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*विदाई 17वीं लोकसभा की या संसदीय व्यवस्था की*

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*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)* 

संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था में अगर कार्यपालिका या सत्ताधारी, संसद पर अपनी मनमर्जी थोपने में समर्थ हो, तो इसे संसदीय व्यवस्था का अंत ही माना जाना चाहिए। इसके बाद, संसदीय व्यवस्था का सिर्फ खोल ही बचा रह जाएगा, उसके प्राण निकल चुके होंगे। अभी हाल ही में जिस सत्रहवीं लोकसभा की विदाई का कर्मकांड संपन्न हुआ है, उसे संसदीय व्यवस्था की ही विदाई के लिए भी याद किया जाएगा। जाहिर है कि यह संसद पर सत्ताधारियों की मनमर्जी थोपे जाने का ही सबूत था कि संसद के इस संक्षिप्त बजट सत्र को ऐन आखिरी दिन निर्णय कर, एक दिन के लिए बढ़ा दिया गया। पर सत्ताधारियों की मनमर्जी सत्र के एक दिन बढ़ाए जाने तक सीमित नहीं थी। असली मनमर्जी इसे आखिरी वक्त तक एक ‘रहस्य’ ही बनाकर रखे जाने में थी कि इस अतिरिक्त कार्यदिवस पर, संसद में होगा क्या? और इस अतिरिक्त कार्यदिवस पर संसद में जो हुआ, उससे एजेंडा ही रहस्य बनाकर रखे जाने का कारण ही नहीं, इस एजेंडा के थोपे जाने का सरासर मनमानापन भी, खुद-ब-खुद उजागर हो गया। इस रोज एक तो दोनों सदनों में ‘राम जन्म भूमि मंदिर’ के बनने पर प्रस्ताव पारित कराया गया। दूसरे, 17वीं लोकसभा के इस आखिरी सत्र का समापन प्रधानमंत्री मोदी के भाषण से कराया गया, जो एक प्रकार से आने वाले आम चुनाव के लिए, प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार की शुरूआत भी थी।

वैसे यह पहला मौका नहीं था, जब सरकार द्वारा संसद पर इस तरह अपनी मनमर्जी थोपी जा रही थी। सत्रहवीं लोकसभा को अगर संसद के एक नये, विशालतर तथा कुछ अर्थों में भव्यतर भवन में स्थानांतरित होने के लिए याद किया जाएगा, तो उससे ज्यादा सत्ताधारियों की मनमर्जी थोपे जाने के नया नियम ही बना दिए जाने के लिए भी याद किया जाएगा। वास्तव में संसद के हालिया सत्र के आखिरी दिन जिस तरह संसद को सत्ताधारियों के हुकुम का ताबेदार बनाया गया, उसकी विधिवत शुरूआत तो संसद के भवनांतरण के साथ ही हो गई थी। उस समय शासन के पूरी तरह से इकतरफा फैसले से संसद का ‘विशेष सत्र’ बुलाया गया था और उस समय भी अंत-अंत तक इस सत्र का एजेंडा रहस्य के पर्दे में ही रखा गया था। विपक्ष के ही नहीं, खुद सत्ता पक्ष के भी अधिकांश सांसद, इसका अनुमान ही लगाते रह गए थे कि आखिर, विशेष सत्र में होगा क्या? आखिरकार, इस विशेष सत्र में पुराने संसद भवन की विदाई से लेकर, नये संसद भवन में प्रवेश तक, हर मौके पर प्रधानमंत्री के संबोधन का अवसर निर्मित करने के अलावा, महिला आरक्षण बिल पेश किया गया और पारित कराया गया। लंबे इंतजार के बाद पारित हुआ यह बिल इसलिए भी ‘ऐतिहासिक’ था कि इसके जरिए सत्ताधारी, महिला आरक्षण देने का राजनीतिक लाभ तो तत्काल लेना चाहते थे, लेकिन आरक्षण का कई साल आगे की तारीख का चैक दे रहे थे, जिसके भुगतान होने की भी कोई गारंटी नहीं थी।

