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दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष:उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है

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कंवल भारती

पिछली बीसवीं सदी के अंतिम दशक में शुरू हुई वर्तमान हिंदी दलित कथा-साहित्य की यात्रा अपने तीन दशक पूरे कर चुकी है, और चौथे दशक में प्रवेश कर गई है। हालांकि यह अवधि बहुत बड़ी नहीं है, पर परिपक्वता की दृष्टि से छोटी भी नहीं है। इसलिए यह देखना जरूरी हो जाता है कि इस यात्रा में हिंदी दलित कथा-साहित्य किन पगडंडियों से गुज़रकर आज किन रास्तों पर पहुंचा है?

हिंदी में जब दलित कहानी आई, तो वह मुख्यधारा की हिंदी कहानी के लिए भी एक नई परिघटना थी। एक तरह से दलित कहानी ने नई कहानी के ‘नयापन’ पर सवालिया निशान लगाया था, क्योंकि, नई कहानी से पहले की हिंदी कहानी में दलित जीवन का जो थोड़ा-बहुत अक्स दिखता था, वह नई कहानी और समांतर कहानी तक आते-आते गायब हो गया था। इसलिए दलित कहानी इन प्रयोगवादियों के लिए भी एक चुनौती थी। वे उससे हैरान भी थे, और परेशान भी। हालांकि दलित कहानी का समाज उनकी समझ से परे नहीं था, पर उनके लोक से बाहर था। ऐसा भी नहीं है कि वे उस यथार्थ को जानते या समझते नहीं थे, पर उसे महसूस नहीं करते थे। इसलिए वे उसके समर्थन में कम और विरोध में ज्यादा हो गए। विरोधी खेमे ने उसे जातीय लेखन कहकर खारिज करना चाहा, जो उनके लिए आसान भी था, और स्वाभाविक भी। लेकिन वे इस हकीकत को समझ भी रहे थे कि प्रेमचंद के बाद, दलित कथाकारों ने ही भारतीय समाज के अलोकतांत्रिक चरित्र को उभारा था, और उसके सांप्रदायिक और जातिवादी चरित्र से पीड़ित समाज की व्यथा को चित्रित किया था। इसलिए जब इससे बात नहीं बनी, तो आलोचकों ने दलित कहानी में शिल्प, भाषा और कला के सौंदर्य पर प्रश्न खड़े किए। लेकिन दलित कथाकारों ने मुख्यधारा के न प्रतिमानों को स्वीकार किया और न सौंदर्य-शास्त्र को। दलित कहानी ने अपना अलग ही सौंदर्य-शास्त्र निर्मित किया, और हिंदी चिंतन में एक नए विमर्श की धारा प्रवाहित की। इस धारा की उपलब्धि यह रही कि वर्ग-संघर्ष की बात करने वाले प्रगतिशील लेखकों ने भी जातीय संघर्ष को शिद्दत से अनुभव किया। 

हेमलता महिश्वर, अनिता भारती, रजत रानी मीनू, कौशल पंवार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, अजय नावरिया, रत्न कुमार सांभरिया

वर्णव्यवस्था और जातिवाद ने न केवल एक अलगाववादी समाज का निर्माण किया, बल्कि कुछ इलाकों में दलित जातियों को गुलाम बनाने वाली एक क्रूरतम प्रथा भी निर्मित की। यह ऐसी प्रथा थी, जिसकी कोई मिसाल दुनिया में नहीं थी। यह दलितों के मान-सम्मान और गौरव को कुचलने वाली प्रथा थी, जो कहीं-कहीं ‘सलाम’ के रूप में थी, तो कहीं दलित युवक की ब्याहता स्त्री को पहली रात गांव के जमींदार ठाकुर के घर भेजने के रूप में थी। इस प्रथा पर मुख्यधारा के कथासाहित्य में कोई कहानी नहीं मिलती। इस कटु यथार्थ को पहली बार दलित लेखकों ने ही अपनी कहानियों में दर्ज किया। इस संदर्भ में दो कहानियां उल्लेखनीय हैं। पहली ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सलाम’ कहानी, जो अगस्त, 1993 में हंस में छपी थी, और दूसरी उमेश कुमार सिंह की ‘एक रात का अंत’, जो दलित वार्षिकी, 1999 में प्रकाशित हुई थी। ‘सलाम’ प्रथा के तहत दलित जाति के लड़के को शादी के बाद अपनी नई-नवेली दुल्हन को लेकर उच्च जातियों की हवेलियों में ‘सलाम’ करने के लिए जाना होता था। यह बहुत ही अपमानजनक रस्म थी। ‘सलाम’ कहानी में भंगी जाति का युवक हरीश अपने विवाह पर सवर्णों के घरों में जाकर सलाम करने की रस्म निभाने से मना कर देता है, और गांव के रांघड़ (सवर्ण) पहली बार दलितों के विद्रोह को अनुभव करते हैं। 

