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तेंदूपत्ते की फड़ में अमित शाह का दांव….MP में मिशन 2023 की तैयारी में बीजेपी

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जयराम शुक्ल.

 मध्य प्रदेश की सत्ता की सौंध में तेंदूपत्ता जब चाहे तब फड़फड़ाने लगता है। विधानसभा चुनाव के डेढ़ साल पहले फिर फड़फड़ा उठा है। यह पत्ता बीड़ी में बदलकर वोटरों के जिगर भर को ही नहीं सुलगाता, अपितु चुनावी राजनीति भी इससे सुलगती है। वजह साफ है प्रदेश के 22% वोटर जिन्हें आप अनुसूचित जनजाति कहा करते हैं, उनका चूल्हा इन्हीं पत्तों की वजह से सुलगता है। और यदि चुनाव सामने हों तो इस तेंदूपत्ता के ताप को कौन राजनीतिक दल अपने जिगर में महसूस करने से बचना चाहेगा।

 तेंदूपत्ते की फड़ में शाह का दांव

भीड़ जुटाऊ राजनीतिक जलसे के लिए मशहूर भोपाल के जंबूरी मैदान में 22 अप्रैल को अमित शाह आ रहे हैं। बीजेपी के दावे के अनुसार 1 लाख से ज्यादा तेंदूपत्ता संग्राहक यहां जुटेंगे। शेष 34 लाख संग्राहक अपने-अपने जिले ब्लॉक में नेट/वीडियो के जरिए इस कार्यक्रम में जीवंत शामिल होकर महसूस करेंगे कि उनकी जेब में किस तरह बोनस के 90 करोड़ रुपए डाले जा रहे हैं।

योजना यह है कि 7 संभागों के 20 जिले और उनके 89 आदिवासी ब्लाक्स के 15 हजार गांवों में बसे 1 करोड़ 53 लाख जनजातीय नागरिकों तक सरकार की इस दयालुता को पहुंचाया जाए। मामला चुनावी लोकतंत्र के चाणक्य अमित शाह से जुड़ा है, सो समझ सकते हैं कि किसी भी तरह के झोल की गुंजाइश जीरो परसेंट रखी गई है।

मोदी 2.0 में अमित शाह गृह मंत्री भर ही नहीं हैं, वे सहकारिता मंत्री भी हैं, जो गुजरात के सहकार से निकलकर दिल्ली पहुंचे हैं। तेंदूपत्ता का संग्रहण भी वनवासियों की सहकारी समितियां करती हैं, सो यह सहकार अगली सरकार को कितना बोनस दे सकता है यह गुणाभाग भी इस आयोजन के साथ जुड़ा है। वरना गणित के हिसाब से एक संग्राहक को दिया जाने वाला बोनस का हिस्सा 257 रुपए 14 पैसे तो वन परिक्षेत्र का फड़ मुंशी भी श्रमिकों की जेब में डाल सकता था। भला दो हजार प्रति व्यक्ति के ऊपर खर्च करके जंबूरी मैदान की भीड़ में एक लाख सिर गिनाने की क्या जरूरत पड़ती। सो इस तेंदूपत्ता की सियासत को शुरू से समझने की जरूरत है।

 कभी खरसिया से उठा था तेंदूपत्ते का तूफान

इस वाकए से हमारी पीढ़ी के पत्रकार वाकिफ होंगे, जिन्होंने सन 2000 के पहले भी अखबारनवीसी की है। तेंदूपत्ता किसी नेता के किस्मत की इबारत बदल सकता है, उसे सियासत की भवर से महफूजियत के साथ निकाल सकता है, इसे तीन बार मुख्यमंत्री रहे देश के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह से बेहतर भला और कौन जानता होगा।

बात 1988 की है। मध्यप्रदेश की राजनीतिक उठापठक के चलते मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठाकर सीधे दिल्ली बैठा दिया गया। उनकी जगह भेजे गए अर्जुन सिंह। मुख्यमंत्री की शपथ लेने के छह महीनों के भीतर चुनाव जीतकर आने की मजबूरी के चलते एक विधानसभा सीट चुनी गई खरसिया।

अब के छत्तीसगढ़ के जिले रायगढ़ का छोटा सा नगर तब कांग्रेस का अजेय दुर्ग था। छह बार लगातार विधायक रहे लक्ष्मीनारायण पटेल से इस्तीफा लिया गया, ताकि कुंवर साहब आसानी से जीत सकें। लेकिन बीजेपी ने जशपुर के राजकुंवर दिलीप सिंह जू देव को उतारकर मुकाबले को कुरुक्षेत्रीय बना दिया।

तब ऐसे बनी रणनीति, जीत गए अर्जुन 

तेंदूपत्ता के सबसे बड़े कारोबारियों में से एक लख्खीराम अग्रवाल बीजेपी के घोषित भामाशाह थे। वे इस चुनाव में दिलीप सिंह जू देव के थैलीदार बने। मुख्यमंत्री पद से हटाए गए मोतीलाल वोरा तमतमाए थे ही, उन्हें शुक्ल बन्धुओं (श्यामा-विद्याचरण) का साथ मिला। तेंदूपत्ता के सभी बड़े कारोबारी लख्खीराम की छतरी के नीचे आ गए। 

कांग्रेस का बड़ा और प्रभावी धड़ा अर्जुन सिंह के खिलाफ हो गया। अर्जुन सिंह चक्रव्यूह में घिरे अभिमन्यु की भूमिका में थे, पर थे तो अर्जुन सिंह ही। एक रात अपने करीबी नौकरशाहों और विचारक मित्रों के साथ 12 घंटे साधना की। पौ फटते ही उन्हें एक बाण उनकी तूणीर पर आ चुका था। उस दिन की पहली सभा में लक्ष्य देखकर सरसंधान किया और आवेग के साथ छोड़ दिया। वह तीर था मध्य प्रदेश में नई तेंदूपत्ता नीति का।

इसके बाद तड़ातड़ हमले किए कि वनवासी दलितों और गरीबों को बीड़ीपत्ता ठेकेदारों के शोषण से बचाएंगे। सरकार और श्रमिकों के बीच कोई बिचौलिया नहीं होगा। श्रमिकों की वनोपज सहकारी समितियां बनेंगी और सीधे सरकार खरीदेगी। मुनाफे का बोनस हम सीधे उनकी जेब में डालेंगे। 

दूसरे दिन रायपुर-भोपाल-दिल्ली के अखबारों में सुर्खियों पर था- ‘एक पत्ता आसमान में, सारी सियासत तूफान में। बाद में ‘एक पत्ता आसमान में’ तेंदूपत्ता नीति के विज्ञापनों की पंच लाइन बनी। खरसिया का गणित ध्वस्त हो गया। 

अर्जुन सिंह न सिर्फ भारी मतों से जीते वरन् छत्तीसगढ़ में शुक्ल बन्धुओं और मोतीलाल वोरा की जमीन पर अपने वर्चस्व की मेख ठोंककर भोपाल लौटे। लेकिन यही पत्ता नब्बे के चुनाव में फिर खरपतवार में शामिल हो गया, जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई।

यहां सत्ता का रास्ता बियावानों से गुजरता है

तेंदूपत्ता तो मध्य प्रदेश की सियासत का प्रतीक मात्र है। शिवराज सिंह चौहान और बीजेपी सरकार भले ही आठों याम पिछड़ा-पिछड़ा भजती हो, पर हकीकत यह है कि यहा सत्ता का रास्ता जंगल के बियावानों से होकर गुजरता है। यकीन ना हो तो 2018 के चुनावी आंकड़ों पर गौर करिए।

प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। 33 सीटें ऐसी हैं, जहां अनुसूचित जनजाति के वोट निर्णायक हैं। यानी 80 सीटों को अपने हक में करना है तो बिरसा-बिरसा, टंट्या-टंट्या का जप करना होगा और बिना रघुनाथ शाह-शंकरशाह की जय बोले महाकौशल में प्रवेश वर्जित है।

खैर 2018 के चुनाव में बीजेपी को इन 47 सीटों में से मात्र 16 सीटें मिलीं। कांग्रेस के हक में 31 सीटें गईं, जिसमें एक जयस की भी शामिल है। यदि आदिवासी पट्टी में बीजेपी 2013 का प्रदर्शन दोहराती तो कमलनाथ सरकार बनने की कभी नौबत ना आती। क्योंकि 2013 के चुनाव में बीजेपी ने 31 सीटें जीतीं थी यानी कि 15 सीटें ज्यादा। 

इसलिए सारी कवायद…

अब यदि ये 15 सीटें (अनुसूचित जाति वाली जो 2013 में बीजेपी ने जीती थीं) यथावत रहतीं तो 2018 में बीजेपी के सिंहासन को हिलाने की कुव्वत किसमें होती। अब जो मुश्किल है वो ये कि जयस ने अनुसूचित जनजाति के प्रभाव की सभी 80 सीटों में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। या हो सकता है कि कांग्रेस से गठबंधन हो जाए। 

बीजेपी की पेशानी पर बल इसलिए भी है कि इसकी काट उसे सूझ नहीं रही है, इसलिए इस मिशन में अपने सबसे बड़े चुनावी योद्धा अमित शाह को दांव पर लगा दिया है। पिछले साल अमित शाह ने जबलपुर में अमर बलिदानी रघुनाथ शाह-शंकर शाह पर केंद्रित बड़े समारोह में आए थे। इसके बाद से वह सिलसिला गोंड रानी कमलापति और भील नायक टंट्या मामा के महिमामंडन तक चलता चला आया। झारखंड के वनवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती पर उन्होंने भगवान की भाँति पूजने के सरकारी आयोजन हर साल होने लगे। 

