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झूठे बयानों से संघ-भाजपा नेता कौन सा ‘चरित्र निर्माण’ कर रहे हैं

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शंकर शरण

संघ नेताओं द्वारा गंभीर मुद्दों पर मुल्लों की तरह फतवे देकर मनगढ़ंत बातें कहने की जिद क्या दर्शाती है? यह कैसा आचरण है? यह न हिन्दू आचार है, न हिन्दू ज्ञान परंपरा से जुड़ाव, न जिम्मेदार बौद्धिकता, न देश-हितकारी।….नित झूठे बयानों से ऐसे संघ-भाजपा नेता कौन सा ‘चरित्र निर्माण’ कर रहे हैं, यह सभी के लिए विचारणीय है।

हाल में आर.एस.एस. (संघ) के एक सर्वोच्च नेता ने हिन्दू समाज पर कहा: “हम ने अपने ही साथी मनुष्यों को सामाजिक व्यवस्था में पीछे रखा। हम ने उन की परवाह नहीं की और यह सिलसिला दो हजार साल चलता रहा। उन का जीना पशु समान हो गया। जब तक हम उन्हें समानता प्रदान नहीं करते, तब तक कुछ विशेष उपाय करने होंगे और आरक्षण उन में से एक है।” उन्होंने जातीय सद्भावना हेतु संघ सदस्यों को गोमांस खाने के लिए भी तैयार रहने को कहा। यह बातें संघ नेताओं के विचित्र बयानों के क्रम में ही हैं।

संघ कार्यकर्ता इन्हें जो समझें, पर यह वस्तुत: (१) भाजपा नेताओं की हिन्दू-घातक राजनीति का पुछल्ला बनना है; (२) हिन्दू समाज की पहले से जर्जर, भ्रमित की जा रही चेतना पर एक और प्रहार है। तथा, (३) पर-उपदेश कुशलता, अर्थात दोहरा आचरण है।

संघ नेतृत्व पर यह तीनों आरोप परखे जाने चाहिए। यद्यपि वे प्रायः आधिकारिक वक्तव्य जारी नहीं करते। रास्ता खुला रखते हैं कि मौका बदलते, या संबंधित नेता के हटते ही, ऐसी बातों को ‘निजी राय’ बता कर संघ-भाजपा को निर्दोष कह सकें‌। किन्तु जब तक नेता पद पर, तब तक उस की हर‌ ऊल-जुलूल और हानिकर बातों का भी बचाव करते हैं। (यदि यही अनुशासन है, तो दिमागी गुलामी क्या है? और ऐसी गुलामी देश को क्या देगी?) इसलिए, उक्त वक्तव्यों की परख आवश्यक है।

पहले तो, यदि संघ नेताओं में अपने विचारों पर निष्ठा है, तो उसे क्रियान्वित करके दिखाएं। जब वे हिन्दुओं से कहते हैं कि ‘2000 साल के उत्पीड़न’ की भरपाई, और उत्पीड़ित को सम्मान देने हेतु कथित उत्पीड़ितों के वंशजों को आरक्षण देकर खुद ‘अगले 200 साल’ तक वंचित रहने के लिए तैयार रहें – तो पहले अपने संगठन-पार्टी में यही आरक्षण लागू करें! सो, संघ को अपने दिनेश खटीक, रमेश जिगाजिनागी जैसे व्यक्तियों को संघ प्रमुख, कार्यवाह, पार्टी अध्यक्ष आदि बना कर उदाहरण बनाना चाहिए। पहले घर, फिर बाहर।

वरना, वे दूसरे हिन्दुओं पर आरक्षण थोपने वाले कौन होते हैं? तब तो यह पर-उपदेश कुशलता, पाखंड, और हिन्दुओं को लड़ाकर भाजपा को मोटे वोट दिलाते रहने की लालसा मात्र है। फिर, अगला बिन्दु। यदि गोमांस खाने से हिन्दुओं में जातीय ”समभाव, आपसी विश्वास” बनना है, तो इस का प्रदर्शन भी, संघ मुख्यालय में, सामूहिक गोमांस भक्षण समारोह करके, स्वयं सर्वोच्च संघ नेता करें। अन्यथा, वे किस को ऐसा करने के लिए कह रहे हैं?

