कंवल भारती
यह प्रचार तो आरएसएस कर ही रहा है कि डॉ. आंबेडकर हिंदूवादी थे और उनके ऊपर गीता का प्रभाव था। इसका तथ्यात्मक खंडन मैंने अपनी पुस्तक “आंबेडकर को नकारे जाने की साजिश” (1996) में किया था। लेकिन अब कबीर को भी गीता से जोड़ने का प्रयास शुरू कर दिया गया है। अभी हाल में एक किताब आई है– डा. जयपाल सिंह द्वारा संपादित ‘कबीर का युगपथ’। इसमें कबीर पर लिखे गए विभिन्न लेखकों के लेख शामिल हैं। जाहिर है कि जितने दिमाग, उतने विचार; इस आधार पर यह पुस्तक कबीर पर अनेक मतों का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन एक नई बात यह है कि इस किताब में कबीर पर एक परिचर्चा है, जिसमें संपादक ने अपने दस प्रश्नों पर कुछ लेखकों के विचार प्रकाशित किए हैं। इस परिचर्चा में दो प्रश्न (संख्या 5 और 6) ऐसे हैं, जिनके ऊपर संपादक अपनी धारणा पर लेखकों की मुहर लगवाना चाहता है।
इनमें पांचवां प्रश्न है– ‘आपको ऐसा नहीं लगता कि कबीर ने गीता का ही नीतिगत संदेश आम जनमानस को अपनी वाणी के माध्यम से देने का प्रयास किया है?’
और, छठा प्रश्न है– ‘कबीर के आराध्य राम और चिंतन का नाम राम है, लेकिन भक्तिकालीन कवियों में कबीर को तुलसी से बिल्कुल अलग रखा जाता है। आपको ऐसा नहीं लगता कि राम नाम में वे तुलसी के सर्वाधिक निकट हैं?’
इन प्रश्नों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि संपादक जयपाल सिंह ने कबीर का कोई ख़ास अध्ययन नहीं किया है। उन्होंने इस परिचर्चा में पूछे गए प्रश्नों पर चर्चा के लिए चार लेखकों क्रमश: राजेश जोशी, लीलाधर मंडलोई, कर्मेंदु शिशिर और अजय तिवारी को शामिल किया है। इन लेखकों में राजेश जोशी और कर्मेंदु शिशिर ने कबीर पर गीता के प्रभाव को नकारा है, जबकि अजय तिवारी ने स्वीकार किया है, जिसकी उनसे आशा भी थी।
पहले राजेश जोशी के उत्तर को लेते हैं। वह पांचवें प्रश्न के उत्तर में सिर्फ़ इतना कहते हैं– “मुझे नहीं लगता कि कबीर के दर्शन का गीता से कोई सीधा या परोक्ष संबंध बन सकता है।” लेकिन छठे प्रश्न के उत्तर में राजेश जोशी का जवाब है– “कबीर निर्गुण भक्ति से संबंधित हैं। तुलसी सगुण संप्रदाय के कवि हैं। कबीर के राम और तुलसी के राम में फ़र्क है। कबीर के राम गांधी के राम के ज्यादा नज़दीक लगते हैं।”
यहां राजेश जोशी गांधी के संबंध में भ्रम का शिकार हो गए हैं। गांधी अपनी रामधुन में ‘रघुपति राघव राजा राम’ कहते थे। जो राम रघुपति है, राघव है और राजा भी है, वह निर्गुण कैसे हो सकता है? गांधी के राम पूरी तरह सांप्रदायिक हैं, और वह कबीर के राम के नहीं, बल्कि तुलसी के राम के ज्यादा नजदीक हैं।
परिचर्चा के दूसरे लेखक लीलाधर मंडलोई हैं, जिन्होंने कबीर पर गीता के प्रभाव को स्वीकार किया है। उनका उत्तर है– “कबीर ने सारे धर्मों के सारतत्व से अपनी गीता बनाई। अगर उसमें गीता के उपदेश सुनाई पड़ते हैं, तो यह सुखद है।” कहना न होगा कि लीलाधर मंडलोई को यही नहीं पता कि कबीर शास्त्र के ही विरुद्ध थे। यथा– “वेद कुराना गमि नहीं’ या “वेद-कितेब छोड़ दे पांडे, ई सब मन का भरमा।” फिर वह गीता को क्यों महत्व देंगे? दिलचस्प बात यह भी है कि न तो संपादक जयपाल सिंह ने और न लीलाधर मंडलोई ने यह बताने का कष्ट किया कि कबीर की किस वाणी में गीता के उपदेश नज़र आते हैं?
