नीरज बुनकर
सन् 2024 की विदाई की बेला में भारतीय सिनेमा पर जाति-विरोधी नजरिए से नज़र डालने का एक अवसर है। हम यहां दलित व अन्य वर्गों के फिल्म निर्माताओं की निर्मितियों के माध्यम से यह समझने का प्रयास करेंगे कि इन निर्माताओं की जाति व राजनीति ने किस तरह उनकी फिल्मों के कथानक, पात्रों और नॅरेटिव को आकार दिया।तंगलान, कोट्टुकाली (जिद्दी लड़की), ब्लू स्टार और वाझाई – ये चारों फिल्में तमिल सिनेमा में एक परिवर्तनकारी दौर के आगाज़ की ओर इंगित करती हैं, जहां सिनेमा के माध्यम का उपयोग जातिगत भेदभाव की पड़ताल करने, हाशिए पर धकेल दिए गए इतिहास को (फिर से) प्रकाश में लाने और दमितों के स्वर को मजबूती देने के लिए किया जा रहा है।
हम पहले दलित फिल्मकारों द्वारा निर्देशित फिल्मों का विश्लेषण कर यह देखेंगे कि उनकी फिल्मों ने जाति-विरोधी विमर्श में क्या और कितना योगदान दिया और उनके कारण हाशिए की आवाज़ों को सिनेमा में कितना स्थान मिला? फिर हम गैर-दलित निर्देशकों की फिल्मों पर आएंगे और यह पड़ताल करेंगे कि उन्होंने जाति से जुड़े मसलों पर कितना ध्यान दिया – या तनिक भी नहीं दिया? इन दोनों कोणों से पड़ताल करने से हम यह आकलन कर सकेंगे कि भारतीय सिनेमा में विभिन्न वर्गों की नुमाइंदगी में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं, और जातिगत समानता स्थापित करने के सवाल पर इस माध्यम ने 2024 में किस तरह की प्रतिक्रिया दी – या यह कि क्या उसने इसका प्रतिरोध किया?
इस साल पा. रंजीत की जबरदस्त हिट फिल्म तंगलान ने जाति-विरोधी सिनेमा में सबसे अहम योगदान दिया। यह फिल्म बहुजनों के इतिहास में गहराई तक गोते लगाकर, हाशियाकृत समुदायों के युद्धकौशल और गिर कर फिर संभलने की उनकी क्षमता का उत्सव मनाती है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर की लब्धप्रतिष्ठित रचना ‘दि अनटचेबिल्स : हू वर दे एंड व्हाई दे बीकेम अनटचेबिल्स’ से प्रेरित यह फिल्म, ब्राह्मणवाद के प्रभाव में बौद्धों (जो पूर्व अछूत हैं) के इतिहास के योजनाबद्ध विरूपण का पर्दाफाश करती है और उसे (फिर से) सामने लाने का प्रयास करती है। ऐतिहासिक और सामाजिक-राजनीतिक कारकों और तथ्यों को अपने कथानक का हिस्सा बना कर, तंगलान वर्चस्वशाली नैरेटिवों को विखंडित करने और बहुजन समुदायों में गर्व और सम्मान के भाव का संचार करने का प्रयास करती है।
तमिल सिनेमा की जाति-विरोधी फिल्मों की फेहरिस्त में एक नया नाम है– पी.एस. विनोथराज की फिल्म कोट्टुकाली (जिद्दी लड़की)। यह फिल्म अलग-अलग जातियों के एक प्रेमी जोड़े की निगाहों से जाति और प्रेम की जटिल अंतःक्रिया की छानबीन करती है। फिल्म में ‘ऊंची जाति’ का परिवार अपनी लड़की पर ‘नज़र’ रखता है और मानता है कि उसका विद्रोह और तय सीमाओं का उसका उल्लंघन या तो प्रेतबाधा का सुबूत है या सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने का। अंतरजातीय रिश्तों में संबंधित व्यक्तियों को जिन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है, उनका निरूपण, कोट्टुकाली को जातिगत दमन और उसके लिए उत्तरदायी पितृसत्तात्मक संरचनाओं की मर्मभेदी समालोचक बनाता है।
वहीं एस. जयकुमार की फिल्म ब्लू स्टार, क्रिकेट – जो भारत को जोड़ने वाला खेल माना जाता है – के क्षेत्र में व्याप्त जातिगत भेदभाव की बात करती है। यह फिल्म क्रिकेट पर केंद्रित एक अन्य फिल्म लगान से इस मायने में अलग है कि जहां लगान के गांववाले दब्बू हैं, वहीं ब्लू स्टार का दलित पात्र दिलेर और अपने इरादों का पक्का है। फिल्म दलित व अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के बीच एकजुटता दिखाती है और खेल व अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मणवाद के बोलबाले के संयुक्त प्रतिरोध की परिकल्पना प्रस्तुत करती है। फिल्म का नॅरेटिव आंबेडकरवादी राजनीति पर आधारित है जो आमतौर पर लोक-संस्कृति में नाममात्र की समावेशिता को चुनौती देती है और आत्मसम्मान व सामूहिक संघर्ष के महत्व पर जोर देती है।
