कंवल भारती
दलित साहित्य में ग़ज़लें बहुत कम लिखी गई हैं। जो लिखी गई हैं, उनमें भी ग़ज़लगोई और फ़िक्र की नज़र से प्रभावित करने वाली ग़ज़लें न के बराबर हैं। लेकिन जब मैंने शिवनाथ चौधरी ‘आलम’ का ग़ज़ल-संग्रह ‘एहसासे आलम’ पढ़ा, तो बेसाख्तां मुंह से निकला, ‘वाह!’, यह है वो सुखनवर, जिसकी मैं तलाश में था। ‘एहसासे आलम’ के साथ दलित साहित्य में ग़ज़ल की कमी पूरी हुई। हालांकि ग़ज़ल-विधा में कुछ और दलित कवियों ने भी बेहतर सृजन किया है, जिनमें बी.आर. विप्लवी का सृजन काबिलेतारीफ है, लेकिन शिवनाथ चौधरी ‘आलम’ पहले दलित ग़ज़लकार हैं, जिनकी सोच दलित-चेतना की मुकम्मल सोच है। सन् 1948 में जबलपुर में एक गरीब दलित परिवार में जन्मे शिवनाथ चौधरी ने ग़ज़ल कहने के लिए बाकयदा उर्दू के महान शायरों के कलाम को उनके हिंदी अनुवादों से पढ़ा, कुछ उर्दू भी सीखी और फिर स्वयं भी धीरे-धीरे ग़ज़ल कहने लगे।
जो लोग शौकिया शायरी करते हैं, वे अक्सर उस सामाजिक श्रेणी से ताल्लुक रखते हैं, जिनकी न कोई आर्थिक समस्या होती है, और न सामाजिक। उन्हें हम पेट-भरे अघाए लोग कह सकते हैं, और ऐसे लोग सामाजिक समस्याओं पर चिंतन नहीं करते, बल्कि इश्किया शायरी या कविताओं में रूचि लेते हैं। लेकिन जो लोग निम्न वर्गों और दलित समुदायों से आते हैं, उनके पास उच्च जातियों के अत्याचारों की दुखद अनुभूतियां होती हैं, जो उनके मन-मस्तिष्क में हर समय उबलती रहती हैं। वे उन अनुभवों को दुनिया के सामने प्रकट करने के लिए साहित्य और आंदोलन का माध्यम चुनते हैं। पानी और मंदिर आंदोलनों के माध्यम से डॉ. आंबेडकर ने पहली बार दुनिया को बताया कि भारत का तथाकथित महान सनातन धर्म लाखों मनुष्यों को अस्पृश्य मानता है। भारत के दलित लेखकों ने पहली बार अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से दुनिया को बताया कि इस महान सनातन धर्म ने उनके साथ कैसा दुर्व्यवहार किया था। जीवन के जिस यथार्थ को आलम ने भोगा था, वह उनके भीतर बाहर आने के लिए उछाल मार रहा था, जो शायरी के माध्यम से बाहर आया। इसलिए आलम की शायरी दीगर शायरों के कलाम से बिल्कुल जुदा, स्व-अनुभूतियों और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी शाइरी है। आलम कहते हैं–
मेरे एहसास का ये मजमुआ
मेरे ग़म की इक कहानी है।
जिसने फूलों की आरज़ू लेकर
हर बयाबां की ख़ाक छानी है।
आलम अपने जिगर के खून को ही शाइरी के रूप में प्रकट करते हैं। यथा–
अश्क ही अक्सर मिले हमको ख़ुशी के भेष में,
नाचती है मौत अब तो जिंदगी के भेष में।
शेर मेरे क्या हैं ये हैं, क़तरा-ए-खूने जिगर,
दर्द की शिद्दत ढली है, शाइरी के भेष में।
