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*चरमसुख की प्राप्ति या सेक्स टेररिस्म ?*

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     पुष्पा गुप्ता 

    औरत अगर पुरुष से काम सुख की बात करे या अपने ही पति की तरफ इस इच्छा पूर्ति के लिए कदम बढ़ाए तो चरित्र तक को उधेड़ने की बात उठ जाती है। परन्तु पुरुष पर यही प्रश्नचिह्न क्यों नहीं?

     वैसे तो मर्द को दर्द नहीं होता!  परन्तु अगर औरत ‘ना’ कर दे तो मर्द को दर्द क्यों होता है? वो इसे इज्जत का मुद्दा क्यों बना लेता है? क्यों औरत या पत्नी की सब अच्छाइयाँ, गुण इस एक,  ‘ना’ के आगे धूमिल हो जाती हैं? क्या कह दिया, अगर ‘ना’ कह दी?

      उसकी शारीरिक, मानसिक स्थिति को बांटने का यत्न करते तो शायद मसला मक्खन की तरह पिघल गया होता! उसकी पसंद-नापसंद की सुनी या समझी होती, तो शायद रातें अकेली न गुजरतीं। समर्पण एक का क्यों?,दोनों का पूरा होना चाहिए।

एक दिमाग की अकड़ सारे मामले को पूरी तरह से स्थिर कर देती है। मन और तन को अलग समझने वाले उसी पुरूषवादी दिमाग को यही छोटी सी बात समझ नहीं आती या वो समझना नहीं चाहता।

    वही पितृसत्ता का दंभ, और इस दंभ के कारण संबंधित औरत के लिए फिर काम सुख, सुख नहीं अपितु सेक्स टेर्ररिस्म बन जाता है।

     खुल के बोलना उसे आता नहीं और बोल भी दे तो क्या? उस पर दिन के उजाले में कटाक्ष किए जाएंगे, मजाक उड़ाया जाएगा। तो वो ‘शयने’षु रंभा’ कैसे बनेगी? रंभा बनने के लिए, अर्धांगनी बनने के लिए, उसे कमरे से बाहर और कमरे में भी आजादी देनी पड़ेगी। यह आजादी देकर तो देखें।

मेरी औरतों से भी गुजारिश है, जब अपने पार्टनर से सेक्स की बात करें,  तो अगर आपका मन माने तो खुल कर सेक्स करें। फेक संतुष्टि न जता कर, अपनी संतुष्टि का भी उतना ही ध्यान रखें जितना कि आप उनकी संतुष्टि का रखती हैं।

    आनंद दें भी और आनंद उठाएं भी। कोशिश तो करें, उनको और आपको भी आदत पड़ जाएगी।

     अंतरंग पलों की सुखद अनुभूति, आदमी की जुबान अवश्य बंद करेगी। और पुरानी बातों से निकलें कि मर्द को खुश करने का राह उसके पेट से जाता है अपितु पेट नहीं, बस कुछ कदम और! उनकी भी मानें, और अपनी भी मनवाएं। सुंदर, सुखद दिन-रात का पर्व मनाएं।

      सेक्सोलोजिस्ट की मानें तो काम सुख या चरम सुख की प्राप्ति की जितनी कामना पुरुष को होती है, उतनी ही औरतों को भी होती है। बल्कि कभी-कभी पुरुष से भी अधिक।

     काम संतुष्टि के केवल मर्द ही अधिकारी नहीं, औरतें भी अधिकारी हैं। बस उसकी बात करने में वे मुखर नहीं हो पाती जिसके कारण पर हम चर्चा हम कर चुके हैं।

कोई कार्य करने से पहले पृष्ठभूमि तो बनानी पड़ती है ये सब एक कोमल, अपनेपन के या ‘मन से मन के स्पर्श’ से संभव है। पर ‘तन से तन का स्पर्श’ इन सबसे अछूता रह जाता है।

     हर स्त्री अलग है, उसके तन-मन की विशेषताएँ विभिन्न होती हैं। किसी स्त्री में काम का स्फुरण किस अंग को छूने, से होगा वो हर औरत में विभिन्न है। पुरुष मीडिया जो तथ्य  परोसती है या वो जो सुनता है उसे ही अपनी पत्नी या प्रेमिका पर अपनाना शुरू कर देता है।

     परन्तु जो स्त्री घर में उसकी है, उसको अपनी कोमल उंगलियों के स्पर्श से, कोमल भावों से भर, क्यों नहीं उसे दो मिनट लगा कर समझने का यत्न करता? क्यों नहीं वह उसे आत्मसात करता!

    अरे! समय ही नहीं है। इसके लिए दो घंटे किताबों या इंटरनेट में खप जाएगा, पर दो मिनट अपनी अर्धांगनी को नहीं देगा।

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