‘एक रात का अंत’ कहानी में पृथ्वीपुर गांव का जमींदार ठाकुर चंदन सिंह की हवेली पर उसका कारिंदा कलुआ अपनी नव-ब्याहता दुल्हन को भेजने से इनकार कर देता है, तो उसकी मां को बहुत ख़ुशी होती है। वह कलुआ को बताती है कि उसका बाप भी उसे ठाकुर की हवेली में भेजने के खिलाफ था। मगर ठाकुर के लठैतों ने उसे जबरदस्ती उठा लिया था। कलुआ मां से कहता है कि वह इस रात का अंत करेगा। ठाकुर कलुआ पर अपनी दुल्हन को नेग के नाम पर हवेली में भेजने का दवाब बनाता है। तब योजना के अनुसार कलुआ रात में स्त्री वेश में ठाकुर के घर जाता है, और जैसे ही ठाकुर उसके नज़दीक आता है, कलुआ फुर्ती से उठकर उसकी गर्दन को अपनी बांह के फंदे में जकड़ लेता है, और तब तक उसे दबाता जाता है, जब तक कि वह मर नहीं जाता है। उसके बाद रात में ही अपनी मां और दुल्हन के साथ गांव से पलायन कर जाता है। 

इन दोनों कहानियों में जो विचारणीय बात है, वह ट्रीटमेंट यानी समस्या का उपचार है। प्रेमचंद की दलित-कहानियों में यह उपचार सवर्ण जातियों के हृदय-परिवर्तन के रूप में मिलता है। दलित कहानी ने जोर देकर रेखांकित किया कि आज़ादी के बाद भी भारत के गांव दलित जातियों के लिए गणतंत्र नहीं बन पाए थे। प्रत्युत, आज़ादी के बाद उन गांवों में दलितों को और भी सामाजिक रूप से अलग-थलग कर दिया गया, जिनमें सवर्ण वर्ग क़ानून तक की परवाह नहीं करता था। एक समय दिल्ली में बेशुमार झुग्गियां थीं। वे उन्हीं लोगों की झुग्गियां थीं, जो इन घेट्टो से पलायन करके दिल्ली आए थे। बाद में उस विशाल दलित आबादी को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की निर्बल आय वर्ग की कॉलोनियों में बसाया गया था। 

हालांकि गांवों से दलितों के पलायन पर प्रेमचंद की अधिक कहानियां नहीं मिलती हैं। ऐसा नहीं है कि उनके दौर में पलायन नहीं हुआ था। अंग्रेजों की नई औपनिवेशिक कॉलोनियों के लिए दलित-बहुजनों का सबसे अधिक पलायन पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों से ही हुआ था, जिसके पीछे रोजगार के नए अवसर प्राप्त करने के साथ-साथ सवर्णों और ज़मींदारों के अत्याचारों से मुक्ति की भी ख़ुशी थी। फिजी, मारिशस, गुयाना, त्रिनिनाद, जमैका और सुरिनाम उपनिवेशों में बड़ी संख्या में कुली के रूप में दलित-बहुजन जातियों के स्त्री-पुरुषों ने पलायन किया था। उस दौर में दलित-बहुजन जातियों में शिक्षा का प्रकाश नहीं के बराबर था। इसलिए उस दौर में किसी क्रांतिकारी दलित लेखन के उभार की अपेक्षा संभव नहीं थी। असल में शिक्षित दलितों का नौकरियों में आना ही ख़ास तौर से स्वतंत्रता मिलने के बाद, उन्नीस सौ सत्तर और अस्सी के दशकों में हुआ था। इसलिए प्रेमचंद के यहां भी दलित वर्ग केवल भूमिहीन श्रमिक वर्ग ही है। लेकिन जहां वह ‘सौभाग्य के कोड़े’ कहानी में धर्मांतरण और शिक्षा के महत्व को दलितों की मुक्ति के रूप में देख रहे थे, वहीं ‘अमरकांत’ उपन्यास में अंग्रेजी शिक्षा और नौकरियों के लिए दलितों की जद्दोजहद को भी रेखांकित कर रहे थे। यह एक बड़ी बात है, जो हमें प्रेमचंद के यहां मिलती है। लेकिन असली जद्दोजहद और पलायन की कहानियां दलित लेखकों ने ही लिखीं, जब वे अस्सी के दशक में काम की तलाश और नौकरी की वजह से गांवों से शहरों में आए, और एक नए समाज के संपर्क में आए, जिसमें गांवों जैसी दहशत तो नहीं थी, पर घृणा और भेदभाव में कमी नहीं थी। दलितों के लिए यह शहरी वातावरण पहली बार हिंदी में ओमप्रकाश वाल्मीकि, जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, रत्नकुमार सांभरिया, सुशीला टाकभौरे, दयानंद बटोही, सी.बी. भारती, प्रहलादचंद दास की कहानियों में देखा गया। ऐसी कुछ कहानियों पर संक्षिप्त चर्चा यहां जरूरी है।  