आलम अपने ग़ज़ल-संग्रह ‘एहसासे आलम’ की भूमिका ‘अहवाले कवायफ़’ में लिखते हैं, “ये मेरे टूटे-फूटे अल्फाज़ हकीक़त में मेरी आपबीती हैं। मैं न तो ठीक से हिंदी जानता हूं और न ही उर्दू। शेरो-शाइरी का शौक तो मुझे इब्तदायी उम्र ही से रहा। और मैं कबीर और रैदास के दोहे गाया करता था। जब फ़िल्में देखने का शौक हुआ तो उर्दू शाइरी से भी प्रभावित हुआ, ख़ास तौर से साहिर, शकील, मजरूह, कैफ़ी, शैलेंद्र वगैरह से। इस शौक ने मुझे मीर, ग़ालिब और इक़बाल की तरफ रागिब किया। दौराने-मुलाजमत मेरे अज़ीज़ दोस्त और सहकर्मी जनाब जमील अहमद ‘जमील’ साहब से मैंने थोड़ी बहुत उर्दू सीखी और उर्दू ही मेरी शाइरी का माध्यम बन गई। मैं कुछ मिसरे वज़न करने लगा। हालांकि मैं फ़ितरी एतबार से डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर से हद दर्जा मुतास्सिर था। इस तरह मेरे कलाम में इनकी फ़िक्र का अक्स आना स्वाभाविक था।” आलम ने कई क़त’आत डॉ. आंबेडकर पर लिखे, जो बेहद खूबसूरत हैं। यथा–
गर बाबा जैसा कोई मसीहा नहीं होता,
दलितों में कभी हौसला पैदा नहीं होता।
गुलशन में यूं ही कलियों की लुटती सदा इज्जत,
रौंदे हुए फूलों का भी चर्चा नहीं होता।
…
इन खुदाओं की भीड़ में केवल
तू ही सच्चा है, राहबर अपना।
हम तेरे कारवां में शामिल हैं,
अब तेरी राह में सफ़र अपना।
…
हमारा दर्द लेकर उसने हमको हर ख़ुशी दे दी,
जिगर का खून दे डाला, नज़र की रौशनी दे दी।
तमीज़े-बंदगी क्या है, और सजदा किसको कहते हैं,
हमारे वास्ते बाबा ने सारी जिंदगी दे दी।
…
सदियों से जो धुंधली थी वो तस्वीर बदल दी,
हर फ़िक्र की हर सोच की तासीर बदल दी।
आंबेडकर इक ऐसा मसीहा है कि जिसने,
कुचले हुए इंसानों की तक़दीर बदल दी।
ग़ज़ल, यद्यपि, हिंदी में भी लिखी जा रही है, पर असल में यह उर्दू-शायरी का छंद है, इसलिए उसमें मुख्य आकर्षण उर्दू शब्दों से ही पैदा किया जाता है। आलम अपनी शाइरी उर्दू में करते हैं, और उनका ‘एहसासे-आलम’ संग्रह भी उर्दू में ही प्रकाशित हुआ, जिसे बाद में हिंदी लिप्यांतरित रूप में ‘तीसरा पक्ष’ पत्रिका (जबलपुर) की ओर से प्रकाशित किया गया। लेकिन आलम की शाइरी का अपना अलग अंदाज़ है। वह खुदा, रब, अल्लाह, आखिरत आदि इस्लामी फ़िक्र के अलफ़ाज़ कतई इस्तेमाल नहीं करते, जो अमूमन मुस्लिम शायरों के कलाम में आम बात है। उनकी शाइरी में एक भौतिकवादी वैचारिकी है, जिसका न ईश्वर में विश्वास है और न परलोक में। उनका दृष्टिकोण पूरी तरह मानवीय और वैज्ञानिक है–
तुझको जकड़े हैं अभी अंधे-चलन के दायरे।
तोड़ कर आ जा इधर रस्मे-कुहन के दायरे।
…
सब भरम हैं भरम की बात न कर ।
अब किसी के करम की बात न कर।
जिनसे फैला है ज़हर नफ़रत का,
ऐसे दैरो-हरम की बात न कर।
आलम की निगाह में मंदिर की नहीं, मनुष्य की प्रतिष्ठा है। यथा–
चीथड़ों में ही कोई मर गया मंदिर वालो,
तुम तो मखमल से सजाते रहे पत्थर अपना।
…
इसको एक निर्धन की झोंपड़ी में रख देना,
रात भर सिसकता है जो दिया शिवाले का।
आलम का जोर इंसानी एकता पर है–
हमारी ज़ात है इंसान, और मज़हब मुहब्बत है,
अगर हम ये समझ जाएं, तो इस धरती पे जन्नत है।
यही इंसानी एकता और मुहब्बत दलित चेतना का मूल तत्व है। इसलिए वह ऊंच-नीच की विघटनकारी जाति-व्यवस्था का विरोध करते हैं, जिसे ब्राह्मण विश्व की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था कहते हैं। यथा–
हो जहां जात-पांत का आलम,
हमसे ऐसे धरम की बात न कर।
टूटते हैं गुंचाओं-गुल हर घड़ी ऐ बागवां,
ये तो इक मकतल है, किसने नाम गुलशन रख दिया।
…
