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नियोग और हलाला के अंतर को समझना जरूरी 

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डा.सलमान अरशद

ऊत्तर भारत में कहीं चुनाव हो और मुसलमानों की अस्मिता पर हमला न हो ऐसा हो नहीं सकता। 

मुसलमानों से नफरत करने वाले मुसलमानों को हलाला की औलाद कहते हैं तो ज़वाब में उन्हें नियोग की औलाद कह दिया जाता है। 

आज किसी ने मुझसे पूछा कि हलाला जैसी प्रथा को खत्म करने के लिए सरकार कानून बनाना चाहती है तो मुसलमान इसका बचाव क्यों करते हैं ! इस सवाल से ही आप समझ सकते हैं कि उनकी समझ कितनी है। 

बाहरहाल, नफरत करने वालों को तर्क से नहीं जूते से समझाया जा सकता है लेकिन जब तक जूता मारने की हैसियत नहीं है, इन्हें इग्नोर करना ही बेहतर है। 

ख़ैर, नियोग और हलाला दोनों दो तरह की चीजें हैं और आज दोनों ही प्रचलन में नहीं है। 

नियोग वो स्थिति है जब एक स्त्री संतान पैदा करने के लिए अपने पति के अलावा किसी दूसरे पुरुष की मदद लेती है। महाभारत में इस तरह की घटनाओं का उल्लेख मिलता है, समाज में भी आप अपने आसपास ऐसी स्थिति देख सकते हैं, हलांकि ये काम जो लोग करते हैं, छुपाकर कर करते हैं। 

सीमेन बैंक से सीमेन लेकर माँ बनना नियोग का ही एक रूप है, हलांकि खर्चीला तो है लेकिन मेडिकल साइंस ने इस मुश्किल को अब बहुत आसान बना दिया है। 

हलाला एक अवस्था है, जिसे नियोजित या मैनेज नहीं किया जा सकता। ईसाई, मुसलमान और यहूदी रिश्ता न चल पाए तो पति या पत्नी को छोड़कर भागने 😀 के बजाय तलाक़ देते/लेते हैं। 

मुसलमानों में तलाक की दो परिस्थितियां हैं, अगर तीन तलाक़ वो तीन महीने में दिया जाए या एक साथ, के बाद स्त्री पुरुष हमेशा के लिए अलग हो जाते हैं, वो फिर नहीं मिल सकते, जबकि एक तलाक़ देने पर भी रिश्ता टूट जाता है, बस इसमें एक फ़र्क है कि दोनों चाहें तो दुबारा निकाह कर सकते हैं। 

पहली अवस्था में अगर स्त्री का निकाह किसी और से हो गया, और वहां से भी तलाक़ हो गया तो पहला पुरुष उससे निकाह कर सकता है। यही वो अवस्था है जिसे कुछ बदमाश लोगों ने कहीं कहीं मैनेज किया, यानी किसी से निकाह करवाया और तलाक, फिर पहले पुरुष से निकाह करवा दिया। 

मैं फिर बता दूं कि ये अब अपवाद है, आम प्रैक्टिस का हिस्सा नहीं है। ये धर्म सम्मत भी नहीं है। 

ऐसे समझें कि तलाक़ की नीयत के साथ निकाह नहीं किया जा सकता। 

आप देख सकते हैं कि नियोग और हलाला दोनों में बहुत अंतर है। नियोग का उल्लेख हिन्दू ग्रंथों में मिलता है लेकिन नियोजित हलाला इस्लामिक ग्रंथों में कहीं नहीं है और न ही इस्लामिक स्कॉलर इसे सही मानते हैं।

यानि कोई नियोग की औलाद तो हो सकता है लेकिन हलाला की औलाद नहीं हो सकता, अतः नफरती गैंग के चिंटू चाहें तो वैकल्पिक गाली ढूढ़ सकते हैं, हलांकि उनकी इतनी भी औकात कहाँ है !

बहुत संक्षेप में मैंने बताने की कोशिश की है, कुछ ग़लत बता दिया हो या मुझसे कुछ छूट गया हो तो जानकर दोस्त कमेंट में उसका उल्लेख कर दें। 

ये भी बता दूं कि मैं इस्लामिक कानून का जानकार होने का दावा नहीं करता, मुस्लिम पृष्ठभूमि से हूं तो जो सामान्य समझ है, उसे ही आपसे साझा किया है।

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