वर्ष 1995 में नव भारत टाइम्स में प्रकाशित दयानंद बटोही की कहानी ‘सुरंग’ विश्वविद्यालय में दलित छात्रों के साथ किए जाने वाले भेदभाव का पर्दाफाश करती है। इस कहानी में एक दलित छात्र को पीएचडी में प्रवेश नहीं दिया जाता है, क्योंकि उसने एम.ए. द्वितीय श्रेणी में पास किया था। लेकिन उसी विश्वविद्यालय में कई सवर्ण छात्र तृतीय श्रेणी में एम.ए. पास करने पर भी रिसर्च कर रहे थे। दलित छात्र को अपने अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। वह छात्र संघ का भी सहारा लेता है, तब कहीं जाकर उसे पीएचडी करने की अनुमति मिलती है। 

शिक्षित दलितों के अंतर्विरोधों को भी दलित कथाकारों ने पूरी शिद्दत से उभारा है। दलितों के शहरीकरण ने उन्हें इस हद तक भी बदला कि वे न केवल अपनी जाति छिपाकर कॉलोनियों में रहने के बाद भी अपनी पाखंडी परंपराओं से चिपके रहे, बल्कि अनेक ने गांव की अपनी अशिक्षित पत्नी को छोड़कर शहर में शिक्षित सवर्ण स्त्रियों से भी विवाह कर लिया था। इस संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो कहानियां उल्लेखनीय हैं। एक है ‘भय’ (हंस, अक्टूबर 1994) और दूसरी है ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूं’ (राष्ट्रीय सहारा, 10 सितंबर 2000)। ‘भय’ जाति छिपाकर रह रहे एक वाल्मीकि परिवार की कहानी है, जो माई मदारिन की पूजा के लिए सूअर का बच्चा चढ़ाने का पाखंड भी घर में करते हैं, और डरते भी हैं कि किसी को पता न चल जाए कि हम अनुसूचित जाति से हैं। दूसरी कहानी में मोहन लाल शर्मा और गुलजारी लाल शर्मा दोनों एक ही कॉलोनी में रहते हैं, दोनों में इतनी गहरी दोस्ती है कि रिश्तेदारी भी बन जाती है। गुलजारी लाल अपनी लड़की का विवाह मोहन लाल के अफसर लड़के से तय कर देता है। विवाह की तैयारियां शुरू हो जाती हैं कि अचानक गुलजारी लाल के समक्ष यह हकीकत खुल जाती है कि मोहन लाल ब्राह्मण नहीं है, बल्कि मिरासी जाति का है। जाति खुलते ही गुलजारी लाल के लिए मोहन लाल कमीना हो जाता है। 