उनमें एहसास गुलामी का कहां से उभरे,
बेड़ियों को जो समझ बैठे हैं ज़ेवर अपना।
…
ज़बां पे उसके कड़वाहट का लहजा आ ही जायेगा,
यहां मुद्दत से जिसने ज़हर नफ़रत का पिया होगा।
आज हिंदुत्ववादी ताकतें जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को स्थापित कर रही हैं, वह देश की फ़िज़ा में हिंदू-मुस्लिम के बीच नफ़रत बो रहा है। इस तरह यह राष्ट्रवाद फासीवाद में बदल रहा है। आलम की शाइरी में हम इसकी भी चिंता देखते हैं। यथा–
जिंदगी आज कितनी मुश्किल है,
अपनी सांसों पे सख्त पहरे हैं।
…
इसलिए खंजर तने हैं मेरे सीने की तरफ,
बदनुमां चेहरों के आगे मैंने दरपन रख दिया।
…
हर तरफ है शोर, हर लम्हा है क़त्लों-खूं से तर,
रात का आलम कहां है आज सोने के लिए।
…
जो मेरे क़ातिल थे वो कैसे मसीहा बन गए,
एक साजिश पल रही है, रहबरी के भेष में।
…
जिनसे थी उम्मीद गुलशन की निगहबानी करें,
वो तो फूलों को महकने की सज़ा देने लगे।
…
सच बयां करके अदालत से जो लौटे गांव में,
खेत में बिखरा पड़ा था उन गवाहों का लहू।
…
रहबरों की रहबरी का आज है आलम अजब,
जुल्म आकर बस गया बस्ती हुई खानाबदोश।
उर्दू शाइरी में इश्क मजाज़ी और इश्क हकीकी का इज़हार आम बात है। सच तो यह है कि वह शाइरी ही क्या, जिसमें इश्क, आशिक, माशूक और साकी न हो? लेकिन आलम की शाइरी में यह रंग ज्यादा नहीं है, क्योंकि, गुरबत और अभावों की जमीन पर इश्क के फूल ज्यादा नहीं खिलते; खिलते भी हैं, तो जल्दी मुरझा जाते हैं। इसलिए आलम का इश्क किसी की जुल्फों में नहीं उलझा है, बल्कि मुहब्बत की दुनिया में मुब्तला है। यथा–
दिल को उस दम सुकून मिलता है,
अश्क आंखों से जब बरसते हैं।
ये मुहब्बत का दर्द है आलम,
देवता भी जिसे तरसते हैं।
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मैकदा लूटने पे साक़ी, होश में आया तो क्या?
बुझ गया जब दिल किसी का, नूर बरसाया तो क्या?
खाक़ में मुझको मिलाते वक्त कुछ सोचा नहीं,
अब तेरी आंखों में आंसू बनके मैं आया तो क्या?
…
जुनूने-इश्क़ की गैरत को क्या हुआ आलम,
हैं ज़हन कुंद सभी और दिमाग़ गुल क्यों हैं?
…
तड़पने में ही दिल को आराम है,
मुहब्बत इसी राज़ का नाम है।
…
आंखों में तेरी साकी, मेरे दिल का नूर भी है,
मस्ती में तेरी शामिल मेरा सुरूर भी है।
…
टपकी है आसमान से शबनम तमाम रात।
तड़पा गया है प्यार का मौसम तमाम रात।
तेरा हंसी ख्याल मेरे साथ था मगर,
वीरान लग रहा था ये आलम तमाम रात।
…
पूछते क्या हो इश्क़ का आलम,
उनकी राहों में संगसार हो गए।
…
याद कर लेता हूं उन्हें आलम,
जब तबीयत उदास होती है।
…
यूं तो तेरे हुस्न का हर वक्त आलम था वही,
तुझको जिस पहलू से देखा हर दफ़ा अच्छा लगा।
गरीबों और श्रमिकों के प्रति आलम का दिल मुहब्बत और ख़ास फिक्रों से भरा हुआ है। उनकी पैदाइश और परवरिश एक गरीब और मजदूर परिवार में हुई थी। इसलिए वह मजदूरों का दर्द भी जानते हैं, और उनकी समस्याओं को भी। उनके दुखों पर आलम ने पूरी ग़ज़ल लिखी है–
मशक्कत करके मरते हैं, हमारा जुर्म इतना है।
लहू खेतों में भरते हैं, हमारा जुर्म इतना है।
हमारी लूट ली इज्जत हमें फूंका गया ज़िंदा,
