(अपने को न सही, अपने तन को ही जान लो)
अनामिका, प्रयागराज
अपनी अंगुलियों से नापने पर 96 अंगुल लम्बे इस मनुष्य−शरीर में जो कुछ है, वह एक बढ़कर एक आश्चर्यजनक एवं रहस्यमय है।
हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है उसके प्रत्येक अंग-अवयव या कलपुर्जे कितनी विशिष्टतायें अपने अन्दर धारण किये हुए है, इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। यद्यपि हम बाहर की छोटी-मोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्याँकन करते हैं, पर अपनी ओर, अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर कभी ध्यान तक नहीं देते।
यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं।
विशिष्टता हमारी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा तथा शरीर की सूक्ष्म एवं कारण सत्ता को जिसमें पंचकोश, पाँच प्राण, कुण्डलिनी महाशक्ति, षट्चक्र, उपत्यिकाएँ आदि सम्मिलित हैं, की गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र स्थूलकाय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या-मनुष्येत्तर प्राणि शरीरों में भी वे विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंक दिया है।
शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यदि हम कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आँखें उघाड़ कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य−शरीर के निर्माण में स्रष्टा ने जो बुद्धि, कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया।
मनुष्य सृष्टि का सबसे विलक्षण उत्पादन है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह सर्व क्षमता संपन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग, यंत्र एवं वाहन है। यह जिन कोषों से बनता है, उसमें चेतन परमाणु ही नहीं होते, वरन् दृश्य जगत में दिखाई देने वाली प्रकृति का भी उसमें योगदान है।
इससे मनुष्य−शरीर की क्षमता और मूल्य और भी बढ़ जाता है। ठोस द्रव और गैस जल, आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन सिल्वर, सोना, लोहा, फास्फोरस आदि जो कुछ भी तत्व पृथ्वी में हैं और जो कुछ पृथ्वी में नहीं हैं, अन्य ग्रह नक्षत्रों में हैं, वह सब भी स्थूल और सूक्ष्म रूप में शरीर में है।
जिस तरह वृक्ष में कहीं तने, कहीं पत्ते, कहीं फल एक व्यापक विस्तार में होते हैं,शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार विभिन्न लोक और लोकों की शक्तियां विद्यमान देखकर ही शास्त्रकार ने कहा था :
’यत्ब्रह्माण्डेतत्पिंडे.’ अर्थात ब्रह्माण्ड की संपूर्ण शक्तियां मनुष्य−शरीर में विद्यमान हैं।
सूर्य चन्द्रमा, बुद्ध, बृहस्पति, उत्तरायण, दक्षिणायन मार्ग, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण आदि सब शरीर में हैं। यह समूचा विराट् जगत अपनी इसी काया के भीतर समाया हुआ है।
आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषताएं और सामर्थ्य प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं, वह सृष्टि के किसी भी प्राणी-शरीर को उपलब्ध नहीं।
गर्भोपनिषद् के अनुसार मानवी काया में 180 संधियाँ, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, और 700 शिरायें हैं। 500 मज्जायें, 306 हड्डियाँ, साढ़े चार करोड़ रोएं, 8 पल हृदय, 12 पल जिह्वा, एक प्रस्थ पित्त, एक आढ़क कफ, एक कुड़वशुक्र, दो प्रस्थ मेद हैं। इसके अतिरिक्त आहार ग्रहण करने व मल मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यंत्र इस शरीर में लगे हैं, वह अन्य किसी भी शरीर में नहीं है।
स्थूलशरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले त्वचा नजर आती है। शरीरशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक वयस्क व्यक्ति के त्वचा का भार लगभग 9 पौण्ड होता है जो कि प्रायः मस्तिष्क से तीन गुना अधिक है। यह त्वचा 18 वर्ग फुट से भी अधिक जगह घेरे रहती है। मोटे तौर से देखने पर वह ऐसी लगती है मानों शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका जो, परन्तु बारीकी से देखने पर पता चलता है कि उसमें भी एक पूरा सुविस्तृत कारखाना चल रहा है।
शरीर पर इसका क्षेत्रफल लगभग 250 फुट होता है। सबसे पतली वह पलकों पर होती है- .5 मिलीमीटर। पैर के तलुवों में सबसे मोटी है- 6 मिलीमीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से लेकर 300 मिलीमीटर तक होती है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा रहता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा होता है।
इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेगी। यह रक्तवाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मियों में फैलती रहती है ताकि शारीरिक तापमान का संतुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 3 लाख स्वेद ग्रंथियाँ और अगणित छोटे-छोटे बारीक छिद्र होते हैं।
इन रोमकूपों से लगभग एक पौण्ड पसीना प्रति दिन बाहर निकलता रहता है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को यदि एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे।
त्वचा से ‘सीवम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है। यह सुरक्षा और सौंदर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकायें ‘मिलेनिन’ नामक रसायन उत्पन्न करती है। यही चमड़ी को गोरे, काले भूरे आदि रंगों से रंगता रहता है। त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन मोटे विभाग किये जा सकते हैं- ऊपरी त्वचा, भीतरी त्वचा तथा सब क्युटेनियम टिष्यू। नीचे वाली परत में रक्त वाहिनियाँ, तंत्रिकाएँ एवं वसा के कण होते हैं।
इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियाँ लटकने लगती हैं।
भीतरी त्वचा पर में तंत्रिकाएँ, रक्तवाहनियां रोमकूप, स्वेद ग्रंथियाँ तथा तेल ग्रंथियाँ होती हैं। इन तंत्रिकाओं को एक प्रकार से संवेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं और वहाँ के निर्देश- संदेशों को अवयवों तक पहुँचाते हैं।
त्वचा कभी भी झूठ नहीं बोलती। झूठ पकड़ने की मशीन-’लाय डिटेक्टर या पोली ग्राफ मशीन’ इस सिद्धान्त पर कार्य करती है कि दुराव-छिपाव से उत्पन्न हार्मोनिक परिवर्तनों के फलस्वरूप त्वचा के वैद्युतीय स्पंदन एवं रग में जो परिवर्तन या तनाव उत्पन्न होता है, वह सारे रहस्यों को उजागर कर देता है।
