सैयद जैगम मुर्तजा
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुआ राज्यसभा चुनाव विधायकों के खरीद-फरोख्त को लेकर चर्चा में रहा। उत्तर प्रदेश में भी राज्यसभा की दस सीटों के लिए हुए मतदान के दौरान समाजवादी पार्टी (सपा) के 7 विधायकों ने भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में वोटिंग की, जबकि एक विधायक वोट डालने ही नहीं आईं। इसके अलावा राष्ट्रीय लोकदल के दो मुसलमान विधायकों का भाजपा के पक्ष में वोट डालना भी इस चुनाव की एक दिलचस्प घटना है। ज़ाहिर है सपा के तीसरे उम्मीदवार आलोक रंजन चुनाव हार गए, लेकिन इस चुनाव ने राज्य की राजनीति में नए समीकरणों का संकेत तो दे ही दिया है।
अभी कुछ ही दिन पहले की बात है जब मनोज पांडेय, राकेश पांडेय और अभय सिंह जैसे लोग सपा नेतृत्व पर लगातार दबाव बना रहे थे कि स्वामी प्रसाद मौर्य पर किसी भी तरह लग़ाम लगाई जाए। उस वक़्त अखिलेश यादव के बेहद क़रीबी माने जाने वाले इन तीन विधायकों के अलावा पार्टी के कई सवर्ण नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के विचारों से विचलित महसूस कर रहे थे। ज़ाहिर है स्वामी प्रसाद मौर्य जिस तरह की गैर-ब्राह्मणवादी वैचारिक राजनीति के ज़रिए दलित और पिछड़ों को गोलबंद करने की कोशिश कर रहे थे, वह इन नेताओं को रास नहीं आ रही थी।
राम मंदिर, धर्म, दलित नायकवाद, और दलित चेतना के जिन मुद्दों पर स्वामी प्रसाद मौर्य अपनी बात रख रहे थे वह सपा की नई छवि के ख़िलाफ थी। दरअसल 2017 से ही अखिलेश यादव अपनी पार्टी की छवि बदलने की असफल कोशिश में लगे हैं। वो चाहते हैं कि पार्टी पर से यादव और मुसलमान हितैषी दल का तमग़ा किसी तरह हट जाए। इसके लिए पार्टी लगातार शहरी मध्यमवर्ग को लुभाने के अलावा चुनावी इंजीनियरिंग के ज़रिए सवर्णों के तुष्टिकरण को अपनी नीति का हिस्सा बनाकर चल रही है। ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य अगर कहते हैं कि दलित और पिछड़ों के मुद्दों पर लकीर खींचा जाना ज़रूरी है तो वह लकीर अगड़ा समाज से आने वालों के लिए असहज होनी ही है।
बहरहाल, अखिलेश यादव ने अपने साथियों के कहने पर स्वामी प्रसाद मौर्य के पर कतर दिये। स्वामी अब नई पार्टी राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी बनाकर अपनी वैचारिक राजनीति कर रहे हैं। लेकिन जिन साथियों के कहने पर स्वामी प्रसाद मौर्य को ठिकाने लगाया गया, वे पहली ही परीक्षा में अखिलेश यादव का साथ छोड़कर चले गए। अभी कुछ रोज़ पहले तक अभय सिंह अखिलेश यादव से मरते दम तक साथ निभाने की कसमें खा रहे थे। कहते थे– “मेरे पिताजी कहते हैं अखिलेश ने तुम्हें सड़क से उठाकर विधायक बना दिया है। वे नहीं होते तो तुम बदमाश बनकर रह जाते। उसका साथ कभी मत छोड़ना।” ज़ाहिर है अभय सिंह ने अपने पिता की बात नहीं मानी। सियासत में ऐसे भी गॉडफादर बदलने का चलन नया नहीं है।