हकों की मांग करते हैं हमारा जुर्म इतना है।
हमारे घर के मिट्टी के दीये भी बुझ गए लेकिन,
अंधेरे से उभरते हैं, हमारा जुर्म इतना है।
उठा लेते नहीं क्यूं हाथों में पत्थर अभी आलम,
हमीं बेकार डरते हैं, हमारा जुर्म इतना है।
पत्थर उठाने की बगावत जुल्म की इंतिहा का एहसास कराता है। और यह उस वर्गीय दर्द का भी एहसास है, जिसे शाइर ने मरने नहीं दिया। यथा–
हमको जिस दर्द के एहसास ने ज़िंदा रक्खा,
हमने उस दर्द के एहसास को मरने न दिया।
यह एहसास मर भी कैसे सकता है, जब–
दर्द की धूप में जिंदगी निकल गई,
पेट की आग में हर ख़ुशी जल गई।
सिर्फ मजदूरी मांगी थी मजदूर ने,
रात सोया था और झोंपड़ी जल गई।
आज देश में हिंदुत्व और सनातन धर्म की नई बहस छिड़ी हुई है। सनातन धर्म का विरोध करने वालों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराए जा रहे हैं। सत्ता की शह पर सनातन धर्म से लाभान्वित द्विज वर्ग उसे लोकतंत्र का विकल्प बनाने के लिए अंधा हुआ जा रहा है। लेकिन यह अच्छी बात है कि सनातन धर्म से पीड़ित दलित वर्ग उसके विरोध में एकजुट हो रहा है। यह लड़ाई सनातन बनाम दलित की है, और इसे जारी रखना होगा। शिवनाथ चौधरी ‘आलम’ ने अपनी एक ग़ज़ल में दलितों पर सनातनियों के जुल्म और दलितों के हौसलों की बहुत ही शिद्दत से नक्काशी की है। यथा–
आहटों से जो डर गए होते।
हम न जाने किधर गए होते।
हमने जिस दौरे-जुल्म को झेला,
आप होते तो मर गए होते।
साथ देते जो आप भी मेरा,
रास्ते सब संवर गए होते।
प्यार से उंगलियां ही रख देते,
जख्म आलम के भर गए होते।
पर वो सनातन धर्म ही क्या, जो मजलूम के सिर पर प्यार का हाथ रखे? वह सिर्फ सामाजिक भेदभाव और नफरत सिखा सकता है, प्यार नहीं। अगर इस धर्म के मूल में प्यार होता, तो सनातनियों में दलितों के लिए, ईसाईयों के लिए और मुसलमानों के लिए नफरत नहीं होती। शिवनाथ आलम ने क्या ख़ूब कहा है–
अच्छा किया जो आपने तूफां उठा दिया।
सोया था मेरा हौसला उसको जगा दिया।
जो सूरतें सजी थीं, फरिश्तों के भेष में,
उन सूरतों से वक्त ने पर्दा उठा दिया।
उन रहबरों से कह दो, न दिखलायें हमको राह,
हमको हमारे दर्द ने रस्ता दिखा दिया।
उससे कहां मिलेगी, मुहब्बत की रौशनी,
जिसने यहां चिरागे-वफा ही बुझा दिया।
आलम सिमट-सिमट के यहां एक हो गया,
क़तरों को तुमने आज समंदर बना दिया।
आलम धर्म के राज्य के सख्त खिलाफ हैं। उन्होंने हिंदू राज कायम करने वालों को बहुत सही आईना दिखाया है। यथा–
हज़ारों सदियों से अब तक हैं खून का प्यासा,
धरम के राज का चेहरा बहुत भयानक है।
गुंथी हैं इसमें हज़ारों सरों की मालाएं,
तुम्हारे ताज का चेहरा बहुत भयानक है।
क़ौमी एकता के पक्षधर आलम भाषा, जाति, धर्म के आधार पर मानव-जीवन के विभाजन को समाज और देश के लिए घातक मानते हैं। इसलिए वह उन लोगों पर करारा प्रहार करते हैं, जो एक तरफ भारत मां का जयकारा लगाते हैं, और दूसरी तरफ सांप्रदायिक नफरत की आग भी देश में लगाते हैं। यथा–
रूप अलग है, रंग अलग है, महक अलग है क्यारी एक,
फूल नहीं करते क्यूं बातें, गुलशन के बंटवारे की।