छठे सवाल के क्रम में लीलाधर मंडलोई का जवाब एक हद तक कबीर की वैचारिकी का प्रतिनिधित्व करता है। वह कहते हैं– “तुलसी राम के सगुण उपासक थे और सगुण उपासना के पक्षधर थे। कबीर भी राम-नाम जपते थे, लेकिन वे निर्गुण उपासक थे। उनके राम किसी मूर्ति में क़ैद नहीं है। वह सगुण से बाहर है। सगुण राम की आड़ में आज अयोध्या में साम्प्रदायिक शक्तियों के कर्म देखिए। वहां सत्कर्म का भाव गायब है और कुकर्म का प्रत्यक्षीकरण अधिक है। इसे न राम, न रहीम और न ही तुलसी की स्वीकृति मिलती। कबीर का विरोध तो कल्पनातीत होता। कल्पना करें, यदि निर्गुण राम में हिंदुओं का भरोसा होता, तो यह मंदिर-मस्जिद का फ़िजूल बावेला चल पाता? बिल्कुल नहीं। इसलिए मुझे कबीर के निर्गुण राम मनुष्यता और मर्यादा के सही रूप लगते हैं।”
मंडलोई की बात काफ़ी हद तक सही है, लेकिन राम, रहीम और तुलसी में वह अटक गए हैं। रामायण के अनुसार जब राम अपने जीवन काल में ही ब्राह्मणों के पाखंड के साथ थे, तो आज अगर वह होते, तो अयोध्या में जो पाखंड चल रहा है, उसे स्वीकार ही करते। रहीम भले ही स्वीकृति नहीं देते, पर तुलसी क्यों स्वीकृति नहीं देते? वह तो चाहते ही थे कलयुग में ब्राह्मणवाद कायम हो, और मजबूत हो।
तीसरे प्रतिभागी लेखक कर्मेंदु शिशिर ने गीता वाले प्रश्न का लंबा जवाब दिया है, पर कबीर पर गीता के प्रभाव को उन्होंने भी स्वीकार नहीं किया है। हालांकि उन्होंने कबीर को निर्गुण-सगुण दोनों से परे माना है। उनका जवाब इस प्रकार है– “मुझे तो ऐसा कभी लगा नहीं। गीता के उपदेशों को कबीर से जोड़कर सोचने की बात दिमाग में आई ही नहीं। कबीर एक भिन्न तरह के रिविलियन (विद्रोही) कवि थे। उनके पहले उन-जैसी कोई परंपरा नहीं दिखती। वे निर्गुण-सगुण जैसे विभाजन में भी नहीं अटे। ‘निर्गुन सरगुन ते परे वहां हमारा ध्यान।’ आप देखिए निरगुन के भीतर भी बहुत श्रेणियां थीं। प्रेम, ज्ञान, योग, तप, आप पाएंगे कबीर में किसी का पूर्ण निषेध और समग्र स्वीकार, जैसी बात थी ही नहीं। वे सारी गुफाओं में जाते हैं। कोई इलाका नहीं छोड़ते। कहीं बसते नहीं हैं। बस यह करते हैं कि उसमें से क्या लेना है, वे ले लेते हैं। जो छोड़ना है, छोड़ देते हैं। जहां जो नागवार लगता है, उधार नहीं रखते हैं, बेशक कह देते हैं। बहते नीर की तरह समय-समाज और अनुभव-सृजन के बीच उनमें एक निरंतरता दिखती है। आप गौर कीजिए, वे आंखिन देखी कहते हैं। अनुभव में