शकील अख्तर
कांग्रेस इन दिनों 1980 से पहले की टेस्ट टीम हो रही है। जहां बैट्समेन तीस-चालीस रन बनाकर भी टीम का महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता था। राहुल में सारे गुण हैं। वह कहते हैं ना हजार खूबी है उनमें लेकिन कमी है इतनी…! तो राहुल में सख्ती नहीं है। एक पार्टी में आंतरिक उदारवाद का बहुत पुराना असफल सिद्धांत लेकर चल रहे हैं। जिसने राजीव गांधी से लेकर, सोनिया और राहुल सबका नुकसान किया।
अखिलेश यादव जब यह कहते हैं कि हमारा घर गंगाजल से धुलवाया गया तो केवल यादवों में नहीं सभी पिछड़ों और दलितों में प्रतिक्रिया होती है। यादव पिछड़ों में सबसे समर्थ जाति लेकिन अगर उसे भी अपवित्र समझा जाता है तो बाकी जातियां खुद समझ जाती हैं कि उन्हें क्या समझा जा रहा है!
अखिलेश इस लोकसभा चुनाव में नई रणनीति के साथ आ रहे हैं। उनका सारा जोर पीडीए पर है। पीडीए मतलब। पी यानि पिछड़ा, डी यानि दलित और ए मतलब अल्पसंख्यक। अखिलेश इस सामाजिक समीकरण के जरिए यूपी में भाजपा को चुनौती दे रहे हैं।
फिलहाल उनके जो तेवर हैं उसने भाजपा को मुश्किल में डाल दिया है। इस तरह का पहला जातीय समीकरण चौधरी चरण सिंह ने बनाया था। अजगर। अहीर जाट गुजर और राजपूत। सभी कृषि पर निर्भर रहने वाली सामाजिक रूप से शक्तिशाली जातियां। चरण सिंह की सफलता में इन्हीं जातियों का योगदान महत्वपूर्ण रहा। बाद में इसी तरह लालू यादव ने माई (एमवाई ) समीकरण बनाया। मुसलमान-यादव। यह बिहार में बहुत सफल रहा और लालू की सफलता का मुख्य कारक रहा।
अब यूपी में अखिलेश का नया प्रयोग कितना कामयाब होता है यह सामाजिक समीकरणों के अलावा और कई बातों पर निर्भर करेगा। चरण सिंह और लालू यादव के समय धर्म की राजनीति नहीं थी और न ही कोई बड़ा दलित नेता था।
आज की तारीख में इन नए फैक्टरों का तोड़ अखिलेश कैसे निकालते हैं यह देखना होगा। धर्म की राजनीति का प्रभाव यह है कि 2012 तक जिसमें जीत कर वे मुख्यमंत्री बने थे उनका समुदाय यादव पूरी तरह उनके साथ था। मगर अब उसका एक हिस्सा भाजपा की तरफ झुकाव रखने लगा है। दूसरा दलित मायावती से तो टूटा है। मगर वह भी आर्थिक-सामाजिक आरक्षण जैसे मुद्दों पर कम ध्यान देकर धर्म के नाम पर भाजपा की तरफ झुकाव दिखाता है।
अखिलेश के लिए पीडीए के पहले दो पी और डी को अपनी तरफ खिंचना ही मुख्य चुनौती है। ए तो मतलब अल्पसंख्यक अभी सपा के साथ बना हुआ है। और जब सपा कांग्रेस और जयंत चौधरी साथ मिलकर लड़ेंगे जैसा अभी संभावना है तो मुसलमान उन्हीं के साथ रहेगा। मायावती और ओवैसी कोशिश करेंगे मुसलमान वोटों को विभाजित करके भाजपा को मदद पहुंचाने की मगर इन तीनों सपा, कांग्रेस और रालोद के साथ लड़ने से मुसलमान का बसपा या ओवैसी के साथ जाना मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन इसके लिए सपा और कांग्रेस दोनों को यह ध्यान रखना होगा कि मिल कर लड़ें। अभी भारत जोड़ो यात्रा के लिए अखिलेश ने कहा कि हमें निमंत्रण नहीं मिलता है। जवाब में जयराम रमेश ने कहा कि यूपी का रूट फाइनल हो रहा है और उसके बाद उसे इंडिया गठबंधन के घटक दलों के साथ साझा किया जाएगा। उनका यात्रा में भाग लेना इंडिया गठबंधन को और मजबूत करेगा।
यात्रा के 16 फरवरी को यूपी में आने की संभावना है। अभी तक के प्रोग्राम के अनुसार करीब 11 दिन यात्रा यूपी में रहेगी। जयराम ने रूट फाइनल होने की बात कही है। उसमें क्या परिवर्तन होगा पता नहीं। मगर पुराने कार्यक्रम के अनुसार यूपी के सारे मुख्य इलाकों को यात्रा छूने वाली थी। बनारस, प्रयागराज, अमेठी, रायबरेली, लखनऊ, मुरादाबाद, रामपुर अलीगढ़, आगरा करीब 20 जिलों से यात्रा गुजरेगी। अभी तक का प्रोग्राम 14 फरवरी को यात्रा का यूपी में आने का था। मगर अब जयराम के मुताबिक वह संभावित रूप से 16 को दोपहर बाद प्रवेश करेगी।
यात्रा का यह सबसे महत्वपूर्ण रास्ता है। इसी पर इंडिया गठबंधन की मजबूती तय होगी। और गठबंधन की एकता और मजबूती से ही यूपी में बीजेपी को चुनौती दी जा सकेगी। इस लोकसभा का फैसला यूपी ही तय करेगा। 2014 के मुकाबले 2019 में भाजपा की सीटें बढ़ीं। मगर यूपी में कम हो गईं। 2014 में भाजपा की 71 सीटें थी। जो 2019 में 62 रह गईं।
