महाराष्ट्र में ढाई साल से ज्यादा समय तक सत्ता में रहने के बाद उद्धव सरकार गिर गई है और अगले करीब ढाई साल के लिए भी शिवसेना सरकार ही बनी है। महाराष्ट्र में सियासत के मंझे हुए खिलाड़ियों ने ऐसी बिसात बिछाई कि रातोंरात पासा ही पलट गया। 56 सीटों वाली शिवसेना में दो खेमे बन गए और उद्धव ठाकरे के साथ केवल 13-14 विधायक खड़े दिखे। करीब 30 महीनों से मौके के इंतजार में बैठे देवेंद्र फडणवीस ऐक्टिव हुए। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना के साथ समीकरण सेट किए गए। चर्चा थी कि बड़ी पार्टी होने के कारण फडणवीस एक बार फिर सीएम बनेंगे लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ही पता होगा कि ऐन मौके पर ऐसा क्या हुआ कि शिंदे (Maharashtra News CM) को भाजपा ने सीएम का पद सौंप दिया और फडणवीस डेप्युटी बनाए गए। ऐसे में भाजपा समर्थक ही दबी जुबान में बोल रहे हैं कि इससे अच्छा होता चुनाव के बाद ही ढाई-ढाई साल के सीएम के फॉर्म्युले पर भाजपा राजी हो जाती। इस सियासी उलटफेर से भाजपा को क्या हासिल हुआ?
2019 में ढाई-ढाई साल पर राजी नहीं लेकिन…
दरअसल, 2019 विधानसभा चुनाव के बाद ढाई-ढाई साल सीएम बनाने के कथित वादे पर बात बिगड़ गई थी। शिवसेना ने कहा था कि पहले इसकी बात हुई थी लेकिन भाजपा राजी नहीं हुई। अब उद्धव और अमित शाह के साथ देवेंद्र फडणवीस की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस के वीडियो शेयर किए जा रहे हैं जिसमें फडणवीस ने कहा था, ‘महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा की सरकार आने वाली है इसलिए पद और जिम्मेदारियां… हम लोग समान रूप से इसका निर्वहन करेंगे।’ तो क्या उस समय शिवसेना के साथ सत्ता साझा न करना भाजपा की गलती थी? यह सवाल इसलिए खड़ा हो रहा है क्योंकि आज भले ही शिवसेना में फूट पड़ गई हो, सीएम के पद पर उद्धव ठाकरे न हों लेकिन सीएम अब भी शिवसेना का ही है।
ऐसे समय में लोगों को उद्धव ठाकरे की वो बात जरूर याद आ रही होगी जब उन्होंने कहा था कि मैंने शिवसेना प्रमुख यानी बालासाहेब ठाकरे को वचन दिया था कि एक दिन शिवसेना का सीएम बनाऊंगा। सीएम एकनाथ शिंदे भी बाला साहेब के सिद्धांतों पर चलने वाला खुद को शिवसैनिक बताते हैं। ऐसा नहीं है कि भाजपा ने उस समय अगर सीएम की कुर्सी शिवसेना को सौंपने का फैसला किया होता तो वह कोई अप्रत्याशित कदम होता। पहले भी कई राज्यों में भाजपा दूसरे दलों के नेताओं को सीएम बनाने में मदद कर चुकी है। फिर ऐसा क्या था कि देश की हिंदुत्ववादी पार्टी होने के बाद भी भाजपा ने शिवसेना को सपोर्ट नहीं किया। इसकी वजह समझने से पहले जानिए दूसरे राज्यों में भाजपा ने क्या किया है।
दो बार भाजपा ने मायावती को बनवाया UP का सीएम
1 जून 1995 को मायावती तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा से मिलीं और सपा-बसपा गठबंधन की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। एक झटके में मुलायम सिंह यादव की कुर्सी चली गई। भाजपा ने मायावती को समर्थन देकर उन्हें सीएम बनवा दिया था। 3 जून को मायावती ने पहली बार यूपी की कमान संभाली। मार्च 1997 में मायावती एक बार फिर भाजपा की मदद से सीएम बनीं।
तब कुमारस्वामी को बनवाया मुख्यमंत्री
2006 में भाजपा के साथ मिलकर जेडीएस ने सरकार बनाई और एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने। लेकिन अगले ही साल भाजपा ने कुमारस्वामी सरकार से सपोर्ट वापस ले लिया। जेडीएस ने आरोप लगाया कि भाजपा कर्नाटक को गुजरात की तरह हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाने की कोशिश कर रही है।
बिहार में नीतीश को थमाई कुर्सी
ताजा उदाहरण बिहार का भी है। 2020 में विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को 74 और जेडीयू को मात्र 43 सीटें मिली थीं। लेकिन भाजपा ने नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी सौंप दी जबकि यह बात भाजपा के कुछ नेताओं को अब भी अखरती है कि जब मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया था तो नीतीश कुमार ने इसका विरोध किया था। ऐसे में यह सवाल प्रासंगिक हो जाता है कि भाजपा की तरह देश में इकलौती हिंदुत्ववादी पार्टी होने के बाद भी भाजपा ने ढाई साल पहले शिवसेना को मौका क्यों नहीं दिया?
केवल उद्धव से भाजपा की खुन्नस
कहते हैं कि राजनीति भावनाओं पर नहीं होती है लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने भावनाओं का ही सहारा लिया है। तब भाजपा नहीं चाहती थी कि उद्धव को सीएम की कुर्सी दी जाए। इसके पीछे शायद पहले की खटास या उद्धव का खुलकर मोदी का सपोर्ट न करना वजह रही हो। इसके पहले के कार्यकाल में जब देवेंद्र फडणवीस सीएम बने थे तब कई मसलों पर उद्धव के साथ उनकी तनातनी महसूस की गई थी।
शिवसेना के सांसद अरविंद सावंत कहते हैं कि उद्धव ठाकरे किसानों की कर्जमाफी की मांग कर रहे थे लेकिन तब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे देवेंद्र फडणवीस उसे टालते जा रहे थे। बाद में उन्होंने अपने हिसाब से फैसला किया। सियासी गलियारों में ऐसी चर्चा है कि भाजपा को उद्धव ठाकरे के हाथों में महाराष्ट्र की सत्ता पसंद नहीं थी। वह उद्धव के पास से क्षेत्रीय क्षत्रप का वो कद छीनना चाहती थी जिसके आधार पर वह एक बड़ी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और बीजेपी के लिए चुनौती बन गए थे। आज भाजपा के लिए कम से कम इतना अनुकूल कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र में शिवसेना अब कोई चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी है यानी उसकी बात को तवज्जो मिलेगी।
2019 की तस्वीर।