(वैश्विक ख्यातिलब्ध रसियन साहित्यकार मक्सिम गोर्की की सर्जना)
~ पुष्पा गुप्ता
यह एक आम रिवाज हो गया है कि साल में एक बार बड़े दिन की कहानियों में कुछ एक छोटे लड़कों और लड़कियों को बर्फ़-पाले में जामकर मार दिया जाता है। बड़े दिन की प्रतिष्ठित कहानी का बेचारा ग़रीब छोटा लड़का या बेचारी ग़रीब छोटी लड़की आमतौर से किसी प्रासाद की खिड़की के रास्ते शानदार दीवान-खाने में जगमग करते बड़े दिन के पेड़ को मुग्ध भाव से खड़ी देखती रहती है और इसके बाद बर्फ़-पाले में जाम होकर मर जाती है, कड़ुवाहट और घोर निराशा में डूबी।
इन लेखकों के भले इरादों की मैं क़द्र करता हूँ, बावजूद उस निर्ममता के, जिससे कि वे अपने नन्हें हीरों और हीरोइनों का टिकट कटाते हैं। मैं जानता हूँ कि ये लेखक इन ग़रीब छोटे बच्चों को इसलिए जाम करते हैं कि छोटे धनी बच्चों को उनके अस्तित्व की याद दिलाई जा सके, लेकिन जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, इतने शुभ लक्ष्य तक के लिए किसी छोटे ग़रीब लड़के या छोटी ग़रीब लड़की को जाम करके मारना मेरे बूते से बाहर है।
मैं ख़ुद बर्फ़-पाले में जाम होकर कभी नहीं मरा और मैंने किसी छोटे ग़रीब लड़के या छोटी ग़रीब लड़की को कभी जाम होकर मरते नहीं देखा। इसलिए मुझे डर है कि जाम होकर मरने की वेदना का चित्रण करने का मेरा प्रयत्न – अगर मैंने ऐसा किया तो – कहीं हास्यास्पद बनकर न रह जाये। इसके अलावा यह कुछ बहुत ही अटपटा भी मालूम होता है कि एक जीवित प्राणी को केवल इसलिए मार दिया जाये कि एक-दूसरे जीवित प्राणी को उसके अस्तित्व की याद दिलाई जा सके।
यही कारण है कि जो मुझे एक ऐसे छोटे लड़के और एक ऐसी छोटी लड़की की कहानी कहना ज़्यादा पसन्द है जो बर्फ़-पाले में जाम होकर नहीं मरे।
बड़े दिन से ठीक पहली साँझ थी। छह बजे थे। हवा चल रही थी, बर्फ़ के बादल उड़ाती। ये ठण्डे पारदर्शक बादल, झिलमिल चूरे की भाँति हल्के और कमनीय, चारों तरफ़ उड़ते फिर रहे थे। वे राह-चलतों के चेहरों से टकराते, गालों में सुइयाँ-सी चुभाते और घोड़ों के अयालों पर बरफ छिड़क जाते।
घोड़े अपने सिरों को झटकते, ज़ोरों से हिनहिनाते और ज़ोर से अपने नथुनों से भाप के बादल छोड़ते। बिजली के तारों पर बर्फ़ ऐसे पड़ा था कि वे सफ़ेद रेशमी रस्सी की भाँति मालूम होते। आसमान एकदम साफ़ और सितारों से अटा था। वे इतनी तेज़ी से चमक रहे थे कि ऐसा लगता था कि किसी ने, बड़े दिन के उपलक्ष्य में, उन्हें पालिश से रगड़कर चमका दिया हो, हालाँकि यह एक असम्भव-सी बात थी।
सड़क पर लोगों की भारी चहल-पहल और शोरगुल बढ़ रहा था। बीच घोड़े थिरक रहे थे और लोग फुटपाथों पर चल रहे थे – कुछ उतावली में और कुछ फ़ुरसत के साथ धीरे-धीरे। कुछ उतावली में इसलिए थे कि उन्हें चिन्ताओं और ज़िम्मेदारियों का अहसास था और उनके पास गर्म कोट नहीं थे, और फ़ुरसत में इसलिए थे कि वे इन ज़िम्मेदारियों के बोझ से मुक्त थे और उनके पास गर्म यहाँ तक कि बालदार भी – कोट थे।
इन्हीं लोगों में से एक – जो चिन्ताओं से मुक्त था और सुन्दर कालर का कोट पहने था, सो भी ऐसा, जिसमें पैबन्द लगा था, बहुत ही क़ायदे के साथ पटरी पर चल रहा था। उस सज्जन के ठीक पैरों के नीचे चिथड़ों और गूदड़ में लिपटी दो छोटी-छोटी गेंदें-सी लुढ़कती दिखायी दीं और साथ ही साथ दो नन्हीं आवाज़ें सुनायी दीं –
“दया के सागर…” एक छोटी लड़की ने सुर छेड़ा।
“राजाओं के राजा…” एक छोटे लड़के का स्वर भी उसके साथ आ मिला।
“एक टुकड़ा रोटी के लिए दान करो, कुछ तो दो, मालिक!”