अब नए समीकरणों पीडीए से अखिलेश को उम्मीद है कि वह भाजपा को और नीचे ले जाएंगे। अब यह कितना हो पाता है यह कांग्रेस और सपा के साथ बने रहने पर निर्भर होगा।
बिहार में नीतीश के टूट जाने, बंगाल में ममता के आंखें दिखाने के बाद अब यूपी में कांग्रेस को बहुत राजनीतिक परिपक्वता दिखानी होगी।
राहुल की यात्रा बहुत सफल है। हर राज्य में पिछले राज्य से बढ़कर भीड़ आ रही है। ट्रेंड बता रहा है कि यूपी में ऐसा ही उत्साहपूर्ण माहौल रहने की संभावना है। मगर ऐसी ही भीड़ पहली यात्रा के दौरान मध्यप्रदेश और राजस्थान में उमड़ी थी मगर कांग्रेस उसका फायदा नहीं उठा पाई। दोनों जगह हार गई।
अब यूपी में तो कांग्रेस का कुछ है ही नहीं। 2014 में लोकसभा की दो सीटें थीं। सोनिया और राहुल की। मगर 2019 में उनमें से भी एक राहुल की गंवा दी। विधानसभा का जिक्र जो आखिरी चुनाव था, 2022 का कांग्रेस भी नहीं करना चाहती। केवल दो सीटें मिली थीं उसे।
कांग्रेस की हालत अब भी वैसी ही है। उससे खराब हो सकती है। बेहतर होने का तो न कोई संकेत है और न कांग्रेस ने कोई उपाय किया है। अपनी सबसे करिश्माई नेता मानी जाने वाली प्रियंका गांधी को कांग्रेस ने वहां की जिम्मेदारी दी थी। मगर पिछले 35 साल से कांग्रेस वहां इतनी कमजोर हो गई है कि प्रियंका की मेहनत और करिश्मा भी कुछ नहीं कर पाया। 1989 तक नारायण दत्त तिवारी वहां कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे। उसके बाद सपा बसपा भाजपा का ही नंबर आता रहा। कांग्रेस को तो केवल इतिहास ही बताया जाता रहा।
क्या कमी है? यह कांग्रेस कभी ढूंढ ही नहीं पाई या यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने कभी कोशिश ही नहीं की। आप कांग्रेस के किसी बड़े नेता से पूछिए यूपी छोड़िए 2014, 2019 लोकसभा के इतने खराब प्रदर्शन का कारण! हर एक के पास अलग-अलग जवाब होगा और उनमें से एक भी सटीक नहीं। अभी मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की हार का कारण। कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलेगा। उससे पहले अभी गुजरात में इतनी बुरी हार, जबकि उससे पिछले 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को सौ से नीचे रोक दिया था, का कारण? पंजाब, उत्तराखंड की हार जिसकी कोई संभावना नहीं थी।
कांग्रेस क्या दार्शनिक या आध्यात्मिक मुद्रा में राजनीति करने लगी है! जो मिल जाए वह भाग्य या राहुल की मेहनत। जो 2004 में सोनिया गांधी के आने के पहले की थी। जो हार मिले तो समभाव से स्वीकारना। हार-जीत तो होती रहती है। यह वह भाव है जो भारतीय क्रिकेट टीम में 1983 से पहले तक था। टेस्ट ड्रा करवाने को भी भारतीय क्रिकेट प्रेमी जीत मान लेते थे मगर उस वर्ल्ड कप में कपिल देव और उसके बाद महेन्द्र सिंह धोनी को जीत के लिए दम लगाया। फिर इतिहास गवाह है कि भारतीय क्रिकेट का रूप ही बदल गया।
कांग्रेस इन दिनों 1980 से पहले की टेस्ट टीम हो रही है। जहां बैट्समेन तीस-चालीस रन बनाकर भी टीम का महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता था। राहुल में सारे गुण हैं। वह कहते हैं ना हजार खूबी है उनमें लेकिन कमी है इतनी…! तो राहुल में सख्ती नहीं है। एक पार्टी में आंतरिक उदारवाद का बहुत पुराना असफल सिद्धांत लेकर चल रहे हैं। जिसने राजीव गांधी से लेकर, सोनिया और राहुल सबका नुकसान किया।
दूसरे कोई ऐसा राजनीतिक आदमी उनके पास नहीं है जो चीजों को बिगड़ने न दे और बिगड़ जाएं तो बनाए, संभाले।
उदाहरण बहुत हैं। मगर कांग्रेस में कोई सुनने को तैयार नहीं है। फिलहाल बस इतना ही कि यूपी को राहुल को खुद देखना चाहिए और गठबंधन को संभाल कर रखना चाहिए।
अखिलेश वखिलेश ने मन में बदला लेने की भावना नहीं आने दी और 11 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ने को तैयार हो गए हैं जिनमें दो-तीन की और बढ़ोतरी की भी संभावना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)