देख रहे हैं जिसमें हम सब अपने सुख की एक छवि,
बोलो क्या हालत होगी उस दरपन के बंटवारे की।
भाषा, मज़हब, जाती की, दीवारें बीच में मत लाओ,
ये सब घातक रेखाएं हैं, जीवन के बंटवारे की।
ज़हर सियासत घोल रही है, मौसम की मधुशाला में,
साज़िश सफल न होने पाए, सावन के बंटवारे की।
किसके साये में बैठेंगे किस आलम में जायेंगे,
अगर करेंगे ज़ुर्रत मां के दामन के बंटवारे की।
आलम की नज़र में ऐसी विघटनकारी शक्तियां किसी की मित्र नहीं हो सकतीं, वे वास्तव में सबकी दुश्मन हैं। यथा–
जिन्हें पसंद हैं मुर्दा अतीत के सपने,
वो इस वतन की नई रौशनी के दुश्मन हैं।
जो ज़हर घोलते फिरते हैं अम्न-ए-आलम की,
वो इस जहान की हर दिलकशी के दुश्मन हैं।
सही मायने में आलम की सोच में आंबेडकर की विरासत गूंजती है। वह आंबेडकर की तरह ही उस सियासत के कट्टर आलोचक हैं, जो फासीवादी और लोकतंत्र-विरोधी है। उनकी संपूर्ण शाइरी में हम इसे बखूबी देख सकते हैं। मौजूदा सियासत की सूरतेहाल पर ये अशआर देखिए–
ऐसी बेरहमी का क्या होगा, कहीं इतिहास भी,
खत्म कर डाला है तुमने ज़ुल्म का एहसास भी।
कोई नादिर, कोई हिटलर और कोई चंगेज़ खां,
लीडरों के भेष में ये हैं हमारे पास भी।
क्या सियासत है मेरे नाम दरिया कर दिया,
मेरे हिस्से में लिखी जिसने सदी की प्यास थी।
अब ये आलम है, कोई वापस बुला सकता नहीं,
देश के बाहर मिला है सच को ये बनवास भी।
नैतिक सरोकार के शाइर आलम हमें संघर्ष की नई ताकत देते हैं–
लड़ के मरना कबूल है यारो।
अब तो रोना फ़िजूल है यारो।
दिल में हिम्मत अगर है चलने की,
फिर भी पर्वत भी धूल है यारो।
…
तक्मीले-इंक़लाब, अमल पर है मुनहसिर,
काफ़ी नहीं है दर्द का एहसास दोस्तो।
…
जीना है तो मर मिटने का इक़रार भी कर ले,
बुज़दिल की तरह आलमे बेज़ार सा क्यूं है।
खुदी-बेखुदी का आलम भी आलम के यहां आत्मचिंतन के रूप में आया है–
जब आप से छूटें तो कोई बात करेंगे।
ख्वाहिश है कि खुद से भी मुलाक़ात करेंगे।
…
होश वालों के निशां तक भी नहीं ढूंढे मिलते,
दास्तां गूंज रही है किसी दीवाने की।
…
मैं बेअदब न हूंगा, महफ़िल में तेरी आलम,
दीवानगी में कायम मेरा शऊर भी है।
…
जुनूने-इश्क़ की गैरत को क्या हुआ आलम,
हैं ज़हन कुंद सभी और दिमाग़ गुल क्यों हैं।
लेकिन आलम बेनियाज़ी शाइर नहीं हैं, बल्कि धड़कनों को महसूस करने वाले शाइर हैं। वह मजलूमों की धड़कनों में इंक़लाब की आवाजें साफ़-साफ़ सुन रहे हैं। यथा–
ले रहा है अंगड़ाई अब शबाब सीनों में।
करवटें बदलता इंक़लाब सीनों में।
हर सितम का दुनिया में अब हिसाब लेंगे हम,
आग की लपट सी है बेहिसाब सीनों में।
दुश्मनों ने चाहा है बढ़के देंगे हम उनको,
बेक़रार हैं कब से जो जवाब सीनों में।
अपनी राह से आलम हम भटक नहीं सकते,
हम छुपा के रखते हैं आफ़ताब सीनों में।
शिवनाथ चौधरी ‘आलम’ की शाइरी एक नए दौर की संगेबुनियाद है। वह कहते हैं–
इक नए दौर की बुनियाद रखी है हमने,
अब तो हम खुद ही संवारेंगे मुक़द्दर अपना।
इसमें हम बुद्ध के ‘अपना प्रदीप स्वयं बनो’ और बाबासाहेब के ‘अपना भविष्य दूसरों के हाथों में न दो’ का प्रतिनिधत्व देख सकते हैं।