“एक कोपेक रोटी के लिए। त्योहार के दिन के लिए!”
इस तरह दोनों ने अपनी प्रार्थना सम्पन्न की।
ये बच्चे ही इस कहानी के हीरो और हीरोइन थे – छोटे ग़रीब बच्चे। लड़के का नाम था मिश्का प्रिश्च और लड़की का कात्का रियाबाया।
उस महाशय ने रुकने की ज़हमत नहीं उठायी, इसलिए बच्चे बार-बार उनके पैरों के नीचे डुबकियाँ लगाते और उसके सामने आकर खड़े हो जाते। कात्का अत्यधिक आशा से दम साधे फुसफुसाकर कहती, “सिर्फ़ एक टुकड़ा,” और मिश्का इस सज्जन की राह रोकने की कोशिश बाक़ी नहीं छोड़ता।
वह व्यक्ति जब इस सबसे ऊब उठा तो उसने अपने फ़रदार कोट का बटन खोलकर अपना बटुवा बाहर निकाला, नाक के पास बटुवे को फड़काते हुए एक सिक्का उसमें से बाहर निकाला फिर उस सिक्के को अपनी तरफ़ फैले नन्हें-नन्हें तथा अत्यन्त गन्दे हाथों में से एक में – डाल दिया।
चिथड़ों की वे दोनों गेंदें, पल-भर में, इस सज्जन के रास्ते से हटकर एक फाटक पर जा रुकीं जहाँ वे कुछ देर तक एक-दूसरे से चिपकी खड़ी रहीं और चुपचाप सड़क पर ऊपर-नीचे नज़र दौड़ाती रहीं।
“बूढ़ा शैतान, हमारी ओर कम्बख़्त ने देखा तक नहीं,” छोटा ग़रीब लड़का कुत्सा से भरे विजयी अन्दाज़ में फुसफुसा उठा।
“वह मोड़ के उधर, गाड़ीवानों के यहाँ, गया है,” लड़की ने बताया, “लेकिन मूज़ी ने दिया क्या?”
“दस कोपेक,” मिश्का ने लापरवाही से कहा।
“तो अब कुल कितने हो गये?”
“सतहत्तर कोपेक।”
“ओह, इतना? तब तो आज जल्दी ही घर लौट चलेंगे, क्यों, ठीक है न? बड़ी ठण्ड है।”
“ऐसी क्या जल्दी है,” मिश्का ने उत्साह पर ठण्डा पानी डालते हुए कहा, “और देखो, अधिक खुलकर काम न करना। अगर किसी दिन दारोग़ा ने पकड़ लिया तो सारे बाल कटवाकर तुझे कबूतरी बना देगा। अरे देखो, वह बज़रा चला आ रहा है। चलो, चलें।”
यह बज़रा एक मोटी स्त्री थी जो फ़र का कोट पहने थी। इससे पता चलता है कि मिश्का एक बहुत ही शैतान लड़का था, बहुत ही गँवार और अपने से बड़ों की इज़्जत न करनेवाला।
“दया की देवी…” वह मिनमिनाया।
“माँ मरियम के नाम पर…” कात्का ने साथ दिया।
“छि:! कम्बख़्त तीन कोपेक से ज़्यादा नहीं उगल सकी, बूढ़ी चुड़ैल!” मिश्का ने उसे कोसा और फिर लपककर फाटक पर पहुँच गया।
हिम के बादल अब भी सड़क पर सपाटा लगा रहे थे और हवा अधिकाधिक तेज़ होती जा रही थी। टेलीग्राफ़ के तार भनभना रहे थे। हिम-गाड़ियों के रनर्स के नीचे बर्फ़ चरचरा रही थी। और सड़क के उस ओर, कहीं दूर से, किसी स्त्री के खिलखिलाने की गूँजदार आवाज़ आ रही थी।
“क्यों चची अनफ़िसा आज रात को फिर नशे में धुत्त नज़र आयेगी न?” कात्का ने पूछा और अपने साथी के बदन से और अधिक चिपक गयी।
“मालूम तो ऐसा ही होता है। और उसे रोक भी कौन सकता है? वह ज़रूर गड़गच्च होगी,” मिश्का ने निश्चित स्वर में जवाब दिया।
हवा छतों पर से हिम समेटती सीटी की आवाज़ में बड़े दिन की धुन में गुनगुना रही थी। एक दरवाज़े की अरगल खुलने की खटाक से आवाज़ आयी। फिर काँच के दरवाज़े की झनझनाहट सुनायी दी और किसीने गहरी आवाज़ में पुकारा –
“गाड़ीवान!”
