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मैं सेक्स चिंतक-अन्वेषक नहीं हूँ!

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      डॉ. विकास मानव

  “क्या आप सेक्स रिसर्चर भी हैं? क्या आप बाकी सब्जेक्ट के साथ हमेशा सेक्स के बारे भी सोचते हैं? आपकी कई पोस्ट ऐसे शोध की झलक क्यों देती हैं?”

    ऐसी बातें पूछी जाती रहती हैं.

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     मुझे अब किसी रिसर्च की जरूरत नहीं है. जिंदगी का गोल्डमेडल मिलने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रह जाता. शिक्षा-सत्ता-व्यवस्था जिन्हें मेडल देती है, जिंदगी उन्हें कोई मेडल नहीं देती. जिंदगी के सफ़र में वे फिसड्डी रह जाते हैं. जिंदगी के धरातल पर वे बुद्दू ही सावित होते हैं, बुद्ध नहीं.

    मेरी इस बात के अगेन्स्ट एक भी उदाहरण आप इस पृथ्वी के अब तक इतिहास से नहीं दे सकते. मेरी बात के समर्थक उदाहरण इतिहास में भरे पडे हैं.

   जहाँ तक सेक्स की बात है, सेक्स का उत्तुंग शिखर जो भी दे सकता है, वह सब है मेरे पास. अब सोचने-खोजने का नहीं, बताने-देने का काम अहम है और वह कर रहा हूँ.

       सेक्स के बारे में कामकृत्य के बारे में मुझे सोचना नहीं पड़ता है. चौबीस घंटे में कभी कभी एक-दो बार विचार आते हैं पल दो पल के लिए, और फिर बिदा हो जाते हैं.

   बतौर साधना बेहद अच्छी तरह से काम सम्बन्धों को सभी तलों पर मैं अनुभव कर चुका हूँ, अनगिनत को अनुभव दे चुका हूँ और दे भी रहा हूँ.  शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और भावात्मक सम्बन्धों के दुख: सुख और पीड़ाएँ भी मैंने मैक्सिमम भोग ली है. इसलिए अब इसके बारे में भी सोचना व्यर्थ हो गया है. अब सिर्फ परम-आनंद है.

     ऐसा सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता है. यह सच भी मुझे मालूम है. सभी युवक युवतियों के लिए यह एक तरह की परेशानी और तनाव की स्थिति होती है.  उनके मन में दिन रात सुबह शाम इसी सेक्स से कामवासना से सम्बन्धित विचार चलते रहते हैं. चाहे वे स्कूल कालिज में अध्ययन कर रहे हों या कुछ और काम में लगे हों बाज़ार से गुज़रते वक़्त मन के शरीर के भीतर इस सुख को भोगने की तरंग उठती रहती है.

   रात नींद में भी परेशानी होती है ऐसी स्थिति में परिवार के साथ रहना जहाँ प्रायवेसी उपलब्ध न हो वहाँ बड़ी मुश्किल होती है और इन्हें बहुत सी जगह छुप छुप कर स्वयं को हस्त मैथुन द्वारा ऊर्जा का स्खलन कर के इस तनाव से खुद को हल्का करना पड़ता है.

    यही सब कुछ चलता रहता है फ़िल्में देख कर भी रोमांचित हो उठते हैं. आजकल तो बहुत अधिक सामग्री मोबाइल पर उपलब्ध है. हर जेब में पोर्न है. इनसे मानसिक फेंटेसी पैदा कर सपनों की दुनिया में जाकर व्यक्ति खुद को भुलाने, नष्ट करने में कामयाब होता रहता है.

  भूख लगी हो और भोजन उपलब्ध नहीं हो तो दिन भर सुबह शाम तरह तरह के भोजन की पकवानों की पकौड़े समोसे और मिठाइयों के विचार मन में चलते ही रहते हैं.  शरीर भूखा है केवल भोजन ही उसकी प्राथमिक आवश्यकता है. उसे जब तक भोजन नहीं मिलेगा ये विचार उसका पीछा छोड़ने वाले नही हैं.

    दिन में अगर खाना नहीं मिला तो रात नींद भी मुश्किल से आयेगी और नींद में भी भोजन के सपने चलते रहेंगे.  जिसे भूख लगने के समय से पहले ही नाश्ता और दोपहर का भोजन शाम का डिनर बिना माँगे हमेशा मिलता रहता है और हमेशा जेब में रुपये भी होते हों तो वह बाज़ार में भी शौक से जब जी चाहे कुछ भी खाता पीता रहता है.

   ऐसे व्यक्ति को भोजन के विचार बहुत कम या ना के बराबर ही आते हैं और अनेक बार तो उसे भोजन करने की कुछ खाने पीने की इच्छा भी नहीं होती टेबल पर भोजन रखा है और उसको भूख ही नहीं है.

     कामवासना की भूख या सेक्सुअल सुख भोगने में भी कुछ इसी तरह के अनुभवों से व्यक्ति गुज़रता है.  प्रत्येक व्यक्ति के बचपन में ही यह कामऊर्जा करीब आठ दस वर्ष की उम्र में जब युवक युवतियों में जगने लगती है तब उन्हें अगर इसके बारे में पूरी जानकारी दी जाये और बच्चों को अपनी पसंद के दूसरे युवक युवतियों से मिलने जुलने में कोई बाधा या रुकावट नहीं डाली जाये तो ऐसे बच्चों के मन में कामवासना के सेक्सुअलिटी के विचार बहुत ज़्यादा नहीं आयेंगे.

   जब भी उनके शरीर और मन की भावनाओं में इस ऊर्जा की तरंग उठेगी और उन्हें एक दूसरे को आलिंगन या चुंबन करने की पूरी स्वतंत्रता होगी. तो वे इस शारिरिक और मानसिक फैंटेसी के तनाव से परेशान नहीं होंगे. यह मुक्ति का एहसास उनकी काम ऊर्जा को सृजनातमक भी बना सकता है.

     जिस समाज में छोटे लड़के लड़कियों को अलग अलग दूर दूर रखा जाता है उन्हें स्कूल में घरों में साथ साथ पढ़ने खेलने कूदने और एक दूसरे से मिलने नहीं दिया जाता उस समाज युवक युवतियों में ही नहीं बड़े बूढों के मन भी सेक्सुअलिटी कामुकता एक तरह की बीमारी की तरह चौबीस घंटे मन में घूमती रहती है. वे फिर चाहे मंदिर मसजिद गुरुद्वारों में चर्चों में ही क्यों न जाकर बैठे ऊपर ऊपर से कितने ही सज्जन पुरुष नैतिक बनने का दिखावा करें इससे मन के जगत में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.

  आज भी हमारे समाज में, खासकर गाँवों में बसते भारत में शादी विवाह के पहले बहुत कम युवक युवतियों को सेक्सुअल सम्बन्ध से गुजरने की सुविधाएँ मिलती है. शादी विवाह के बाद जब एक सम्बन्ध से अपने पति या पत्नि से व्यक्ति ऊबने लगता है तो फिर मन ही मन में यह मल्टीपल बहुत सी स्त्रियों और पुरुषों के साथ शारिरिक सम्बन्ध बनाने की फेंटेसी या सपना मन में चलने लगता है.

   कुछ लोग चोरी चुपके पास पड़ौस में इसके लिए कोशिश करते हैं. कुछ लोग ऐसे सम्बन्धों में फँस कर उसके सुख दुख भी भोग लेते हैं. परिणामस्वरूप उनके अपने पति पत्नि के सम्बन्धों में दरार पड़ जाती है. इस कारण वे एक दूसरे को सताने लगते हैं और लड़ते झगड़ते हुए ही कभी बच्चों के कारण या कभी मकान माता पिता परिवार के कारण तलाक़ नहीं लेते और एक तरह से सभ्य होने का दिखावा करते हुए सारी उम्र गुज़ार देते हैं.

   जो तलाक़ कर के दूसरा प्रेम विवाह कर लेते हैं कुछ समय बाद अधिकतर वही कहानी फिर से दोहराते हुए बस आपसी आर्थिक समझौते के कारण एक दूसरे के सहारे टिके रहते हैं. इसीलिए सभी देशों में विशेषकर पुरुषों के लिए हर एक शहर में वैश्यालय बनाये जाते रहे हैं.

   इस विषय पर जो रिसर्च हुई है वह बहुत हैरान करने वाली है कि बाज़ार की वैश्याओं के पास शारिरिक सम्बन्ध बनाने के लिए आधे ये ज़्यादा पुरुष शादी शुदा होते हैं जिनके घर में उनकी पत्नियाँ है.

   इसका कारण है कि अरेंज मेरेज में या जिस शादी विवाह में लोग धन दौलत जाति भौतिक सुख सुविधाओं को देखकर दो अजनबी युवक युवतियों को शादी के नाम पर परिवार के या ख़ानदान और अपनी जाति या धर्म के नाम पर एक साथ रहने के लिए बाध्य कर देते हैं उनका मिलन केवल शारिरिक तल से ही शुरू होता है.

    वे एक दूसरे के शरीर के भोगने को ही प्रेम या सुख समझ लेते हैं और इसके पीछे हजारों लाखों रुपये ख़र्च कर के जो बैंड बाजे बजा बजा कर दो तीन सप्ताह शोरगुल किया जाता है मिठाइयों की भोजन की रस्म और ढेर सारे रंगीन वस्त्रों के साथ घोड़ी की सवारी और बैंड बाजों से सजी दोस्तों और रिश्तेदारों का बारात मिल जुल कर एक तरह का सम्मोहन पैदा कर देते हैं. युवक युवतियों के मन में कि यह कोई बहुत बड़ी पवित्र विशेष घटना हमारे जीवन में घट रही है कि हम प्रणय बंधन में बँधने जा रहे हैं और ऊपर से इस बँधन को धार्मिक कृत्य का आभास दिलवाने के लिए पंडित पुरोहित यज्ञ हवन सात फेरे इस तरह के नाटक का आयोजन बड़ी कुशलता से किया जाता है.