वनवासियों को साधना है, शाह तुरुप का इक्का

दरअसल, वनवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों का जबर्दस्त प्रभाव बना हुआ है। संघ ने वनवासियों के बीच जितना जोरदारी से काम बढ़ाया, मिशनरीज चौगुने फंड, संसाधनों और प्रोपेगैंडा के साथ सामने आ गई। जयस के 80% युवा नेता ईसाई मिशनरियों की स्कूलों से पढ़कर निकले हैं और उनमें से कई उच्चपदों पर हैं। जयस के कांग्रेस समर्थित विधायक डॉ. हीरा लाल अलावा स्वयं एम्स में असिस्टेंट प्रोफेसर रहे हैं। 

जयस के एजेंडे में भी धर्म है, लेकिन वह हिंदुत्व के खिलाफ। पढ़े-लिखे अजजा के युवा आक्रामक तरीके से वैसे ही गांव-गांव जाकर अपने वर्ग के लोगों को संगठित कर रहे हैं, जैसे कि 80 के दशक में काशीराम ने बामसेफ और डीएस4 के बैनर पर किया था। एक तरह से बीजेपी अजजा वर्ग की सुरक्षित सीटें और वोटों पर अब कोई भी दांव खेल सकती है, इस मिशन की बागडोर अमित शाह को थमाने का मतलब अब सभी को समझ में आ जाना चाहिए।

अब तक अप्रभावी रहे हैं शिवराज

शिवराज सिंह चौहान जबसे मुख्यमंत्री बने, तब से अब तक पिछड़े वर्ग का ही कार्ड खेलते जा रहे हैं। उनका यह एक सूत्रीय फॉर्मूला अजजा वर्ग में प्रभाव जमाने के आड़े आता है। मध्य प्रदेश में जहां भी इस वर्ग की ज्यादा आबादी है, वहां सबसे ज्यादा आसामी और दमदार पिछड़े वर्ग के लोग ही हैं। 

वजह यह वर्ग खेती, पशुपालन, वन और कृषि से जुड़े उद्यमों में अपना वर्चस्व रखता है। और यही  वनवासियों का प्रमुख शोषक भी है। सीबीआर के रिकॉर्ड उठाकर देख लें, 80% से ज्यादा संघर्ष और व्यक्तिगत अदावतें पिछड़ा बनाम अजजा के बीच ही हुई हैं। 

वनवासी वर्ग चुप भले रहे ,पर समझता सबकुछ है और जो कोरकसर रहती है, उसे जयस के पढ़े-लिखे युवा समझा देते हैं। ऐसा नहीं है कि शिवराज ने इस वर्ग को बीजेपी के पाले में लाने की कोई कसर छोड़ी हो। 2017 में तेंदूपत्ता संग्राहकों के लिए बोनस के साथ ही आकर्षक घोषणाओं की बौछार सी कर दी। 

चरणपादुका योजना भी उसमें एक थी। चरणपादुका को उन्होंने भगवान राम से जोड़ा। जगह-जगह की सभाओं में शबरी के प्रसंग भी सुनाए। इस नाम से योजना भी शुरू की। चरणपादुका योजना में तेंदूपत्ता संग्राहक महिला-पुरुषों को स्वयं जूते-चप्पल पहनाए, धोतियां और पानी की कुप्पियां बांटी। 

पर सरकार के भ्रष्ट और सड़े सिस्टम ने इस पर पलीता लगा दिया। वल्लभ भवन-विंध्य-सतपुड़ा में बैठे अफसरों ने सामग्री खरीदी पर भ्रष्टाचार किया। घटिया प्लास्टिक के जूते खरीदे गए। उन पर किसी आधिकारिक एक्सपर्ट ने यह कह दिया कि प्लास्टिक के ये जूते कैंसर का कारक भी हो सकते हैं। खैरात बांटने की यह योजना पलट गई और उल्टा असर दिखा गई। यह कहना सही ना होगा कि इसका ज्यादा असर 2018 के चुनाव में अजजा वर्ग की आरक्षित सीटों में हार पर पड़ा होगा, लेकिन इस वर्ग के बीजेपी से सतत छिटकने के गूढ़ कारण तो हैं ही। संभव है कि भोपाल की जंबूरी से अमित शाह वैसा ही कुछ शरसंधान करें, जैसा कि 88 के निजी राजनीतिक समर में अर्जुन सिंह ने किया था।

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