ओमप्रकाश वाल्मीकि पहले दलित कथाकार हैं, जिन्होंने अपने समाज के विद्रूप को दिखाने में भी संकोच नहीं किया। वह देख रहे थे कि नौकरी करने वाले शिक्षित दलितों में एक ऐसा वर्ग भी उभरने लगा था, जो अपने ही दबे-कुचले समुदाय के लोगों के उत्थान के लिए अपने कर्तव्य को भूलकर स्वयं उनका ही शोषण करने वाले वर्ग में शामिल हो रहा था। यह कहानी ‘अम्मा’ (‘वसुधा’, दिसंबर-मार्च, 1996) है, जिसमें घरों में पखाना कमाने वाली महिला ने अपने दोनों लड़कों को इस गंदे काम से दूर रखकर उनके हाथों में कलम थमाई। पहला लड़का शिव चरण नगरपालिका में क्लर्क हो जाता है। लेकिन नौकरी के साथ-साथ वह नेतागिरी भी करने लगता है, और अफसरों-बाबुओं से संपर्क बनाकर दलाली और रिश्वतखोरी शुरू कर देता है, जिसमें वह अपना-पराया और जात-बिरादरी कुछ नहीं देखता। अम्मा को जब यह पता चलता है, तो उसका चेहरा फक्क पड़ जाता है। वह शिव चरण से कहती है, “आज से तू अपना चौका-चूल्हा अलग कर ले, मन्नै ना खाणी इस कमाई की रोटी।” शिव चरण बचाव में कहता है, “ठेकेदार इतने सालों से यही काम कर रहा था। मैं करने लगा तो इसमें बुराई क्या है?” तब अम्मा जवाब देती है, “बुराई तो डाका डालने में भी ना है। सूद पे रुपया चलाने में भी ना है। पर बेट्टे, करेक उनकी भी तो सोच, जो अपने जातकों के मुंह का कोर छीन के अपनी मिहनत की कमाई तेरे हाथ पे धरे हैं।”

संस्कृतीकरण की अंधी दौड़ में अनेक दलित अफसरों ने गांव में अपने माता-पिता की गरीबी और अशिक्षित पत्नी से मुंह मोड़ लिया था, और शहर में उच्च जातियों की लड़कियों से विवाह करके ‘कुलीन’ बन गए थे। इन दलित अधिकारियों ने अपने समाज और अपने परिवार के उत्थान में कोई रूचि नहीं ली, बल्कि उनके दुखों को भी कभी जानने की कोशिश नहीं की। इस विषय पर सी.बी. भारती की कहानी ‘स्टेटस’ (‘हम दलित’, फरवरी, 1995) उल्लेखनीय है। यह एक दलित जाति के एक आईएएस अधिकारी भुवन की कहानी है, जिसके पिता गांव में ज़मींदार के खेतों में हलवाही करते थे। भुवन गरीबी में पला था। परिवार का वह पहला लड़का था, जिसने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। शिक्षा के दौरान ही माता-पिता ने उसकी शादी कर दी थी। इसके लिए पिता ने ज़मींदार के कोरे कागज़ पर अंगूठा लगाकर कुछ रकम उधार ली थी। भुवन का आईएएस के लिए चयन हो जाता है, और फिर वह ट्रेनिंग के लिए बाहर चला जाता है। भुवन की उच्च शिक्षा में उसकी पत्नी के सारे गहने बिक गए थे। पर वह खुश थी कि उसका पति बहुत बड़ा अफसर बन गया है, और अब सब ठीक हो जाएगा। लेकिन कुछ ठीक नहीं होता। भुवन ट्रेनिंग से कभी लौटकर नहीं आया। वह उसका इंतज़ार ही करती रही, और भुवन शहर में उच्च जाति की लड़की से विवाह करके रहने लगता है। 

अधिकांश दलित लेखकों की सामाजिक पृष्ठभूमि ग्रामीण परिवेश की है। और हिंदू विद्वान लाख कहें कि उनके गांव भारत के गणतंत्र हैं, लेकिन सच यह है, जैसा कि आंबेडकर ने भी लिखा है, भारत के गांव हिंदू समाज-व्यवस्था (वर्णव्यवस्था) के ‘वर्किंग प्लांट’ हैं। गांव के भीतर की तस्वीर उसे गणतंत्र नहीं बनाते, क्योंकि उसमें दलित जातियों के लिए स्वतंत्रता और समानता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इन गांवों में मरे पशुओं को उठाना और हर तरह की बेगारी करना ही दलित जातियों की नियति थी। पहली पीढ़ी के लगभग सभी दलित कथाकारों ने गांवों के इस अलोकतांत्रिक परिवेश को अपनी कहानियों में पूरी शिद्दत से चित्रित किया है। इस कड़ी में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘गोहत्या’ (‘निष्कर्ष’, अंक 17-18), ‘बैल की खाल’ (हंस, दिसंबर, 1992), मोहनदास नैमिशराय की ‘अपना गांव’ (दलित कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्ता), जयप्रकाश कर्दम की ‘सांग’ (पश्यन्ति, 1995), श्यामलाल राही की ‘फैसला’ (अपेक्षा, जनवरी-मार्च, 2007), विपिन बिहारी की ‘कंधा’ (माझी जनता, नवंबर, 2000), श्यौराज सिंह बेचैन की ‘हम शक्ल’ (2020), रत्नकुमार सांभरिया की ‘फुलवा’ (हंस, मई, 1997) और सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’ (1999) आदि कहानियां विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। 

‘गोहत्या’ में गांव की सवर्णों की इस रूढ़ धारणा को दिखलाया गया है कि खाल के लिए चमार जहर देकर जानवरों को मार देते हैं। इस धारणा के तहत सुक्का को गोहत्या के झूठे आरोप में आग में तपे हुए लोहे से दागा जाता है। ‘बैल की खाल’ कहानी में इसी धारणा के तहत गांव में मरे पड़े बैल को न उठाने के लिए चमारों को मां-बहिन की गालियां दी जाती हैं। ‘अपना गांव’ में ठाकुरों के जुल्म को चित्रित किया गया है, जिसकी शिकार दलित स्त्रियां होती हैं। ‘सांग’ गांव के दबंग ठाकुरों के जुल्म की कहानी है, पर इसमें दलित स्त्री दरांती से जुल्मी का सिर काट देती है। इस दृष्टि से यह दलित विद्रोह की भी कहानी है। ‘कंधा’ में इस षड्यंत्र का पर्दाफाश किया गया है कि सवर्ण समुदाय दलित की हत्या में बंदूक चलाने के लिए दलित के ही कंधे को इस्तेमाल किया जाता है। ‘हम शक्ल’ कहानी उस दौर की कहानी है, जब गांव में राजनीतिक सत्ता के लिए जीत दलित वोटों पर निर्भर करती थी। सवर्ण नेता गांव की राजनीति में दलित का कार्ड कितने हिंसक ढंग से खेलते हैं, उसे यह कहानी परत-दर-परत उधेड़ती चलती है। ‘फुलवा’ में गांव के दमघोटू वातावरण का सिर्फ़ मार्मिक चित्रण ही नहीं है, बल्कि उस वातावरण से निकले दलित जाति के राधामोहन की पुलिस अधीक्षक बनने तक की भी दिलचस्प कहानी है। ‘परिवर्तन की बात’ और ‘फैसला’ इन दोनों कहानियों में चमार जाति में आए परिवर्तन को चित्रित किया गया है, जिसके तहत वे बेगार न करने और मरे जानवरों को न उठाने का फैसला करते हैं। 

दलित कहानी के दूसरे दौर का आरंभ अजय नावरिया के कथा-कर्म से होता है। इस दौर के दलित कथाकरों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो ग्रामीण पृष्ठभूमि से कम और शहरी परिवेश से अधिक आए हैं। इनमें कैलाश वानखेड़े, सूरज बड़त्या, टेक चंद, अनिता भारती, राजेंद्र बड़गूजर, हेमलता महिश्वर, सुमित्रा महरोल, रजनी दिसोदिया, दिलीप कठेरिया, पूरन सिंह, अजमेर सिंह काजल, राजकुमारी, हीरालाल राजस्थानी, कौशल पंवार, नामदेव, सुनीता देवी, वंदना, कैलाश चौहान, रजनी अनुरागी, अर्जुन सावेदिया, तेजपाल सिंह ‘तेज’ इत्यादि। 