   यही सब हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई मिलकर अपने अपने ढंग से कलमा पढ़वा कर दोनों भोले भाले बच्चों को यक़ीन दिलाने का काम करते हैं. ऊपर से अब तो हनिमून की प्रथा बहुत जरूरी हो गई है. कामवासना के शारिरिक सेक्सुअल सम्बन्धों को कितना महिमा मंडित किया जाता है ताकि नये दम्पति को भरोसा आ जाये कि अब जीवनभर का या जनम जनम का हमारा साथ है और हमें यह पूरी ईमानदारी से निभाना है.

   यह सामाजिक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है जिसमें प्रेम की भावनाओं की इश्क़ के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं रखी गई है. इन दो अजनबियों को साथ रहते रहते ऐसा भ्रम पैदा हो जाता है कि ये सच में ही एक दूसरे से प्रेम करते हैं. यह प्रेम बस एक आदत का हिस्सा है और सुविधा पूर्ण है. समाज इसे ही स्वीकृति देता है.

    याद रहे, प्रेम और तृप्ति का सब्जेक्ट समाज के लाइसेंस का मोहताज नहीं होता. यह लइसेंस सिर्फ सेक्स का लाइसेंस होता है. जबरदस्ती सेक्स का यानी बलात्कारी सेक्स का भी.

    इस्लाम के मानने वाले तो कम से कम चार और उससे भी अधिक शादियाँ करते हैं. चाहे वो अमीर न हों गरीब रोहिंग्या हों : चार पाँच शादी कर के बीस बच्चे पैदा करने को ही वे अपना मज़हबी कर्तव्य समझते हैं. मुस्लिमों द्वारा हर एक देश में चाहे वह गरीब हो अमीर हो पढ़ा लिखा हो अनपढ़ हो सिर्फ़ एक बात उनके अचेतन मन में खूब ठूँस ठूँस कर भीतर तक भर दी जाती है कि बच्चे तो अल्लाह देता है और हमें ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को पैदा कर के पूरी ज़मीन पर इस्लाम को फैलाना है ताकि दूसरी कौम के लोग हमसे मुक़ाबला नहीं कर सकें.

    हम लोकतांत्रिक समाज में वोट के बल पर हमेशा जीत सकते हैं. बाद में जब हमारी जनसंख्या दूसरी कौम से ज़्यादा होगी तो हम गृहयुद्ध कर के उनका क़त्लेआम कर देंगे. उनकी स्त्रियों को उनकी दौलत ज़मीन जायदाद को आसानी से लूट कर उन्हें ज़बरदस्ती मुस्लिम बना सकते हैं. या उन्हें क़त्ल कर के पुण्य का सवाब का काम कर के जन्नत में आला मुक़ाम पा सकते हैं.

   इस तरह की तालीम शिक्षा सभी मदरसों में बच्चों को दी जा रही है. इसके पीछे पूरा षड़यंत्र है इस्लाम को पूरी पृथ्वी पर फैलाने का है. मैंने यूट्यूब पर देखा है एक अरबी लंगड़े आदमी ने अठारह शादी की है और उनसे चौरासी बच्चों को पैदा कर के वह बहुत खुश है उसे अपने सब बच्चों के नाम भी याद नहीं है.

    एक अंग्रेज़ पत्रकार ने उसका इंटरव्यू लिया है और वो आदमी उस अंग्रेज़ से पूछता है तुम्हारे पास कितनी बीबीयाँ है तो वह अंग्रेज़ कहता है कि एक है तो वह अरब उसे देखकर खूब हँसता है कि बेचारे के पास सिर्फ़ एक ही औरत है ये भी कोई मर्द है?

   यह एक तरह का क़ौमी सामूहिक मन है इसकी प्रोग्रामिंग बचपन में ही इनके दिमाग़ में डाल दी जाती है. इसी तरह हिन्दुओं को भी कुछ संगठन सलाह देते हैं की औरत को बच्चे पैदा करने की मशीन बनाओ. इसलिए भारत की स्थिति बहुत चिंताजनक है.

     लोग सोये हुए हैं. राशन, आलू प्याज और पेट्रोल के भावताव के चक्कर में फँसकर देश के ग़द्दारों को ही नेता बना लेते हैं. उनका न बेहतर एजुकेशन मुद्दा है, न बेहतर कॅरियर मुद्दा है, न वास्तविक या टिकाऊ प्रगति कोई मुद्दा है. बस राम और रोटी तक ही आम अवाम का चिंतन है.

   उनके पास मोदीजी जैसों को समझने के लिए थोड़ी-सी भी अकल और धैर्य नहीं है. सब कुछ मुफ़्त में मिल जाये : इस लोभ लालच में वे अपने को, अपने परिवार को तथा देश को भी गुलामी की तरफ घसीटने में लगे हुए हैं.

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