जगदीश्वर चतुर्वेदी
नरेन्द्र मोदी पर हमारी आलोचनाएं राजनीतिक हैं. उन सभी आलोचनाओं का एक आयाम राजनीतिक है तो दूसरा आयाम सांस्कृतिक और पितृसत्तात्मक है. असल में मोदी की आड़ में हम सबके मन में पितृसत्ता विचारधारा फल फूल रही है. यह सबसे घृणित विचारधारा है. यह उस समय और भी खतरनाक होती है जब कोई स्त्री जाने-अनजाने पितृसत्ता की हिमायत करे. मोदी की हिमायत अंततः पितृसत्ता की हिमायत है.
मोदी पितृसत्ता के अनुदार रुपों का साक्षात प्रतिनिधि रुप हैं. पितृसत्ता के लिबरल रुपों और अनुदार रुपों में इस दौर में सीधी टकराहट है. राहुल गांधी-सोनिया गांधी पितृसत्ता के लिबरल रुपों के प्रतिनिधि हैं. इसके विपरीत मोदी पितृसत्ता के अनुदार रुपों के नुमाइंदे हैं. इन दोनों में यह वैचारिक अंतर हमें लिबरल को चुनने की ओर ठेल रहा है. पितृसत्तात्मक लिबरल विचारधारा अंततः संकट की घड़ी में स्त्री विरोधी या स्त्री समर्थक हो सकती है.
समस्या यह है कि किस तरह का सामाजिक दबाव पैदा करते हैं. शाहबानो केस के समय कट्टरपंथी मुसलमानों का दबाव था और लिबरल पितृसत्ता को हमने स्त्री विरोधी भूमिका अदा करते देखा. राजीव गांधी ने शाहबानो और मुसलिम औरतों के हकों के खिलाफ कदम उठाए लेकिन निर्भयाकांड के समय सोनिया गांधी ने स्त्रीहित में कदम उठाए, कड़े कानून बनाने में सक्रिय भूमिका निभायी क्योंकि जन दबाव था.
इसके विपरीत मोदी का अनुदार पितृसत्तात्मक रुप है और आचरण है, जिसको संघ की विचारधारा और उसके सहयोगी संगठनों के जरिए पूरे देश में लागू किया जा रहा है. कांग्रेस और कांग्रेसियों ने कभी अन्तर्जातीय विवाह का विरोध नहीं किया बल्कि उसे बढ़ावा दिया. इसके विपरीत संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने अंतर्जातीय विवाह करने वालों पर खुलेआम हमले किए. लोगों को अंतर्जातीय विवाह करने से रोका. इसके सैंकड़ों उदाहरण हैं.
गुजरात में 2002 के दंगों में सैंकड़ों औरतों के साथ जो हुआ वह भूलने वाली चीज नहीं है. उसी तरह राजीव गांधी के एक वाक्य के कारण सिख औरतों के साथ जो जघन्य हिंसाचार हुआ वह भी भूलने वाली चीज नहीं है, फिर भी एक बड़ा अंतर है जो सोनिया गांधी को राजीव गांधी से अलग करता है. सोनिया गांधी ने कम से कम खुलेआम, उनके पीएम ने संसद में 1984 के जघन्य कांड के लिए संसद और देश से माफी मांगी है. फिर भी 1984 के अपराध भूलना संभव नहीं है.
कांग्रेस के अंदर एक तबका है जिसका अनुदारवादी नजरिया है और यह तबका बीच बीच में चमक मारता है लेकिन मोदी के साथ तो सरेआम स्त्री हकों पर हमले करने वाले लोग सक्रिय हैं. वे निर्लज्जता से स्त्री विरोधी फैसलों की हिमायत करते हैं.
मैं एक बात अभी तक नहीं समझ पाया कि मोदी यदि मातृभक्त हैं तो अपनी मां को अपने पास क्यों नहीं रखते ? यह कैसा प्रेम है जिसमें एकल मोदी के पास मां रहना नहीं चाहती. मां मोदी से दूर रहना चाहती है. मोदी बार बार मां की खबर लेने जरुर जाते हैं. मां अपनी राजी खुशी की खबर भी देती है. मां उनको आशीर्वाद भी देती है, क्योंकि वह मां है और स्त्री है लेकिन मोदी की मां उनके साथ नहीं रहती. उसका साथ न रहना मोदी के किसी आचार-व्यवहार का प्रतिवाद है.
औरतें प्रतिवाद भिन्न तरीके से करती हैं. वे मर्दों की तरह प्रतिवाद नहीं करतीं. मोदी की मां का मोदी से अलग रहना, मोदी का अकारण अपनी पत्नी को छोड़कर रहना, ये दो घटनाएं निजी होते हुए भी सार्वजनिक हैं और आमलोगों का ध्यान खींचती हैं. ये वे घटनाएं हैं जो मोदी के अंदर छिपे अनुदार पितृसत्तात्मक नजरिए की अभिव्यक्ति भी हैं.
हमारे समाज में एक बड़ा तबका है जो अनुदार पितृसत्ता का भक्त है और कठमुल्लों की तरह जीता है.इसमें वे लोग ज्यादा हैं जो पढ़े लिखे हैं, विदेशों में रहते हैं, मध्यवर्ग से आते हैं. गरीबों में अनुदार पितृसत्ता का आधार बहुत कमजोर है. गरीब औरतें पितृसत्ता से आए दिन मुठभेड़ करती रहती हैं और अपने लिए मार्ग तलाशती रहती हैं लेकिन अधिकांश शिक्षित औरतों और मर्दों में अनुदार पितृसत्ता हमेशा मां की आड़ में औरत का शिकार करती है. मां की आड़ में औरतों के हकों पर हमले करती है.