“चलो, घर चलें!” कात्का ने कहा।
“तुमने तो नाक में दम कर दिया,” भरे हुए हृदय से मिश्का फूट पड़ा, “पता नहीं, घर जाने की तेरे सिर पर ऐसी क्या धुन सवार हुई है?”
“वहाँ इतना ठण्डा नहीं है,” कात्का ने संक्षेप में सफ़ाई देते हुए कहा, “कुछ तो गरमाई मिलेगी।”
“बड़ी गरमाई मिलेगी, वाह!” मिश्का ने उसे कोंचा, “और जब वे जमा होकर तुझे नाच नचायेंगे तब…तब कैसा मालूम होगा? या फिर, जैसा कि पिछली बार हुआ था, अगर उन्होंने तेरे गले में ज़बरदस्ती वोदका उँडेलकर तुझे छत तक उछालना शुरू कर दिया तो? – घर? वाह!”
और उसने एक ऐसे आदमी के अन्दाज़ में अपने कन्धों को सिकोड़ा जो जानता है कि वह क्या है। और जिसे अपनी बातों के सही होने में कोई शक व शुबहा नहीं है। कात्का ने बल-सा खाकर बरबस जमुहाई ली और फाटक के एक कोने में ढह गयी।
“तुम बस चुप बनी रहो। अगर ठण्ड लगे तो बत्तीसी भींच लो और जी को कड़ा रखो। तब नहीं लगेगी। तुम और मैं, दोनों मिलकर, किसी दिन ख़ूब मौज करेंगे। यह कौन बड़ी बात है। मैं केवल यह चाहता हूँ कि…”
और उसने अपनी बात को अधूरा छोड़ दिया – यह इसलिए कि उसकी साथिन कौतुक में भर उठे। लेकिन वह, कौतुक का ज़रा-सा भी भाव दिखाये बिना, कसमसाकर और भी दोहरी हो गयी। मिश्का ने, कुछ चिन्तित होकर, उसे चेताया –
“देखो कात्का, सोना नहीं। कहीं पाला न मार जाये। सुन रही हो न?”
“डरो नहीं, मुझे पाला-वाला कुछ भी नहीं मारेगा,” कात्का ने कहा। उसके दाँत ठण्ड से किटकिटा रहे थे।
अगर मिश्का न होता तो कात्का निश्चय ही पाले में जाम होकर मर जाती। लेकिन उस छोटे तलछटी लड़के का दृढ़ निश्चय था कि बड़े दिन के अवसर पर वह ऐसी भद्दी बात नहीं होने देगा।
“पसरो नहीं, उठकर बैठो। पसरना तो और भी बुरा है। घुटने टूट नहीं गये। सीधी रहने से आदमी बड़ा दिखता है और उसे ठण्ड नहीं दबोचती। बड़ों के सामने ठण्ड की मार नहीं बसती। मिसाल के लिए घोड़ों को देखो। वे कभी पाले में जाम नहीं होते। आदमी घोड़ों से छोटे हैं, सो वे हमेशा जाम होते रहते हैं। बात मानो, उठ बैठो। पूरा एक रुबल हो जाये तो समझो कि हाँ, आज का दिन भी कुछ है।”
कात्का, जिसका सारा बदन काँप रहा था, उठ बैठी।
“सच, भयानक ठण्ड है,” वह फुसफुसाई।
और ठण्ड, वास्तव में, अत्यन्त भयानक हो चली थी। बर्फ़ के बादलों ने क्रमशः गहरे घने बगूलों का रूप धारण कर लिया था, कहीं वे खम्भों की शक्ल में दिखायी पड़ रहे थे और कहीं लम्बी चादरों की शक्ल में, जिनमें हिम-कण हीरों की भाँति जड़े थे। जब वे सड़क पर लैम्पों के ऊपर से मँडराते हुए निकलते या दुकानों के चमचमाते शो-केसों के सामने से गुज़रते तो बहुत ही ख़ूबसूरत मालूम होते। वे इन्द्रधनुषी रंगों में जगमगाते और उनकी तेज़ ठण्डी चमक आँखों में डूबने लगती।
लेकिन हमारे छोटे हीरो और छोटी हीरोइन की इस सारे सौन्दर्य में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
“ओ-हो!” अपने बिल में से थूथनी बाहर निकालते हुए मिश्का ने कहा, “यह तो पूरा रेवड़ चला आ रहा है। उठो कात्का, उन्हें पकड़ें।”
“दया के सागर…” तीर की भाँति सड़क पर पहुँच काँपती आवाज़ में छोटी लड़की मिनमिनायी।
“कुछ देते जाओ, मालिक!” मिश्का ने चिरौरी की और फिर एकाएक, चिल्ला उठा, “भागो, कात्का, भागो!”
“भुतने! ज़रा हाथ तो लगने दो। फिर देखो, तुम्हारी क्या गत बनाता हूँ, शैतान!” शहतीर की भाँति लम्बे पुलिसमैन ने, जो अचानक पटरी पर प्रकट हो गया था, बमककर कहा।
लेकिन वे ग़ायब हो चुके थे। दो चिथड़ा-गेंदें तेज़ी से लुढ़ककर आँखों से ओझल हो गयी थीं।
“ग़ायब हो गये, शैतान के बच्चे!” पुलिसमैन भुनभुनाया और सड़क पर नज़र डालते हुए भले स्वभाव से मुस्कुरा उठा।
और शैतान के बच्चे पत्ता तोड़ भाग रहे थे और हँस रहे थे। कात्का का पाँव बार-बार उसके चिथड़ों में उलझ जाता था और वह गिर पड़ती थी।
“हाय राम, फिर गिर पड़ी!” अपने पाँवों पर फिर खड़ी होने के लिए जूझते हुए वह कहती, पीछे की ओर मुड़कर भय से देखती, और उसके चेहरे पर बरबस हँसी खेलने लगती, “कहाँ गया वह मरदूद?”
मिश्का – हँसी से दोहरा हुआ – राह-चलतों से टकराता और इस अपराध के बदले, काफ़ी बार, उसे करारी झिड़कियाँ खानी पड़तीं।
“बस, बस, बहुत लुढ़कियाँ खा चुकी, तुझे शैतान उठा ले जाये…ज़रा शक्ल तो देखो, क्या बन गयी है? बुद्धू कहीं की! अरे, फिर गिर पड़ी! बाप रे, तुम तो मुझे हँसाते-हँसाते मार डालोगी!”
कात्का की लुढ़कियों ने उसमें भारी उछाह का संचार कर दिया था।
“वह अब हमें कभी नहीं पकड़ सकता। ज़्यादा भागने की ज़रूरत नहीं। वह इतना बुरा नहीं। वह दूसरा वाला, जिसने सीटी बजाई थी। एक बार मैं भाग रहा था कि एकदम अचानक – खटाक! सीधे रात के सन्तरी के पेट में जा धँसा और मेरा सिर ज़ोरों से उसके डण्डे से टकरा गया!”
“मुझे याद है। इतना बड़ा गुमटा पड़ गया था,” कात्का ने कहा और एक बार फिर हँसते-हँसते दोहरी हो गयी।
“बस करो अब। बहुत हँस ली,” मिश्का ने भारी मुँह बनाकर उसे रोका, “और मैं जो कहता हूँ, वह सुनो।”
दोनों, गम्भीर और चिन्तित मुद्रा बनाये, साथ-साथ चलने लगे।
“मैं वहाँ तुमसे झूठ बोला। दस नहीं, उस खूसट ने मेरे हाथ से बीस कोपेक ठोंसे थे। और उससे पहले भी मैं तुमसे झूठ बोला – इस डर से कि कहीं तुम फिर घर चलने की रट न लगाने लगो। आज का दिन बहुत अच्छा रहा। जानती हो, कितना मिला? एक रूबल और पाँच कोपेक। है न बहुत!”
“और नहीं तो क्या?” कात्का ने साँस छोड़ी, “चाहो तो इससे जूते ख़रीद सकते हो – कबाड़ी बाज़ार में।”
“जूते, ऊँह! वे तो मैं यों ही उड़ाकर तुम्हें दे सकता हूँ। ज़रा ठहर जाओ। कितने ही दिनों से जूतों की एक जोड़ी पर मेरी नज़र है। मौक़ा लगने की देर है, साफ़ उड़ा लाऊँगा। लेकिन बात सुनो – चलो, अब ज़रा क़हवाख़ाने में चलें। क्यों, ठीक है न?”
“चची को फिर पता चल जायेगा और वह हमारी मरम्मत करेगी, जैसा कि तब हुआ था,” कात्का ने आशंका से कहा, लेकिन क़हवाख़ाने में जाकर गरमाने का मोह इतना प्रबल था कि उसे छिपाना मुश्किल था।
“हमारी मरम्मत करेगी? नहीं, इसकी नौबत नहीं आयेगी। हम और तुम, दोनों, एक ऐसे क़हवाख़ाने में चलेंगे जहाँ एक भी पंछी यह न पहचान सके कि हम कौन हैं।”
“क्या सचमुच?” कात्का ने उछाह में भरकर कहा।
“अच्छा तो सुनो, हम क्या करेंगे। सबसे पहली और सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम आधा पौंड सॉसेज लेंगे – आठ कोपेक के, फिर आध पौंड सफ़ेद रोटी – पाँच कोपेक की। तेरह कोपेक तो ये हुए। इसके बाद तीन-तीन कोपेक की दो मीठी रोटियाँ लेंगे, छह कोपेक ये हुए। इस तरह उन्नीस कोपेक हो गये। फिर एक केतली चाय – छह कोपेक की। पूरे पच्चीस कोपेक, ज़रा सोचो तो! और हमारे पास बाक़ी बच रहेंगे…”
मिश्का अचकचाकर चुप हो गया। कात्का ने उसे भारी और शंका की नज़र से देखा।
“इतना ख़र्च कर डालोगे,” उसने दबी आवाज़ में पूछा।
“बोलो नहीं, चुपचाप सुनो। यह ज़्यादा नहीं है। इसके अलावा आठ कोपेक की चीज़े़ं हम और खायेंगे। कुल तैंतीस कोपेक और जब यह सब करना ही है तो फिर कहना-सुनना क्या? बड़े दिन का त्योहार है, क्यों, है न? सो हमारे पास बाक़ी बचेगा…अगर पच्चीस ख़र्च किये तो अस्सी कोपेक…और अगर तैंतीस ख़र्च किये तो सतहत्तर कोपेक – सात दस-दस के और कुछ फुटकर बचेगा। देखो, कितना अधिक बच रहेगा? उस बूढ़ी खूसट को और क्या चाहिए? इतना काफ़ी है उस शैतान की खाला के लिए। चलो, चलें। जल्दी करो।”
हाथ में हाथ डाले, उछलते और रपटते, वे पटरी पर बढ़ चले। हिम-कण उड़ते हुए उनकी आँखों से टकराते और उन्हें कुछ दिखायी नहीं देता। जब-तब बर्फ़ का बादल ऊपर से उनपर झपटता और उन दोनों के छोटे आकारों को पारदर्शक चादर में लपेट लेता जिसे वे, भोजन और गरमाई की आशा में उमगे, तुरत तार-तार कर डालते।
“सुनो,” कात्का ने – इतनी तेज़ी से चलने के कारण जिसकी साँस फ़ूल आयी थी – हाँफते हुए कहा, “तुम बुरा मानो चाहे भला, अगर उसे मालूम हो गया तो मैं साफ़ कह दूँगी – यह सब तुम्हारी करतूत है…मैं परवाह नहीं करती – तुम हर बार भाग जाते हो, और अकेले मैं भुगतती हूँ – वह मुझे सदा पकड़ लेती है और तुमसे कहीं ज़्यादा मारती है…समझ गये न? मैं सब कह दूँगी।”
“जाओ, जो जी में आये कह देना,” मिश्का ने गरदन हिलायी – अगर वह मारेगी तो देखा जायेगा! – मैं सब भुगत लूँगा। जाओ…और तुम भी अपने मन की कर लो।”
मुँह से सीटी बजाता, अपना सिर पीछे की ओर फेंके, वीर-भावना में पगा वह चल रहा था। उसका चेहरा पतला था। उसकी आँखों में शैतानी भरी थी और उनमें, आमतौर से, ऐसा भाव झलकता था जो उसकी इस छोटी आयु से ज़रा भी मेल नहीं खाता था। उसकी नाक नुकीली और कुछ मुड़ी हुई थी।
“यह लो, क़हवाख़ाना आ गया। एक नहीं, दो। बोलो किसमें चला जाये?”