यदि संघ-नेता स्वयं ‘गोमांस सहभोज’ नहीं करते, तो सामान्य संघ सदस्य क्यों करेगा? फिर, गैर-संघी गैर-भाजपाई हिन्दू तो नहीं ही करेंगे जिन का ऐसा विचार ही नहीं है। जैसे, लालू, राहुल, उद्धव, आदि। आखिर गहलोत या केजरीवाल ने तो जातीय सम्मान देने-दिलाने के लिए गोमांस खाने-खिलाने की बात नहीं की। तब जिस ने अपील की, पहले उसे गोमांस खाकर उदाहरण प्रस्तुत करना अनिवार्य है! अतः ”गोमांस भक्षण से समरसता” के अपने विचित्र या विकृत विचार को भी संघ नेताओं को स्वयं क्रियान्वित करना चाहिए। अन्यथा, इस बिन्दु पर भी वे कोरी लफ्फाजी से हिन्दुओं को भ्रमित, अपमानित करने के दोषी साबित होंगे।

तीसरा उन का बयान, कि ‘मुसलमानों और हिन्दुओं का डीएनए समान है’। जो ऐसा ही कथन है कि ‘जिन्ना और गाँधी दोनों गुजराती थे’। तो क्या? इस अप्रासंगिक तथ्य से संघ नेता अपना क्या कर्तव्य समझते है? आखिर, संघ नेताओं वाला डीएनए ही पाकिस्तानी नेताओं का भी है। तो, इस से संघ का नीतिगत काम क्या बना? यह उन को दिखाना चाहिए।

चौथे, उन के दावे कि हिन्दू मुसलमानों के बीच ‘पूजा-पद्धति का भेद महत्वहीन है’ की निष्पत्ति क्या है? यह भी संघ नेताओं को कुछ करके दिखाना होगा। क्यों कि मुसलमान तो ठीक इसी भेद को बुनियादी मानते हैं। मूर्ति-पूजा, बहुदेव-पूजा को ‘घृणित’ मान कर ही उन के सारे कायदे, हुक्मनामे, योजनाएं हैं जो सदियों से सक्रिय हैं। इसलिए वे दुनिया भर में मूर्तियों, मंदिरों, चर्चों को अपवित्र करते, तोड़ते, और मस्जिद में बदलते रहे हैं। साथ ही, हिन्दू बौद्ध जैन मंदिर-मठ, सिख गुरूद्वारे, क्रिश्चियन चर्च, यहूदी सिनागॉग में पूजा अराधना करने वालों का जबरन धर्मांतरण या कत्ल, अपमान करते रहे हैं। अभी अफगानिस्तान में गुरुद्वारा खत्म किया। यह सब मुस्लिमों की अपनी वैश्विक गौरवगाथा है।

सो, जब ठीक ‘पूजा-पद्धति का भेद’ ही मुस्लिम पहचान है, तो इसे महत्वहीन कह कर संघ-नेता हिन्दुओं पर दोहरी चोट कर रहे हैं। एक तो, इस्लाम के प्रति हिन्दुओं को भ्रमित कर तबलीगियों का आसान संभावित शिकार बना रहे। दूसरे, संपूर्ण हिन्दू ज्ञान-धर्म परंपरा पर पर्दा डाल रहे हैं।

आखिर, जब से इस्लामी तत्वों से भारत का सामना हुआ, गत हजार वर्षों से किसी हिन्दू मनीषी, आचार्य, या राजा ने भी यह नहीं कहा। गाँधी, नेहरू जैसे मुस्लिम-परस्त नेताओं ने भी नहीं कहा कि हिन्दू धर्म, और मुसलमानी मजहब में अंतर बेमानी है। तब ऐसी ऊटपटाँग कहने वाले संघ-नेताओं को कुछ कर के दिखाना चाहिए कि इस बात से उन का क्या रास्ता बनता है?

अंततः यह भी, कि अपने ऐसे दावों: (क) कुछ हिन्दू जातियाँ दो हजार साल से पशुओं की तरह रहीं, और यह अन्य हिन्दुओं ने किया; (ख) पहले जातियाँ नहीं थी; और (ग) ब्राह्मणों ने जातियाँ गढ़ दीं – इन के लिए संघ-नेता प्रमाण क्या देते हैं?

क्यों कि यह बातें इतिहास की हैं, जिस में निष्कर्ष केवल प्रमाणों के आधार पर होते हैं। न कि मन की तरंग या किसी की थ्योरी पर‌। अतः संघ नेताओं को जिम्मेदारी लेकर वे स्त्रोत, प्रमाण, आदि प्रकाशित करने चाहिए। वरना, यह सफेद झूठ रहेगा, जो केवल चर्च मिशनरियों व इस्लामियों के लिए फायदेमंद है। यानी, हिन्दुओं पर एक और दोहरी चोट!

वे प्रमाण संघ नेताओं को इसलिए भी प्रकाशित करने चाहिए थे, क्यों कि उन‌ के पास किसी भी अन्य भारतीय संगठन से अधिक संख्या में शोध, विचार, शिक्षण संस्थान, शैक्षिक न्यास, पीठ, और थिंक टैंक होने के दावे करते अकादमिक संस्थान हैं। परन्तु जातियों के इतिहास, इस्लामी मतवाद, और हिन्दू धर्म से संबंधित जो दावे संघ नेताओं ने किए हैं, उन में किसी के पक्ष में उन्होंने किसी शोध, प्रमाणिक विवरण, या प्रस्तुति का आधार नहीं दिया। न उन के किसी शोध-संस्थान, थिंक-टैंक, रीसर्च फाउंडेशन, शिक्षा न्यास, आदि ने आज तक एक पर्चा भी प्रकाशित किया है। संघ के ऐसे शोध संस्थान भी जो पचास सालों से अस्तित्व में हैं और भरपूर साधन-संपन्न हैं। यदि उन सब संघ संस्थाओं ने जातियों पर, आरक्षणवाद पर, या इस्लामी मत और हिन्दू धर्म के भेद पर आज तक कुछ प्रस्तुत नहीं किया तो यही अर्थ निकलता है कि या तो संघ-नेताओं को नया इलहाम हुआ है, अथवा वे कोरी लफ्फाजी कर रहे हैं। जिस की चोट सीधे हिन्दू समाज पर पड़ रही है।

कारण जो हो, संघ नेताओं द्वारा गंभीर मुद्दों पर मुल्लों की तरह फतवे देकर मनगढ़ंत बातें कहने की जिद क्या दर्शाती है? यह कैसा आचरण है? यह न हिन्दू आचार है, न हिन्दू ज्ञान परंपरा से जुड़ाव, न जिम्मेदार बौद्धिकता, न देश-हितकारी।

यह तो भाजपा के रोज-रोज बदलते रंग के लिए संघ को घसीटना, तथा संघ के भोले कार्यकर्ताओं को भरमाना है। यानी, उन के साथ भी विश्वासघात। जानते-बूझते झूठी बातें पिलाना।

क्यों कि यही संघ नेता कुछ ही पहले बयान देते थे कि: “पूरा आरक्षण राजनीति और अवसरवादिता से ग्रस्त हो चुका है, अतः आरक्षण मात्र की समीक्षा होनी चाहिए”। अब, यह एकदम उलटे बोल! इस की सफाई संघ नेताओं को देनी चाहिए।

वरना, किसी को भी (संघ-वक्ताओं की ही शैली में) संदेह होगा कि ऐसी बयानबाजियाँ दबाव में की जा रही हैं। किस के दबाव में? भाजपा, या वेटिकन, या कतर, पेट्रोडॉलर के दबाव में? बस यह अटकलें लोग लगाएंगे। क्यों कि शायद ही कोई पुराने संघ कार्यकर्ता उक्त बयानों में एक भी सही मानते होंगे। तब, नित झूठे बयानों से ऐसे संघ-भाजपा नेता कौन सा ‘चरित्र निर्माण’ कर रहे हैं, यह सभी के लिए विचारणीय है।

 

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