ये लोग मां-बेटे के संबंधों को पितृसत्तात्मक संदर्भ के बिना देखना ही नहीं चाहते. मां को पितृसत्ता के संदर्भ में देखने का अर्थ है औरत को पुरुष के मातहत के रुप में देखना. मां के शोषण के रुप देखें तो इनलोगों से नफरत होने लगेगी. ये वे लोग हैं जो मां को स्वायत्त औरत के रुप में नहीं देखते. मां एक स्वायत्त सामाजिक स्त्री इकाई है और उसको मां की बजाय स्त्री के रुप में देखना चाहिए. मां के पदबंध का प्रयोग करके मां को तो ये लोग मातहत बनाते ही हैं, साथ ही स्त्री को मातहत रखते हैं.
हीगेल ने कहा था ‘सन्तान का जन्म माता-पिता की मृत्यु भी है.’ इसी तरह मां के प्रति जिस व्यक्ति में सम्मानभाव है उसके अंदर क्या अपनी पत्नी या स्त्री मात्र के प्रति सम्मानभाव है ? मोदी इस मामले एकसिरे से नकारात्मक स्थान पर खड़े हैं. उनके अंदर मां के प्रति जो सम्मान भाव है वह सम्मानभाव अपनी पत्नी के प्रति नहीं है. यह खुला सच है.
जो लोग स्त्री में मां ही मां देखते हैं वे जान लें कि औरत में यदि मां ही मां देखेंगे तो स्त्री कभी स्वायत्त पहचान अर्जित नहीं कर सकती. इसमें मातृत्व पर जोर है इससे स्त्री की स्थिति में बदलाव नहीं आएगा. स्त्री बदले इसके लिए जरुरी है उसे मातृत्व के दायरे के बाहर निकालें. स्त्री का निरासक्त मां बने रहना स्त्री को पिछडा बनाए रखता है और उसे आधुनिक आत्मनिर्भर स्त्री के रुप में विकसित नहीं होने देता.
मां तो औरत के व्यक्तित्व का एक अंश है, समग्र नहीं है. हमें स्त्री को उन कार्यों के बाहर निकालने के बारे में सोचना चाहिए जिनको वह सदियों से करती आ रही है. मसलन् मां का बच्चे पालना, बच्चे का देखभाल करना, आशीर्वाद देना, प्यार करना, घर की देखभाल करना, मां ये सारे काम हजारों सालों से करती रही है और ये काम उसकी गुलामी की अवस्था के प्रतीक हैं. औरत को इन कामों के दायरे बाहर निकलना होगा. मोदी की मुश्किलें यहीं पर हैं.
जो मोदी और उनकी मां के बीच के संबंध को लेकर भावविह्वल हैं, वे भी अंततः अपनी भावविह्वलता में औरत को गुलाम बनाए रखने का शास्त्र रच रहे हैं. मां को हमने पालन-पोषण करने वाली मशीन बनाया है उसे साक्षात जीवन का आनंद लेने वाली स्वायत्त औरत नहीं बनाया है. हम मां-बेटे के प्यार के महिमामंडन में जाने-अनजाने पुराने अनुदार मां-बेटे के संबंध की हिमायत कर रहे हैं. यह हिमायत मूलतः हिटलर के विचारों की हिमायत है.
हिटलर मानता था स्त्री का काम है बच्चे पैदा करना और परिवारीजनों की घर के अंदर रहकर सेवा करना. अनुदार पितृसत्ता के संघी हिमायतियों और उनके सोशल मीडिया अनुयायियों को मां-बेटे का वह रुप पसंद है, जो मोदी और उनकी मां के बीच में है. यह रुप वैचारिक तौर पर हिटलर के द्वारा तय की गयी लक्ष्मण-रेखा के बाहर नहीं जाने देता.
मेरे लिए चिन्ता तब और होती है जब कोई आधुनिक पढ़ी-लिखी औरत अपने भावों-विचारों में मोदीभक्त हो और उसके अनुदार पितृसत्तात्मक विचारों की भी भक्त हो. यह कम्प्लीट पुंसवादी गुलामी है. स्त्री के अंदर अनुदार पितृसत्तात्मक विचारधारा बेहद खतरनाक होती है यह विचारधारा स्त्री के आधुनिकीकरण की विरोधी है. यह औरत की स्वायत्तत और लोकतांत्रिक पहचान का निषेध करती है.
संघ ने दुर्गावाहिनी और इस तरह के संगठनों के जरिए औरतों में अनुदार पितृसत्ता का जमकर प्रचार किया है. ये वे औरतें हैं जो अनुदार पितृसत्ता की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाकर स्त्री अधिकारों का हनन कर सकती हैं. ये ही औरतें वैचारिक तौर पर मोदी भक्ति में सोशल मीडिया से लेकर राजनीति तक सक्रिय हैं.
विगत पांच सालों के टीवी प्रचार ने मोदी को औरतों और बेकारों में बेहद जनप्रिय बनाया है. यह तबका मानता है कि मोदी सही कर रहे हैं, ईमानदार हैं, देश का नाम रोशन कर रहे हैं आदि. लेकिन ज्यों ही इन लोगों से उदाहरण देने की कहो तो चुप हो जाते हैं. कारण विहीन मोदी की इमेज का घर घर में जनप्रिय बनना अपने आपमें मीडिया प्रभाव की बड़ी चुनौती है. इस चुनौती का एकमात्र विकल्प है टीवी के बाहर रहने वाली औरतों को गोलबंद करो.