मनोज पांडेय विधानसभा में सपा के मुख्य सचेतक थे। अब वे अपने समाज को सपा के ख़िलाफ वोट करने के लिए सचेत करते नज़र आएंगे। लेकिन एक तथ्य यह कि जिन सात लोगों ने सपा के व्हिप का उल्लंघन कर वोट किया है, उनमें सभी सवर्ण नहीं हैं। सवर्ण विधायकों में राकेश पांडेय और मनोज पांडेय के अलावा अभय सिंह, राकेश प्रताप सिंह और विनोद चतुर्वेदी हैं। बाक़ी पूजा पाल और आशुतोष मौर्य हैं। इनमें अतीक़ अहमद की हत्या के समय से ही पूजा पाल का भाजपा की तरफ झुकाव माना जा रहा था। वह पहले बसपा में रह चुकी हैं। सपा विधायक राकेश पाडेंय के बेटे रितेश पांडे ने हाल ही में बसपा छोड़कर भाजपा का दामन थामा है। रितेश अंबेडकरनगर से मौजूदा सांसद हैं।
पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति की पत्नी महाराजी देवी वोट डालने हीं नहीं गईं। वह अमेठी से विधायक हैं। उनके पति भ्रष्टाचार औऱ रेप समेत तमाम मामलों में जेल में बंद हैं। सपा विधायकों द्वारा धोखा देने के सवाल पर अखिलेश यादव ने कहा कि– “जिसके अंदर लड़ने का साहस नहीं होगा, वो जाएंगे।” महाराजी प्रजापति के मामले में यह बात बहुत हद तक सही हो सकती है। पिछले एक वर्ष के दौरान उनके पति को एमपी-एमएलए कोर्ट ने एक मामले में बरी किया है। और मामलों में भी शायद उनको अब राहत मिल जाए।
इसी तरह राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के दो विधायकों – सिवालख़ास के ग़ुलाम मुहम्मद और शामली के अशरफ अली – का मामला बड़ा दिलचस्प है। हालांकि रालोद के नौ में से छह विधायक मुसलमान वोटों को सहारे विधानसभा पहुंचे हैं। इनमें चांदपुर, शामली, और मीरापुर में जाट मतदाता बड़ी तादाद में भाजपा के साथ गए थे। खतौली से विधायक मदन भैया को भी आगामी चुनाव में फिर से मुसलमान वोटरों का सामना करना है। ऐसे में भाजपा के पक्ष में वोट करके इन विधायकों ने नया-नया गठबंधन धर्म तो निभा लिया है, लेकिन वोटरों को क्या जवाब देना है, इस पर चर्चा अवश्य कर रहे होंगे। हालांकि पार्टी महासचिव और पूर्व मंत्री अमीर आलम का कहना है कि मुसलमानों को भाजपा के साथ गठबंधन के रास्ते तलाशने चाहिएं।
एनडीए में जाने के रालोद के फैसले के पीछे सबसे मज़बूती से अमीर आलम ही खड़े हैं। वे अपने बेटे नवाज़िश को कैराना से लड़ाना चाहते थे, लेकिन अखिलेश यादव इक़रा हसन को चुनाव लड़ाने पर बज़िद थे। ज़ाहिर है अपनी ज़िद में अमीर आलम अपने समर्थक विधायकों को भाजपा के पाले तक ले गए हैं। अगर यही बात वह अपने वोटरों को भी समझा पाए तो कैराना के अलावा बाग़पत, बिजनौर और मुज़फ्फरनगर में नतीजे बदल सकते हैं। मगर क्या मुसलमान उनकी बात मानकर भाजपा या भाजपा समर्थित उम्मीदवारों को वोट करेंगे? नतीजों तक इसके लिए इंतज़ार करना ही पड़ेगा।
बहरहाल, दल-बदल और हार-जीत सब राजनीति का हिस्सा हैं। मगर इस राज्यसभा चुनाव से दो बातें निकलकर सामने आ रही हैं। एक– क्या दलित-और पिछड़े अपने मुद्दों पर लाइन खींचने को तैयार हैं? सपा छोड़कर गए सवर्ण विधायकों ने साफ कर दिया है कि पिछड़े और दलितों की राजनीति में उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। ऐसे में क्या समाजवादी पार्टी अपने मूल विचार और प्रतिबद्धताओं की तरफ लौटेगी? दूसरा– क्या रालोद के बहाने मुसलमान नेता यूपी में भी नीतीश कुमार जैसे विकल्प तलाश रहे हैं, जिनके ज़रिए भाजपा में न जाकर भी भाजपा से साथ निभा लिया जाए?