देखना भी शामिल है। वे ऊपर से रूखे जरूर लगते हैं, लेकिन उनमें जबरदस्त इंद्रियबोध है। वे बहुत ही सेंसुअल हैं। वे रचते नहीं हैं, सहजता से अभिव्यक्त होते चलते हैं। शायद यह भी एक कारण हो कि हमारे समय-समाज में भी वे बिल्कुल अपने लगते हैं, साथ के। मसलन एक सहयात्री की तरह लगते हैं। उनकी बात खट से लगती है और अंदर बैठ जाती है। फिर लगता है, यह तो अपनी ही बात है। मेरा ख़याल है, ऐसी कोई मजबूरी नहीं कि हम कबीर को किसी के साथ रखकर या उनकी बात को किसी पूर्व धर्म-ग्रंथ से जोड़ कर देखें। वे सीधे संवाद के लिए सबसे अधिक जनसुलभ कवि हैं।”
पता नहीं कर्मेंदु शिशिर ने “निरगुन सरगुन से परे वहां हमारा ध्यान” कहां पढ़ लिया? कबीर तो यह कहते हैं–
जब ते आतम तत्त विचारा।
तब निरबैर भया सबहिन ते, काम क्रोध गहि डारा।
सोचि विचारि सबै जग देख्या, निरगुण कोई न बतावै।
निर्गुण सगुण से परे क्या है? इसका जिक्र कर्मेंदु शिशिर ने नहीं किया। कबीर जो आंखिन-देखी कहते हैं, वह निर्गुण में ही संभव है, सगुण में नहीं। सगुण और निर्गुण उसी तरह के दो अलग-अलग मार्ग हैं, जैसे दक्षिणपंथ और वामपंथ, अलौकिक और लौकिक, एवं मिथ्या और यथार्थ। कबीर वामपंथ, लौकिक और भौतिकवादी चिंतक हैं।
लेकिन छठे प्रश्न के उत्तर में कर्मेंदु शिशिर ठीक ही कहते हैं– “कबीर और तुलसी बिल्कुल अलग धाराओं के कवि हैं। तुलसी के राम और कबीर के राम की एकता आप नाम से मत जोड़िए। कबीर जब राम कहते हैं, तो वे वस्तुत: ईश्वर को संबोधित है। इस पर बहुत विद्वानों ने विचार किया है। कबीर ने कभी भी सगुण भक्ति या ईश्वर की बात ही नहीं की है। उनका निर्गुण भी अपनी तरह का है। एक जगह वे कहते हैं, ‘निरगुन सरगुन ते परे, वहां हमारा ध्यान।’ वे अनंत अपार असीम में अंतहीन तक यात्रा के पथिक हैं। तुलसी के राम चित्रवत तय और स्थिर हैं। उनके लिए राम का कोई पर्याय नहीं। वे कृष्ण तक के सामने यही कहते हैं कि ‘तुलसी मस्तक तब नवे, धनुष बान लो हाथ।’ वे रूप और पोशाक तक में समझौता करने को तैयार नहीं। कबीर से उनका गंभीर अलगाव वहां दिखता है, जब वे सामाजिक स्तर पर बात करते हैं। वे वर्णव्यवस्था के प्रबल हिमायती ही नहीं हैं, बल्कि दलितों-पिछड़ों के ज्ञान-क्षेत्र में प्रवेश, उनका बहस-विमर्श में शामिल होना, उनके समाज और सत्ता में बराबरी को ही वे कलियुग कहते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने अपनी कबीर वाली किताब में