“छोटे वाले में। लेकिन आओ, पहले किराने की दुकान पर चलें।”
खाने की सारी चीज़े ख़रीदने के बाद उन्होंने छोटे क़हवाख़ाने में प्रवेश किया।
क़हवाख़ाना धुएँ, भाप और एक तेज़ खट्टी गन्ध से भरा था आवारा भिखमंगे, गाड़ीवान और सैनिक अँधेरे में लिपटे बैठे थे और अत्यन्त गन्दे वेटर मेज़ों के बीच मँडरा रहे थे। चीख़-चिल्लाहट गाने और गालियों का बाज़ार गर्म था।
कोने में एक ख़ाली मेज़ पड़ी थी। मिश्का ने उसे भाँपा और सपक सुई की भाँति वहाँ पहुँच गया। उसने अपना कोट उतारकर रख दिया और इसके बाद काउण्टर के पास पहुँचा। कात्का भी, लजीली नज़रों से इधर-उधर देखते हुए, अपना कोट उतारने लगी।
“क्यों, मिस्टर, चाय मिलेगी?” काउण्टर को अपनी मुट्ठियों से धीरे-धीरे बजाते हुए मिश्का ने वहाँ बैठे आदमी से पूछा।
“चाय? मिलेगी क्यों नहीं? थोड़ा कष्ट करो। उधर जाकर कुछ गर्म पानी ले लो। और देखो, कोई चीज़ टूटे-फूटे नहीं। अगर तोड़-फोड़ की तो ऐसा सबक पढ़ाऊँगा कि याद रखोगे।”
लेकिन मिश्का पानी के लिए लपक चुका था।
दो मिनट बाद वह अपनी साथिन के साथ बैठा काग़ज में तम्बाकू लपेटकर भरे-पूरे अन्दाज़ में अपने लिए एक ताज़ा सिगरेट बना रहा था – उस गाड़ीवान की भाँति, जो दिन में अच्छी मज़दूरी कर चुका हो। कात्का मुग्ध भाव से उसे देख रही थी। उसके हृदय में इस बात का रोब छाया था कि लोगों के बीच वह कितने बढ़िया और सहज ढंग से व्यवहार करता है। क़हवाख़ाने के इस कान-फोड़ होहल्ले के बीच वह सात जनम भी अपने आपको सँभाले नहीं रख सकती और कुछ नहीं तो एक यही डर उसके सिर पर सवार रहता कि कोई क्षण ऐसा आ रहा है जब उन्हें कान पकड़कर यहाँ से बाहर निकाल दिया जायेगा। लेकिन, चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाये, मिश्का के सामने वह अपने इन भावों और आशंकाओं को प्रकट नहीं होने दे सकती। सो वह अपने सन के रंग के बालों को थपथपाने और सीधे-सादे तथा अकृत्रिम अन्दाज़ में अपने इधर-उधर देखने लगी। ऐसा करने के प्रयास में उसके मैले गालों में रंग की बाढ़ उतर आयी और अपनी अचकचाहट छिपाने के लिए अपनी नीली आँखों को उसने सिकोड़ लिया। इस बीच मिश्का, अहाते के चौकीदार सिगनेई के लहजे और शब्दों में, उसे पाठ पढ़ा रहा था। यह चौकीदार – उस समय भी जब कि वह नशे में धुत्त होता था – मिश्का को बहुत ही प्रभावशाली आदमी मालूम होता था और अभी-अभी चोरी के अपराध में तीन महीने की जेल काटकर आया था। सो उसके लहजे और शब्दों की बात करता मिश्का कात्का से कह रहा था –
“हाँ तो मिसाल के लिए, समझ लो कि तुम भीख माँगने निकली हो। अब भीख कैसे माँगी जाती है? केवल यह चिंचियाते रहना कि दया करो, दया करो, बिल्कुल बेकार है। यह कोई तरीक़ा नहीं है। तुम्हें जो करना चाहिए वह यह कि उस मरदूद के पाँवों से उलझ जाओ – इस तरह कि वह घबरा जाये और डरने लगे कि कहीं वह लड़खड़ाकर तुम्हारे ऊपर न गिर पड़े।”
