अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

अस्पताल में लघु उत्तरीय प्रश्नों के बीच दीर्घ उत्तरीय जवाबों को खोजती एक रात

Share

~प्रखर अरोड़ा 

     आशंकाओं ने मेरे भीतर आहटों को सुनने के सौ दरवाज़े खोल दी हैं। जहां नहीं होती है, वहाँ भी आहटों को गढ़ रही हैं। बिस्तर पर पड़ा-पड़ा बेदम हुआ जा रहा हूँ। कान शरीर से अलग हो गए हैं और उतर कर चलने लगे हैं। उन आहटों के पास दौड़ कर पहुँच जाते हैं, जो होती भी नहीं।

       आप सुनना नहीं चाहते, वही सब सुनाई दे रहा है। कोई चल नहीं रहा होता है मगर चलने की आवाज़ आने लगती है। कई बार लगा कि सब दौड़ कर मेरे पास आ रहे हैं, फिर लगा कि सब दौड़ते हुए मुझसे दूर जा रहे हैं। दरवाज़े बंद हैं फिर भी उनके खुलने-बंद होने की आवाज़ आ रही है।

         लकड़ियां करवट बदल रही होंगी।  कुछ सुनना नहीं चाहता मगर सब सुनाई दे रहा है। अपनी ही धुकधुकी सुन रहा हूँ या वाक़ई कोई आवाज़ घट रही है?  पूरे शरीर में आशंकाएं गूंज रही हैं। कल्पनाओं में घमासान मचने लगा।

         कमज़ोर उम्मीदों से लैस ख़्यालों का एक समूह मज़बूत नाउम्मीदी के दूसरे समूह से हार रहा है। हारते को आख़िरी सहारा देने की कोशिश में काँप रहा हूँ। अपने भीतर डर की खाई बनते देख रोक नहीं पा रहा। अपने डर को सुनना सबसे बड़ा डर होता है। 

बात-बात में ख़ुद को शेर कह देना और किसी दुस्वप्न में शेर के पिंजड़े में बंद होते देखना, अहसास दिलाता है कि शेर हमारे अशक्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।

      ऐसा लगता है कि शेरों ने मानव प्रजाति पर इतने हमले किए हैं कि उनका डर आज तक नहीं गया। मकानों के जंगलात के बीच शेर के नहीं होने की गारंटी है,फिर भी कोई शेर होने का दावा कर देता है।यह सब संवाद चलने लगा है और मैं इन्हें लिखने के लिए समेट रहा हूं।

     काश अपने फोन के तमाम व्हाट्स एप ग्रुप में आवाज़ लगा पाता कि कोई जाग रहा है। सबने कहा तो है कि सब अच्छा होगा। सबके पास कहने के लिए इतना ही है। वे सुनने के लिए तैयार हैं मगर मेरे पास ही कहने के लिए कुछ नहीं है।

       बार-बार डॉक्टर की रिपोर्ट दोहराना वो कहना नहीं होता है जो आप कहना चाहते हैं। मुझे तो उससे कहना है जिसके ख़्यालों के साथ जाग रहा हूँ। उससे नहीं जो आश्वासन देने के बाद सो चुका है।

जब आप अपनी लड़ाई अकेले लड़ते हैं, तब हमेशा आरंभ के बिंदु पर खड़े होते हैं। मैं पहली बार की तरह डर से घिरी रात में लड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। अस्पताल की रात सिर्फ अस्पताल में नहीं होती है।

      अस्पताल से बहुत दूर उन तमाम कमरों में होती है, जहां कोई उसके लौट आने और कभी न लौट पाने की आहटों को सुन रहा होता है। 

       हम हर दिन अनगिनत बार आख़िर का साक्षात्कार करते हैं। कितनी आसानी से किताब के आख़िरी पन्ने पर पहुँच कर उसे पलट देते हैं। लंबी मुलाक़ात के बाद आख़िरी बात ख़त्म कर लेते हैं। फ़ोन रखने से पहले बातचीत के आख़िरी मोड़ पर पहुँचने का एलान कर देते हैं।

कितनी बार आख़िरी कौर मुंह में डाल कर थाली को सिंक में डाल आते हैं। आख़िरी बार लैपटॉप बंद कर कमरे से निकल जाते हैं या वहीं सो जाते हैं।

       हम कितनी बार आख़िर का अभ्यास करते हैं, इसके बाद भी आख़िरी सांस की आशंकाएं उस आरंभ पर पहुंचा देती है, जहां हमारे बायोडेटा में लिखा होता है, कोई अनुभव नहीं है। यह एक भ्रम है कि हमें सब कुछ स्वीकार कर लेने का अभ्यास हो चुका है। 

     अस्पताल में कितने लोगों की आँखें नम दिखती हैं। कोई नीचे देखता जा रहा है तो कोई ऊपर। मैं जानना चाहता हूँ कि वह जो उदास है, जिसकी आँखें नम हैं, क्या वह ठीक उसी तरह से कह रहा है, जैसे मैं नोट कर रहा हूँ।

      उसके पास कहने की कोई सी भाषा है? शायद वह कहने की चिंता छोड़ मन्नत माँगने में लगा होगा। उसने कहने का काम दूसरी अज्ञात शक्ति पर छोड़ दिया है।जैसे हम किसी कवि पर छोड़ देते हैं, अपने समय को लिपिबद्ध करने की ज़िम्मेदारी और पुरस्कार मिलने उससे करने लगते हैं हिसाब कि कवि ने क्या क्या नहीं लिखा।

     डॉक्टर ने काफ़ी कुछ कहने के बाद भी क्या-क्या नहीं कहा, यही क्यों सुनाई देता रहा रात भर।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें