नीलम ज्योति
उपग्रह प्रक्षेपण की प्रथम कोशिश से संबंधित त्रिशंकु कथा के सूत्रधार विश्वामित्र प्राचीन भारत के अति प्रसिद्ध ऋषियों में से हैं।
रघुकुल में वशिष्ठ और विश्वामित्र की बहुत पहुँच थी। राम पर आधिपत्य को लेकर यह दोनों ही ऋषि एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा में थे। विश्वामित्र राक्षसों के संहार के लिए राम को वन ले गये थे और वे ही उन्हें राजा जनक के यहाँ होने वाले स्वयंवर में लेकर गये थे. दूसरी तरफ ऋषि वशिष्ठ रघुकुल के आचार्य थे।
विश्वामित्र जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। इनका पूर्व नाम राजा कौशिक था। एक बार वे अपनी विशाल सेना के साथ जंगल में निकल गये थे और रास्ते में पड़ने वाले महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में उनसे मिले। संसाधनों के स्वामी नहीं होकर भी महर्षि वशिष्ठ ने उनका और उनकी सेना का सत्कार किया और सबको भोजन कराया।
राजा कौशिक को इस पर आश्चर्य हुआ तो वशिष्ठ ने बताया कि मेरे पास नंदिनी गाय है जो कामधेनु की पुत्री है और स्वयं इंद्र ने महर्षि को भेंट की थी। राजा कौशिक ने नंदिनी को पाने के लिए जिद की, परन्तु वशिष्ठ ने मना कर दिया। इस पर कौशिक ने बलपूर्वक नंदिनी को ले जाने की कोशिश की।
नंदिनी ने वशिष्ठ की आज्ञा से अपने योगबल से राजा कौशिक की सारी सेना को ध्वस्त कर दिया और राजा कौशिक को बंदी बनाकर वशिष्ठ के सामने प्रस्तुत किया।
कौशिक ने वहाँ पर भी वशिष्ठ पर आक्रमण किया। महर्षि वशिष्ठ ने क्रोध में आकर राजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़कर बाकी सभी को शाप देकर भस्म कर दिया।
इस घटना के बाद राजा कौशिक ने राजपाठ को अपने पुत्र को सौंप दिया और हिमालय में जाकर भगवान शिव की घनघोर तपस्या की और वरदान स्वरूप कई दिव्यास्त्र प्राप्त किये।
इसके पश्चात् वे पुनः महर्षि वशिष्ठ से युद्ध को प्रवृत्त हुए। वशिष्ठ ने उनका हर अस्त्र नष्ट कर दिया और ब्रह्मास्त्र का संधान किया।
सभी देवताओं ने आकर वशिष्ठ से प्रार्थना की और उन्हें शांत किया. तब वशिष्ठ ने ब्रह्मास्त्र को वापस ले लिया।
राजा कौशिक को अत्यंत पश्चाताप हुआ कि कालास्त्र, मानव, मोहन, गांधर्व, जुंभण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुण पाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्राँच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, मूसल, विद्याधर, कंकाल के होते हुए भी वह पराजित हो गये।
उन्हें ज्ञान हुआ कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। अब उन्होंने पुनः तपस्या की और ब्रह्मा ने उन्हें राजर्षि पद प्रदान किया। परन्तु वे संतुष्ट नहीं हुए।
उन्होंने पुनः तपस्या प्रारम्भ की. बहुत सारे विघ्नों के बाद भी तपस्या को पूर्ण किया और इन्द्र ने उन्हें ब्राह्मण पद प्रदान किया। अब वे विश्वामित्र थे. इन्द्र से उन्होंने ओंकार, षट्कार तथा चारों वेद भी माँगे। उनकी प्रतिज्ञा थी जब तक ऋषि वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मऋषि पद नहीं देंगे तब तक वे शांत नहीं होंगे।
बाद में उन्हें वशिष्ठ ने भी ब्रह्मऋषि के रूप में स्वीकार कर लिया। क्रोध में दोनों ने एक-दूसरे के पुत्रों को नष्ट कर दिया था, परन्तु अब विश्वामित्र भी क्रोध और मोह के बंधनों से ऊपर उठ चुके थे।
विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए इन्द्र ने स्वर्ग से अप्सरा मेनका को भेजा। विश्वामित्र मेनका पर मोहित हो गये थे और मेनका कन्या उत्पन्न होने तक उनके साथ रही। बाद में वह स्वर्गलोक वापस चली गयी।
विश्वामित्र ने इस कन्या को रात के अंधेरे में ऋषि कण्व के आश्रम में छोड़ दिया था। यह कन्या शकुन्तला के नाम से विख्यात हुई, जिसका गंधर्व विवाह सम्राट दुष्यन्त के साथ हुआ।
इन दोनों से भरत नाम के पुत्र ने जन्म लिया, जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा है।
त्रिशंकु इक्ष्वाकु वंश के राजा थे और सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से इसके लिए अनुरोध किया। वशिष्ठ और उनके पुत्रों ने इसके लिए मना कर दिया। वशिष्ठ के पुत्रों को जब त्रिशंकु ने अपशब्द कहे तो उन्होंने त्रिशंकु को चाण्डाल होने का शाप दिया। त्रिशंकु के मंत्री और सभासद उनका साथ छोड़ गये।
विश्वामित्र ने त्रिशंकु का आग्रह स्वीकार कर लिया और एक यज्ञ का संधान किया। उनके निमंत्रण को ऋषि-मुनियों ने तो स्वीकार कर लिया परन्तु वशिष्ठ और उसके पुत्रों ने स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल हो और पुरोहित प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हो उस यज्ञ का भाग वे स्वीकार नहीं करेंगे।
विश्वामित्र ने वशिष्ठ पुत्रों को कालपाश में यमलोक जाने का शाप दे दिया। अन्य सभी ऋषि-मुनि भयभीत होकर यज्ञ में शामिल हुए परन्तु देवता नहीं आए।
इसके पश्चात् विश्वामित्र ने मंत्र बल से त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने की प्रक्रिया प्रारम्भ की। स्वर्ग की ओर आया देखकर इन्द्र ने क्रोध से त्रिशंकु को कहा कि गुरु के शाप के कारण तू स्वर्ग में रहने के योग्य नहीं है।
इस पर त्रिशंकु गिरने लगे और अधर में ही सिर के बल लटक गये। तब विश्वामित्र ने मंत्र बल से उसी स्थान पर एक नये स्वर्ग की सृष्टि कर दी।
इन्द्रादि देवता जब विश्वामित्र के पास आये तो विश्वामित्र ने कहा कि मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्गमण्डल हमेशा रहेगा।
वैज्ञानिक पक्ष :
विश्वामित्र ने त्रिशंकु के स्वर्गारोहण की जिस प्रक्रिया को जन्म दिया उसका समीकरण आधुनिक कृत्रिम उपग्रहों के प्रक्षेपण से किया जा सकता है।
सम्भवतः वे त्रिशंकु को निर्धारित कक्षा में प्रक्षेपित नहीं कर पाए थे और निर्धारित से निचली कक्षा में ही स्थापित कर पाए।
उन्होंने एक तरह से त्रिशंकु को स्वर्ग में पहुँचाने की चुनौती स्वीकार की और दूसरी तरफ अगर उससे नीचे की किसी कक्षा में त्रिशंकु को स्थापित कर पाए तो उसे ही स्वर्ग का नाम दे दिया।
सप्तऋषि मण्डल के दक्षिण में आज भी त्रिशंकु नक्षत्र मण्डल है और इस बात की पुष्टि करता है कि बहुत प्राचीन भारत में प्रक्षेपण विज्ञान उन्नत था. यद्यपि इस तरह के उदाहरण बहुत अधिक नहीं है।
पुष्पक विमान का अस्तित्व और देवताओं-मुनियों का मुक्त-अंतरिक्ष में विचरण इस बात का प्रमाण है कि कुछ प्राच्य विद्याएँ उस समय प्रभावी थी. इनके कारण ही रहस्यमय पौराणिक कथानकों को प्रसिद्धि मिली।