बेशक, सत्रहवीं लोकसभा के दौर में, कार्यपालिका के सामने संसद की स्वायत्तता के खात्मे और संसद पर सत्ताधारियों की ही मनमर्जी थोपे जाने का मामला, अपनी मर्जी से संसद का एजेंडा तय किए जाने तक ही सीमित नहीं रहा। इसी सिलसिले की अलग-अलग कड़ियों के तौर पर, इस दौर में संसद ने और भी बहुत कुछ देखा। इस दौर ने नये भवन में संसद में सुरक्षा सेंध के मुद्दे पर बहस की मांग करने के लिए, दोनों सदनों के लगभग डेढ़ सौ सदस्यों का शेष सत्र भर के लिए निलंबन देखा। एक गिनती के अनुसार, इस पांच वर्ष की अवधि में दोनों सदनों ने मिलाकर, कुल 206 बार विपक्षी सांसदों के खिलाफ निलंबन के हथियार का इस्तेमाल किया। इसी दौर ने मणिपुर की भयंकर हिंसा के मुद्दे पर, प्रधानमंत्री के वक्तव्य के आधार पर बहस की मांग पर, हफ्तों संसद में विपक्ष को संघर्ष करने पर मजबूर होते भी देखा।

इसी लोकसभा ने विपक्ष के एक प्रमुख नेता के विदेश में कथित रूप से ‘देश की प्रतिष्ठा घटाने’ वाली बात कहने के बेहूदा बहाने से, खुद सत्ता पक्ष द्वारा कई दिनों तक सदन की कार्रवाई का बाधित किया जाना देखा। और देखा, अंतत: पूरी तरह से झूठे बहाने से और फिक्स्ड फैसले के आधार पर, उसी सदस्य की लोकसभा सदस्यता का निरस्त होना और बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से, उसकी सदस्यता को वापस होते हुए भी देखा। इसी लोकसभा ने एक कंगारू अदालत बनकर, एक और मुखर विपक्षी सांसद की सदस्यता का चीरहरण भी देखा। इसी लोकसभा ने 35 फीसद विधेयकों का एक घंटे से भी कम समय की चर्चा में पारित किया जाना भी देखा।

इसी दौर ने सिर्फ 16 फीसद विधेयकों को विस्तृत छानबीन के लिए संसदीय कमेटियों को भेजे जाते देखा। इसी लोकसभा ने विपक्ष के एक भी कार्यस्थगन प्रस्ताव का स्वीकार न किया जाना भी देखा और सिर्फ 13 अल्पावधि चर्चाओं को मंजूरी दिया जाना देखा। इसी लोकसभा ने सत्ताधारी पार्टी के एक सांसद द्वारा सदन में ही एक विपक्षी मुस्लिम सदस्य को, उसकी धार्मिक पहचान को लेकर, भद्दी से भद्दी गालियां देते और सत्तापक्ष तथा सभापति द्वारा उसे साफ बचाए जाते भी देखा। सत्रहवीं लोकसभा ने डिप्टी स्पीकर का पद व्यावहारिक मानों में खत्म हो जाते भी देखा। हैरानी की बात नहीं है कि सत्रहवीं लोकसभा ने, साल में कुल 52 दिन बैठकर, 1952 से सबसे कम बैठकों का रिकार्ड बनाया है। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद, हमने स्पीकर और प्रधानमंत्री को, सदन की ‘रिकार्ड उत्पादकता’ के लिए, खुद अपनी पीठ ठोकते भी देखा।

इस तरह, सत्रहवीं लोकसभा को, व्यावहारिक मानों में संसदीय व्यवस्था की क्रमिक किंतु मध्यम रफ्तार से हत्या के लिए याद किया जाएगा। लेकिन, उसे इसके साथ ही कम-से-कम एक और हत्या के लिए याद किया जाएगा — धर्मनिरपेक्षता की या सरकारी अनुवाद की भाषा में कहें, तो पंथनिरपेक्षता की हत्या। यह लोकसभा पहले, धारा-370 को निरस्त किए जाने की बहुसंख्यकवादी धोखाधड़ी की गवाह बनी और उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के जरिए, नागरिकता की परिभाषा में ही सांप्रदायिक तत्व जोड़ने के जरिए, धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के आधार पर ही कुठाराघात की। इस सिलसिले का चरमोत्कर्ष हुआ है, ‘रामजन्म भूमि मंदिर’ के निर्माण के अभिनंदन के दोनों सदनों के प्रस्ताव में। और इसके ऊपर से प्रधानमंत्री के अपने संबोधन में इसके दावे में कि यह प्रस्ताव, भारतीयों की अगली पीढ़ियों के लिए अपनी परंपरा पर गर्व करने का ‘संवैधानिक आधार’ मुहैया कराएगा! यानी यहां से आगे देश के बहुसंख्यकों के धार्मिक विश्वासों को, संविधान में रोप दिया जाएगा। यह धर्मनिरपेक्षता के लिए आखिरी जानलेवा घाव है।