“यह तो मैं कर लूँगी,” कात्का ने दबे स्वर में सहमति प्रकट की।
“बहुत ठीक,” उसके साथी ने सराहना से सिर हिलाते हुए कहा, “यही असली चीज़ है। अब, मिसाल के लिए, चची अनफ़िसा को लो। चची अनफ़िसा क्या है? सबसे पहली बात यह कि वह पियक्कड़ है। और इसके अलावा…”
और मिश्का ने, सराहनीय साहस के साथ, खुलकर बताया चची अनफ़िसा इसके अलावा और क्या है।
कात्का ने सिर हिलाकर चची के बारे में उसके मूल्यांकन से सहमति प्रकट की।
“तुम उसका कहना नहीं मानती। यह ठीक नहीं है। तुम्हे मिसाल के तौर पर, कहना चाहिए – ‘मैं अच्छी लड़की बनूँगी, चची तुम्हारी बात का मैं ध्यान रखूँगी…’ दूसरे शब्दों में यह कि उसको मुलायम मक्खन लगाती रहो और इसके बाद जो मन में आये करो यह सही तरीक़ा है।”
मिश्का चुप हो गया और रोबीले अन्दाज़ में अपना पेट खुजलाने लगा, जैसे कि अपना भाषण झाड़ने के बाद सिगनेई करता था। और जब उसे और कोई विषय नहीं सूझा तो उसने अपने सिर को हल्का-सा झटका दिया और बोला –
“हाँ, तो अब खाना चाहिए।”
“आओ, शुरू करें,” कात्का ने, जो कितनी ही देर से रोटी और सॉसेज की ओर भूखी आँखों से देख रही थी, सिर हिलाकर सहमति प्रकट की।
और सीलन की गन्ध भरे रोशनीविहीन इस क़हवाख़ाने के एक अँधेरे कोने में वे अपना साँझ का खाना खाने लगे। गन्दे गीतों और भद्दी गालियों की आवाज़ पृष्ठ-संगीत का काम कर रही थी। दोनों बड़ी लगन से, अपनी पसन्द और नापसन्द का परिचय देते और बीच-बीच में कुछ रुकते हुए, सच्चे रसज्ञों की भाँति खा रहे थे। और अगर कात्का, शालीनता की भावना को भूलकर, लालच के मारे अपने मुँह में इतना बड़ा निवाला भर लेती कि उसके गाल कुप्पे से निकल आते और उसके दीदे बाहर झाँकने लगते, तो शान्त और स्थिर मिश्का दुलार के स्वर में कहता –
“ऐसी जल्दी क्या है, रानी साहिबा?”
और फिर, उस भारी-भरकम निवाले को निगलने की उतावली में, उसका दम-सा घुटने लगता।
और यही मेरी कहानी का अन्त है। बिना किसी क्षोभ या पछतावे के मैं इन बच्चों को बड़े दिन की यह रात बिताने के लिए अकेला छोड़ सकता हूँ। और यह आप निश्चित समझिये कि उनके जाम होकर मरने का ख़तरा ज़रा भी नहीं है। वे अपने पूरे रंग में हैं। आखि़र उन्हें बर्फ़-पाले में जाम करके मारने से मेरा – या इस दुनिया का – क्या भला होगा?
मुझे यह एक बहुत ही बड़ी और भारी मूर्खता मालूम होती है कि बच्चों को पाले में जाम करके मारा जाये – ख़ास तौर से उस हालत में, जब कि वे निश्चय ही किसी न किसी दिन मरेंगे, लेकिन इससे कहीं अधिक सीधे और साधारण तरीक़े से।