तुलसीदास के कलियुग-वर्णन की जो व्याख्या और विश्लेषण किया है, उससे उनकी वैचारिक पंगुता का ढंग से अंदाज़ हो जाता है। वे विचारों से ब्राह्मणवाद या वर्णवाद के कट्टर समर्थक दिखते हैं। साहित्य और कवित्व में उनकी असाधारण दक्षता ही उनको बचाए हुए है। वे विश्व-साहित्य के अनुपम कवि तो हैं, लेकिन कबीर अपने अनगढ़पन के बावजूद आज उनसे ज्यादा महत्वपूर्ण और ग्राह्य हैं।”
इस परिचर्चा में अंतिम लेखक प्रतिभागी अजय तिवारी हैं, जो स्वयं को मार्क्सवादी और प्रगतिशील चिंतक के रूप में प्रदर्शित करते हैं। लेकिन उनका कबीर-अध्ययन गीता और तुलसी विषयक प्रश्नों के संदर्भ में ब्राह्मणवादी है। वह कबीर पर गीता के प्रभाव को स्वीकार करते हुए लिखते हैं– “कबीर के संदेश में गीता के अलावा भी बहुत-कुछ है। उनका सिद्धांत और दर्शन अनेक प्रभावों के संश्लिष्ट रूप से बना था। यदि गीता को केवल कर्मयोग मानें, तो कबीर के यहां जिस सहज साधना की अवधारणा है, वह उसके निकट है। कबीर कहते हैं कि उनका चलना ही परिक्रमा है, उनका बोलना ही नाम-स्मरण है, उनका लेटना ही दंडवत है, इत्यादि। लेकिन यह सहजता साधन की चीज है। गीता में कर्म को योग का विषय कहा गया है। योग द्वारा मनुष्य अपनी वृत्तियों को संयमित करता है, मन को एकाग्र करता है। कबीर में यह भावना गीता के अलावा गोरखनाथ के योगमार्ग से भी आई है।”
सवाल है कि गीता को कर्मयोग का ग्रंथ ही क्यों माना जाए? उसमें तो सांख्ययोग और ज्ञानयोग भी है। उसकी चर्चा अजय तिवारी ने क्यों नहीं की, जिसकी बखिया उधेड़ दी है कबीर ने? वर्णव्यवस्था को ईश्वर की बनाई व्यवस्था मानकर उसका समर्थन करना गीता का ज्ञानयोग है। लेकिन कबीर वर्णव्यवस्था का समर्थन नहीं करते। गीता के ज्ञानयोग में सगुण भगवान की महिमा गाई गई है, उसके विराट स्वरूप का वर्णन किया गया है। लेकिन कबीर सगुण ईश्वर का खंडन करते हैं। उनका ईश्वर निर्गुण है, जो निरंजन-निराकार है, और जिसका रूप-रंग, वर्ण, गोत्र, जाति, धाम कुछ भी नहीं है। फिर कबीर पर गीता का प्रभाव कैसे हुआ? माना कि चलना, बैठना, लेटना कर्म है, तो यह गीता का कर्मयोग कैसे हुआ? क्या गीता में यह कहा गया है कि चलने-फिरने, उठने-बैठने और लेटने का ही नाम भक्ति है? फिर, गीता का कर्म सगुण ईश्वर में विश्वास करना और वर्णव्यवस्था को मानना भी तो है। क्या कबीर का इससे कोई संबंध बनता है? यदि नहीं, तो गीता का प्रभाव कबीर पर कैसे हुआ?