अजय नावरिया के कथा-कर्म से दलित कहानी ने नई करवट ली। उन्होंने संवेदना के बहुत से नए वातायन खोले। उन्होंने उन संकीर्णताओं को तोड़ा, जो इससे पहले की दलित कहानी में एक रूढ़ि बनी हुई थी। उनमें जाति की पीड़ा ठहरी हुई-सी थी, और उसमें दलित-जीवन के अंतर्विरोध नहीं थे। पर अजय नावरिया ने दलित समाज को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा, और चित्रित किया। 2001 में ‘कथाक्रम’ में प्रकाशित उनकी पहली कहानी ‘अनचाहा’ है, जिसमें गर्भपात के विरुद्ध एक अजन्मे प्राणी की हत्या की व्यथा का मार्मिक चित्रण है। इस कहानी ने दलित कहानी को एक नया आयाम दिया और उस संवेदना के प्रति चेतना पैदा की, जो इससे पहले दलित कहानी में नहीं थी। इसी तरह उनकी एक कालजयी कहानी ‘उपमहाद्वीप’ (हंस, 2004) है, जो गांव के घेटोआइजेशन की यातना को ही नहीं, बल्कि नगरीय सभ्यता में भी उसके अमूर्त स्वरूप को दिखाती है। इसी तरह ‘नकाब’ (2006, अन्यथा) में उन्होंने दलित पितृसत्ता को बेनकाब किया है, जिसमें रोज स्त्री की पिटाई होती है, और कन्या जनने पर उसे प्रताड़ित किया जाता है। दलित-समाज के इस अंतर्विरोध का मार्मिक चित्रण अजय नावरिया ने किया है। ‘यस सर’ (2009) कहानी में उन्होंने इस मिथ को तोड़ा है कि दलितों में सवर्णों के प्रति घृणा होती है। इस कहानी में एक ब्राह्मण चपरासी अपने दलित अधिकारी के प्रति घृणा रखता है, और उसे अपना विरोधी समझता है। लेकिन वही दलित अधिकारी उस चपरासी की प्रोन्नति की सिफारिश करता है, और उसे बाबू बनाता है। हाल में इस कहानी पर एक टेलीफिल्म भी बनी है। उनकी अन्य दो कहानियां ‘आवरण’ (कथादेश, 2019) और ‘संक्रमण’ (हंस, 2020) दलित चेतना की सबसे उच्च स्तर की कहानियां हैं। जहां ‘संक्रमण’ विदेशी पृष्ठभूमि पर पहली दलित कहानी है, तो ‘आवरण’ में प्रेम का प्रस्फुटन सहवास में हुआ है। दोनों कहानियों में सेक्स है, और यह भी दलित कहानी में पहली बार आया है। 

इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहानी-लेखन में एक बड़ी संख्या में दलित लेखिकाओं का प्रवेश हुआ है। इनमें कई लेखिकाओं ने नए परिवेश की कहानियां लिखी हैं, जिनमें रजत रानी मीनू, हेमलता महिश्वर, कौशल पंवार, दीपा, वंदना, सुनीता देवी, अनिता भारती, रजनी दिसोदिया, पूनम तुषामड़, राजकुमारी और सुमित्रा मेहरोल प्रमुख हैं।

लेकिन वर्तमान दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष भी है और वह यह कि उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है। राष्ट्रवाद की राजनीति ने दलितों को कितना प्रभावित किया है, इस विषय पर कोई दलित कहानी नहीं मिलती। जातिवाद और सांप्रदायिकता की वर्तमान चुनौतियां भी दलित कहानीकारों को चिंतित नहीं कर रही हैं। यह वास्तव में चिंतनीय विषय है कि दलित कहानी दलित समाज का राजनीतिक मार्ग-दर्शन क्यों नहीं कर रही है? आज किसान-विमर्श पर कोई दलित कहानी नहीं है, न खेत-मजदूरों की समस्या पर कोई कहानी है और न सांप्रदायिक दंगों में दलितों के इस्तेमाल पर कोई कहानी लिखी गई है। डॉ. आंबेडकर की इस चेतावनी की ओर भी दलित कहानीकारों का ध्यान नहीं जा रहा है कि हिंदू राज्य, जिसे वर्तमान राजनीतिक सत्ता कायम करने की दिशा में योजना-बद्ध तरीके से आगे बढ़ रही है, अगर वास्तव में स्थापित हो गया, तो वह लोकतंत्र के लिए विनाशकारी साबित होगा। हिंदू राज्य में दलित-पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय स्वतंत्रता, समानता और आर्थिक विकास के अवसरों से वंचित हो जाएंगे। इसका कारण कुछ भी हो, पर यह दलित कहानी को अपूर्ण बनाती है।

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