साँप की केंचुली सबने देखी है। जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी त्वचा हर-चौथे पाँचवें दिन बदल देते हैं। होता यह है कि हमारी शारीरिक कोशिकायें करोड़ों की संख्या में प्रति मिनट के हिसाब से मरती रहती हैं और नयी कोशिकायें पैदा होती रहती हैं और इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है।
यह क्रम बहुत हलका और धीमा होने से हमें दिखाई नहीं पड़ता। इस तरह जिन्दगी भर में हमें हजारों बार अपनी चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल आँतरिक अवयवों का भी है। किसी अवयव का कायाकल्प जल्दी-जल्दी होता है तो किसी का देर में धीमे-धीमे।
यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशिकाओं के अनुरूप ही होता है, अतः अंतर न पड़ने से यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नयी स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।
त्वचा के भीतर प्रवेश करें तो मांसपेशियों का सुदृढ़ ढांचा खड़ा मिलता है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना डुलना, मुड़ना, चलना, फिरना संभव हो रहा है।शरीर की सुन्दरता, सुदृढ़ता और सुडौलता बहुत करके मांसपेशियों की संतुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही मोटे और पतले आदमियों की पहचान होती है।
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में 600 से अधिक मांसपेशियां होती हैं और उनमें से प्रत्येक के अपने विशिष्ट कार्य होते हैं। इनमें से कितनी ही अविराम गति से जीवन पर्यंत तक अपने कार्य में जुटी रहती हैं, यहाँ तक कि सोते समय भी, जैसे कि हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना-फैलना, रक्त संचार, आहार का पचना आदि की क्रियायें अनवरत रूप से चलती रहती हैं।
30 माँस पेशियां ऐसी होती हैं जो खोपड़ी की हड्डियों से जुड़ी होती है और चेहरे भाव परिवर्तन में सहायता करती हैं। शैशव अवस्था में प्रथम तीन वर्ष तक मांसपेशियों का विकास हड्डियों से भी अधिक दो गुनी तीव्र गति से होता है इसके बाद विकास की गति कुछ धीमी पड़ जाती है जब शरीर में अचानक परिवर्तन उभरते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
संरचना में प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी होती है। वे बाल से भी पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख अधिक भारी वजन उठा सके।
इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें तो उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहाँ तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़-काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत हैं।
प्रत्येक मनुष्य का शरीर असंख्य बालों से (लगभग साढ़े चार करोड़) ढका होता है, यद्यपि वे सिर के बालों की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं। सिर में औसतन 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल त्वचा से एक नन्हें गढ्ढे से निकला है जिसे रोमकूप कहते हैं। यहीं से बालों को पोषण होता है। बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है, इसके बाद वह घटती जाती है।
जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। प्रत्येक सामान्य बाल की जीवन-अवधि लगभग 3 वर्ष होती है, जब कि आँख की बरोनियों की प्रायः 150 दिन ही होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाते हैं और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।
शरीर के आन्तरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण होती है। उसकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात अनवरत रूप से क्रियाशील रहते हैं-गति करते रहते हैं। उनकी क्रियायें एक क्षण के लिए भी रुक जायँ तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए रक्त परिवहन संस्थान को ही लें। हृदय की धड़कन के फलस्वरूप रक्त संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं।
यह रक्त प्रवाह नदी-नाले की तरह नहीं चलता वरन् पंपिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। हृदय के आकुँचन-प्रकुँचन प्रक्रिया के स्वरूप ही ऊपर-नीचे-समस्त अंग अवयवों में रक्तप्रवाह होता रहता है। सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः 90 सेकेंड में पूरी हो जाती है।
हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने उसे मात्र 6 सेकेंड में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सेकेंड लगते हैं, जबकि मस्तिष्क तक रक्त पहुँचने में 8 सेकेंड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर भी हृदय 5 मिनट और और अधिक जी लेता है, पर मस्तिष्क 3 मिनट में ही बुझ जाता है। हार्ट अटैक हृदयाघात की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना होता है। रक्त प्रवाह संस्थान का निर्माण करने वाली रक्तवाही नलिकाओं की कुल लम्बाई 60 हजार मील है जो कि पृथ्वी के धरातल की दूरी है।
औसत दर्जे के मानवी काया में प्रायः 5 से 6 लीटर तक रक्त रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरंतर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति-कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घंटे में हृदय को 13 हजार लीटर रक्त का आयात-निर्यात करना पड़ता है।
10 वर्ष में इतना खून फेंका-समेटा जाता है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा।
इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी 10 टन बोझ जमीन से 50 हजार फुट तक ऊपर उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी।शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है।
रक्त संचार की दुनिया इतनी सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण है कि यदि उसे ठीक तरह से समझा जा सके और उसके उपयुक्त रीति-नीति अपनायी जा सके तो सुदृढ़ और सुविकसित दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
त्वचा, मांसपेशियां रक्त परिसंचरण प्रणाली ही नहीं शरीर संस्थान का एक-एक घटक अद्भुत और विलक्षण है।
औसतन 5 फीट 6 इंच की इस मानवी काया में परमात्मा ने इतने अधिक आश्चर्य भर दिये हैं कि उसे देव मंदिर कहने और मानने में कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
[तथ्यात्मक सहयोगी : डॉ. विकास मानव)