आगे इसी संदर्भ में अजय तिवारी कबीर को वेदांती भी बना देते हैं। वह लिखते हैं– “दूसरी बात यह कि कबीर मूलत: वेदांती थे। गीता वेदांत की प्रस्थान-त्रयी का अंग है। प्रस्थान-त्रयी में बादरायण का ब्रह्मसूत्र, महाभारत की गीता और उपनिषद शामिल हैं। लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि कबीर किसी प्रभाव को, किसी संदेश को अनालोचनात्मक ढंग से स्वीकार नहीं करते। कागद लेखी पर वे हमेशा आंखिन-देखी को प्राथमिकता देते हैं। उनमें विभिन्न प्रभाव खोजते समय हमें इस आंखिन-देखी पर, अपने स्वतंत्र विवेक पर, अधिक भरोसा करना चाहिए।”
ब्राह्मणवादी चिंतक अपनी स्थापना किस तरह थोपता है, इसका अनुपम उदाहरण अजय तिवारी हैं। अगर कोई अकल का ही अंधा हो, उसका तो कोई इलाज नहीं। पर, जो अकल वाला है, वह अजय तिवारी के इस वाक्य को पढ़कर कि ‘कबीर किसी प्रभाव को, किसी संदेश को अनालोचनात्मक ढंग से स्वीकार नहीं करते’, कोई भी यही कहेगा कि जब कबीर किसी प्रभाव को बिना आलोचना के स्वीकार ही नहीं करते, तो वह कैसे वेदांती और कैसे गीता से प्रभावित हो गए? साधारण बुद्धि वाला भी यह जानता है कि प्रस्थान-त्रयी (ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषद) ईश्वर अथवा ब्रह्म को सगुण और सत्य तथा जगत को मिथ्या मानता है। लेकिन कबीर इसके एकदम विपरीत हैं। वह सगुण ईश्वर अथवा ब्रह्म को मिथ्या और लोक अर्थात जगत को सत्य मानते हैं। इसीलिए कबीर आंखिन-देखी पर विश्वास करते हैं, जबकि प्रस्थान-त्रयी में आंखिन देखी माया और भ्रम है।
आगे छठे प्रश्न के उत्तर में अजय तिवारी और भी बड़ी वेदांती खिचड़ी पकाते हैं। वह सगुण और निर्गुण दोनों को एक मानते हैं, जैसे उनके गुरू रामविलास शर्मा और रामविलास शर्मा के प्रेरणास्रोत नंबूदरीपाद वेदवाद और मार्क्सवाद को एक मानते थे। वह अपने उत्तर में लिखते हैं– “यह बखेड़ा पंडितों और विद्वानों का खड़ा किया है। यह बखेड़ा सगुण और निर्गुण के आधार पर किया गया है। भक्त कवियों में कबीर और तुलसी सर्वाधिक दार्शनिक विचारों वाले हैं। दार्शनिक स्तर पर सगुण और निर्गुण में दोनों के लिए कोई भेद नहीं है। यह भेद है उपासना के मार्ग को लेकर। ईश्वर की मूर्ति और मंदिर से निकालकर घट-घटवासी बनाना बाह्याडंबर के विरोध का साधन और सभी मनुष्यों की समानता का आधार था। कबीर ने यह किया। सामान्य जन निर्गुण से आकृष्ट न हो सकते थे, उन्हें ब्रह्म के निश्चित स्वरूप का आधार चाहिए था, इसलिए तुलसी ने सगुण भक्ति का सहारा लिया। मंदिरों और पुरोहितों का विरोध उन्होंने भी किया। वशिष्ठ राजगुरु हैं, विश्वामित्र के आगे उनकी महिमा तुलसी ने काफी कम कर दी है। कबीर की तरह तुलसी के लिए सारे संबंधों की कसौटी राम हैं। ये राम कबीर के लिए सगुण भी हैं, निर्गुण भी, राम तुलसी के लिए भी सगुण और निर्गुण दोनों हैं।
कबीर—
सरगुन की सेवा करो, निरगुन को धरो ध्यान।
सरगुन निरगुन से परे तहां हमारा ज्ञान।
और तुलसी–
सगुन अगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।