अन्य चीजों के अलावा राम जन्मभूमि मंदिर के प्रसंग से इस मोदी राज ने धर्मनिरपेक्षता की हत्या के रास्ते पर व्यवस्थित रूप से, किंतु बहुत तेज रफ्तार से कदम बढ़ाए हैं। पहले, प्रधानमंत्री, आरएसएस प्रमुख भागवत के साथ, राम मंदिर के शिला पूजन में मुख्य यजमान बन गए, जबकि सुप्रीम कोर्ट के संबंधित आदेश की भावना के हिसाब से, शासन को मंदिर के निर्माण से दूर ही रहना था। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी की ऐसा करने की शुरू से ही कोई मंशा ही नहीं थी, जिसका सबूत इस काम के लिए गठित कमेटी में चुन-चुनकर ऐसे लोगों का रखा जाना था, जो वर्तमान सरकार का मुंह देखकर ही चलने जा रहे थे। इसके बाद, चुनाव की तारीखों को ध्यान में रखते हुए, जब अधूरे बने मंदिर में ही प्राण प्रतिष्ठा का फैसला कराया गया, प्रधानमंत्री ने न सिर्फ अपना तथा भागवत का मुख्य यजमान होना सुनिश्चित किया, प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को हफ्तों और महीनों लंबा अति-प्रचारित ईवेंट बना दिया गया, जिसमें आरएसएस-भाजपा, मोदी सरकार तथा सरकारी तंत्र, सब को पूरी तरह से गड्डमड्ड कर दिया गया, अभिन्न बना दिया गया। और प्रधानमंत्री के पद पर बैठ कर, अपने भांति-भांति के ब्राह्मणवादी कर्मकांड करने का जमकर प्रदर्शन करते मोदी को, इस सब के केंद्र में रख दिया गया। अब भी अगर कोई कसर रहती थी, तो उसे इस मौके के लिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से लिखवाए गए बधाई संदेशों ने पूरा कर दिया, जिनमें बड़े सचेत रूप से और आरएसएस की भाषा बोलते हुए, ‘धर्म और राष्ट्र’ और ‘देश और धर्म’ को एक कर दिया गया। इसे प्रधानमंत्री ने अयोध्या में अपने संबोधन में और पक्का कर दिया।

उधर 22 जनवरी को, केंद्र सरकार में दोपहर बाद तक और अधिकांश भाजपा-शासित राज्यों में पूरे दिन की ‘राष्ट्रीय छुट्टी की घोषणा ने, बहुसंख्यक समुदाय के एक धार्मिक आयोजन को, ‘राष्ट्रीय उत्सव’ ही घोषित कर दिया। अंत में संसद ने अब बाकायदा प्रस्ताव स्वीकार कर, राम मंदिर के ‘राष्ट्र मंदिर’ होने पर मोहर लगा दी है और प्रधानमंत्री ने इस दावे के संविधान-अनुमोदित होने का भी ऐलान कर दिया है। संसदीय व्यवस्था के विपरीत, जिसका खोल तो कम-से-कम अब तक बचा हुआ है, सत्रहवीं लोकसभा धर्मनिरपेक्षता के पूर्ण विसर्जन की ही गवाह बनी है।

फिर भी सब तरफ अंंधेरा ही नहीं है। सत्रहवीं लोकसभा ने तीन कारपोरेटपरस्त काले कृषि कानूनों का, बिना समुचित चर्चा के और बहुमत की तानाशाही के बल पर, संसद पर थोपा जाना भी देखा और किसानों के ऐतिहासिक साल भर लंबे आंदोलन के बाद, उसी हठी सरकार द्वारा उन कानूनों का, संसद से ही निरस्त कराया जाना भी देखा। अंधेरा बहुत है, पर जहां-तहां रौशनी की चिलक भी है। संसदीय व्यवस्था हो या धर्मनिरपेक्षता—अब भी दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है।

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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