हंसने वाले के लिए सभी साथी हो जाते हैं, सारा अस्तित्व सम्मिलित हो जाता है।

    वास्तविक प्रेम तुम्हें हंसा देगा। प्रेम तुम्हें एक ऐसी मुस्कुराहट देगा जो बनी ही रहती है, जो एक गहरी मिठास की तरह तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल जाती है।

*सेक्सपावर है प्रेम*

प्रेम का जो विकास है, वह काम की शक्ति का ही रूपांतरण है। दूर दूर रहकर जो प्रेम है, वह अलग है, उससे प्रकृति का निर्माण नहीं हो सकता। और संभोग एक प्राकृतिक क्रिया है, बगैर उसके प्रकृति का बने रहना संभव नहीं।

     स्वस्थ संभोग स्वस्थ प्रकृति के जरूरी है। और स्वस्थ संभोग तभी संभव है, जब उसे पाप या जहर न बताया जाए।

      जैसे कोयला रूपांतरित होकर हीरा बन जाता है। हीरे और कोयले में कोई फर्क नहीं है। हीरे में भी वे ही तत्व हैं जो कोयले में हैं। कोयला एक लंबी प्रक्रिया से गुजर कर हीरा बन जाता है। कोयले की शक्ति ही हीरा बनती है। और अगर आप कोयले के दुश्मन हो गए.. तो हीरे के पैदा होने की संभावना भी समाप्त हो गई, क्योंकि कोयला ही हीरा बन सकता था।

      सेक्स की शक्ति ही, काम की शक्ति ही प्रेम बनती है। धीमे-धीमे धरती की गर्मी से तपता रहता है, तब जाकर हीरा बन पाता है। यह भी एक तरह का संभोग ही है।

     ठीक वैसे ही जैसे औरत की गर्मी से आदमी धीर-धीरे तपता रहे तो, उस संभोग की यात्रा से प्रेम निकल सकता है।

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