दोनों में क्या फ़र्क है? वास्तव में दोनों की धारणा थी कि सगुण और निर्गुण दोनों ब्रह्म के स्वरूप हैं। ब्रह्म इन दोनों से मिलकर बना है। इसलिए किसी एक स्वरूप में सीमित नहीं है। वे भक्त थे। ब्रह्म की पूर्णता में विश्वास करते थे। यह पूर्णता सगुण-निर्गुण की एकता में थी। इसलिए उपासना की आवश्यकता के लिए वे किसी एक स्वरूप पर बल देते हैं, लेकिन दार्शनिक स्तर पर ब्रह्म को दोनों के योग से निर्मित पूर्णता के रूप में देखते थे। इस दृष्टि से कबीर और तुलसी सर्वाधिक निकट हैं, यह सही है।”
अजय तिवारी के इस वक्तव्य से पांच बातें गढ़ी गई हैं–
- कबीर भक्त थे।
- सगुण और निर्गुण में दार्शनिक स्तर पर अंतर नहीं है।
- तुलसी का सगुण और कबीर का निर्गुण राम-आधारित है।
- कबीर सगुण की सेवा करने को कहते हैं।
- ब्रह्म की पूर्णता सगुण-निर्गुण की एकता में है।
पहली बात यह कि क्या कबीर भक्त थे? शुरू में अजय तिवारी कबीर को आलोचक कह चुके हैं। एक भक्त कभी आलोचक नहीं हो सकता, और एक आलोचक कभी भक्त नहीं हो सकता। तुलसी बेशक भक्त थे, उन्होंने स्वयं को राम-गुलाम कहा भी है। तुलसी ने कभी राम की आलोचना नहीं की, क्योंकि भक्त और गुलाम आलोचना कर ही नहीं सकता। लेकिन कबीर भक्त नहीं थे। वह कहीं भक्ति नहीं करते हैं, बल्कि भक्ति के ही खिलाफ हैं। भक्ति के किसी भी रूप को उन्होंने नहीं माना। कबीर दार्शनिक थे, चिंतक थे, विचारक थे, कवि थे, मगर भक्त नहीं थे। उन पर भक्त होने का ठप्पा आदिग्रंथ (गुरुग्रंथ साहेब) में लगाया गया था। और वहीं से कबीर-रैदास को भक्त कहने का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन कबीर तप नहीं करते, योग नहीं करते, यज्ञ-हवन नहीं करते, पूजा-पाठ-व्रत-उपासना नहीं करते, नमाज नहीं पढ़ते, किसी धर्मग्रंथ को नहीं मानते। फिर क्या उनको भक्त कहने का मतलब उनकी क्रांति पर पानी फेरना नहीं है?
दूसरी बात, अजय तिवारी का यह कहना कि दार्शनिक स्तर पर सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, झूठ की पराकाष्ठा है। सारा भेद दर्शन का ही है। दार्शनिक स्तर पर सगुण परलोकवाद, स्वर्ग, नर्क, आवागमन, पुनर्जन्म-पूर्वजन्म, नाम, रूप, लीला-धाम, बैकुंठ, मुक्ति और वर्णव्यवस्था का दर्शन है, जो अतार्किक और अवैज्ञानिक पाखंड पर खड़ा हुआ है। सगुण-दर्शन में ब्राह्मण ही सर्वोच्च है, वही ज्ञान और पूजा का अधिकारी है। सगुण-दर्शन में सृष्टि है, सृष्टिकर्ता है और सृष्टि का संहारक है। उसमें अवतारवाद है, ईश्वर मनुष्य और पशु-रूप में पृथ्वी पर अवतार लेता है, और ब्राह्मणों के शत्रुओं का संहार करता है। लेकिन निर्गुण-दर्शन परलोक को नहीं मानता, और एक परलोक को न मानने से ही स्वर्ग-नर्क, मुक्ति, बैकुंठ, आवागमन, अवतारवाद आदि सारे पाखंड का खंडन स्वत: हो जाता है। कबीर ने परलोक को खारिज करके उससे जुड़े सभी पाखंडों की जड़ ही काट दी। सगुण-दर्शन में वर्णव्यवस्था है, जबकि निर्गुण-दर्शन वर्णव्यवस्था का खंडन करता है। वह वर्णहीन, जातिविहीन समाज के निर्माण पर जोर देता है। सगुण-दर्शन ब्राह्मण को गुरू मानता है, तुलसी भी ब्राह्मण को गुरू और पूज्य मानते हैं, लेकिन कबीर ब्राह्मण को गुरू के पद से ही खारिज कर देते हैं। कबीर के निर्गुण दर्शन में ब्राह्मण, क़ाज़ी, मुल्ला, पंडित खलनायक के रूप में आते हैं। दार्शनिक स्तर पर सगुण और निर्गुण में यह अंतर है।
तीसरी बात, तुलसी का सगुण राम-आधारित है, इसमें संदेह नहीं, लेकिन कबीर का सगुण राम-आधारित नहीं है। कबीर जब राम की बात करते हैं, तो वह ईश्वर की बात करते हैं, किसी देवता या राजा की नहीं। वह अपने निरंजन ईश्वर को और भी बहुत-से नामों से पुकारते हैं, जैसे हरि, कृष्ण, अल्लाह, रब, रहीम, रहमान, करीम इत्यादि। कबीर और तुलसी के राम एक नहीं हैं, अलग-अलग हैं। तुलसी के राम सांप्रदायिक हैं, वह विष्णु के अवतार, दशरथ के पुत्र, सीता के पति और ब्राह्मणों के सेवक राम हैं। लेकिन कबीर के राम दशरथ-पुत्र राम नहीं हैं। और न ही देवकी-नंदन कृष्ण उनके कृष्ण हैं। यथा–
ना दसरथ घरि औतरि आवा।
ना लंका का राव सतावा।
देवकी कूख न औतरि आया।
न जसवै ले गोद खिलाया।
ना वो ग्वालन के संग फिरिया।
गोबर्धन ले न कर धरिया।
यह है कबीर के निर्गुण राम और तुलसी के सगुण राम में अंतर। कबीर का राम निरंजन है, वह तुलसी का अंजन राम नहीं है। कबीर की दृष्टि में उत्पत्ति, ब्रह्मा, वेद, कतेब, दान-पुन्य, तप, तीर्थ सब अंजन हैं। (देखिए कबीर ग्रंथावली, पद 336)
चौथी बात, कबीर ने कहीं यह नहीं कहा है कि सगुण की सेवा करो। वह यह कह ही नहीं सकते। क्योंकि उनके ऐसा कहते ही उनका सारा निर्गुण-दर्शन केवल महत्वहीन ही नहीं हो जाएगा, बल्कि उसकी मृत्यु ही हो जाएगी। “कहै कबीर कोई बिरला जागे, अंजन छोड़ निरंजन लागे।” कबीर कह रहे हैं कोई विरला ही होता है, जिसमें जागरण पैदा होता है, और वह सगुण छोड़कर निर्गुण से ध्यान लगाता है।
इसमें संदेह नहीं कि कबीर की वाणी में ब्राह्मणों ने बहुत ज्यादा घालमेल किया है। जो बात कबीर कह ही नहीं सकते, वह भी उनके मुख से कहलवा दी गई है। और यह सारी कारस्तानी सिर्फ़ कबीर को वैष्णव-रंग में रंगने के लिए की गई। इसलिए अगर कबीर के किसी पाठ में इस तरह का पद है भी, जिसे अजय तिवारी ने उद्धृत किया है, तो वह सौ-प्रतिशत प्रक्षिप्त है। कबीर वाणी को परखने की एक निर्गुण कसौटी है, और वह है, उनका भौतिकवादी चिंतन, जो परलोक और शास्त्र को नकारता है।
पांचवीं बात, ब्रह्म की पूर्णता सगुण और निर्गुण की एकता में हो ही नहीं सकती। क्योंकि वर्ण-अवर्ण, अंजन-निरंजन और मिथ्या-यथार्थ की एकता नहीं हो सकती। ब्रह्म ब्राह्मण के बिना नहीं चल सकता, और ब्राह्मण के ब्रह्म की सारी जान वर्णव्यवस्था में है। सगुण और निर्गुण दो विपरीत धारणाओं और मान्यताओं वाली दर्शन-धाराएं हैं। इनकी एकता का मतलब है, रेल की दो समानांतर पटरियों का एक साथ मिलना, जो असंभव है। यह भी उल्लेखनीय है कि सगुणवाद ब्राह्मणवाद का ही एक रूप है, और यह शासक वर्ग की विचारधारा है, जबकि निर्गुणवाद शासित वर्ग की विचारधारा है। शासक वर्ग निर्गुणधारा को डराकर, धमकाकर, प्रताड़ित और आतंकित करके उससे सगुण का समर्थन तो करा सकता है, जैसा कि आज आरएसएस और भाजपा सरकार ने विरोधियों को आतंकित करके अपना समर्थन कराने के लिए मजबूर कर दिया है, पर वह उसके अस्तित्व को नहीं मिटा सकता।