और अंत में मारी सेल्वाराज की फिल्म वाझाई पर बात। यह फिल्म एक उत्कृष्ट कृति है, जो बड़े होते एक दलित बच्चे के अनुभवों की पड़ताल करती है और इसकी भी कि ऐसे अनुभव दलितों के सपनों, महत्वाकांक्षाओं और पहचान को किस तरह आकार देते हैं। यह फिल्म प्रणालीगत भेदभाव, व्यक्तिगत अभिलाषाओं और आसानी से हार न मानने के गुण की परस्पर अंतःक्रिया को दिखने वाले जटिल कथानक को कुशलता से बुनती है। यह फिल्म सूक्ष्मता से दिखाती है कि किस प्रकार जाति बचपन से व्यक्ति के जीवन का दिशा का निर्धारण करने लगती है। वाझाई हमें जातिगत दमन के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक आयामों की याद दिलाती है और साथ ही यह भी बताती है कि एकजुटता और प्रतिरोध किस प्रकार बदलाव के वाहक बन सकते हैं।
ये चारों फिल्में तमिल सिनेमा में एक परिवर्तनकारी दौर के आगाज़ की ओर इंगित करती हैं, जहां सिनेमा के माध्यम का उपयोग जातिगत भेदभाव की पड़ताल करने, हाशिए पर धकेल दिए इतिहास को (फिर से) प्रकाश में लाने और दमितों के स्वर को मजबूती देने के लिए किया जा रहा है। आंबेडकरवादी विचारों और सिद्धांतों को अपने नॅरेटिव में समाहित कर, ये फिल्में न केवल वर्चस्ववादी ढांचों को चुनौती देती हैं, वरन एक जाति-विरोधी सिनेमाई परंपरा की ज़मीन भी तैयार करती हैं – एक ऐसी परंपरा, जो बहुजन समुदायों के प्रतिरोध, अपनी ज़िंदगी के फैसले स्वयं लेने की उनकी कोशिश और उनके जीवन के अनुभवों का उत्सव मनाती हैं।
सुकुमार द्वारा निर्देशित पुष्पा 2: द रूल, अपनी पिछली कड़ी पुष्पा: द राइज की तरह तेलुगू फिल्म संसार से बाहर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल रही है। इसे हिंदी-भाषियों की भी खासी सराहना हासिल हुई है। फिल्म का केंद्रीय पात्र पुष्पा, हाशिए के समाज से आता है। उसे अवैध संतान बता कर कलंकित किया जाता है और उसका उपनाम न होने का मखौल बनाया जाता है। उपनाम यह तय करता है कि कोई किस वंश का है और उसे समाज में कितना सम्मान मिलना चाहिए। चूंकि पुष्पा ‘सम्मानजनक वंश’ से नहीं है, इसलिए उसके परिवार और पहचान पर सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन ये सामाजिक पूर्वाग्रह पुष्पा की राह में बाधा नहीं बन पाते। वह मुसीबतों से डटकर लड़ता है, उसमें असाधारण कौशल है, ढेर सारी अभिलाषाएं हैं और वह शक्ति और मान्यता हासिल करने के लिए सतत संघर्ष करता है। उसकी जीवनयात्रा, दमनकारी सामाजिक ढांचों को चुनौती देती है और वह अपनी शर्तों पर गरिमा और सम्मान अर्जित करता है।
इस वर्ष कई ऐसी मलयालम फिल्में भी बनीं, जिन्होंने पूरे देश में नाम कमाया। ब्लेस्सी की फिल्म आडुजीवितम, बेनयामिन के शानदार उपन्यास का शानदार फ़िल्म रूपांतरण है, जो सऊदी अरब के रेगिस्तान में फंसे एक प्रवासी मजदूर की खौफनाक लेकिन प्रेरणादायक कहानी सुनाती है। फिल्म में मनुष्य के जिंदा रहने के संघर्ष और कष्ट सहने की उसकी क्षमता का प्रभावी चित्रण किया गया है, जो हाशियाकृत वर्गों की कभी हार न मानने के गुण को प्रदर्शित करता है। ऐसे ही चिदंबरम की मंजुम्मेल बॉयज, जीवन की एक फांक की कथा ताजगीपूर्ण तरीके से सुनाती है। यह एक छोटे-से शहर के युवा लड़कों के समूह के सपनों और उनके बीच दोस्ती पर केंद्रित है। फिल्म में हास्य और भावनात्मक गहराई के बीच कुशलतापूर्वक संतुलन स्थापित किया गया है। यह फिल्म केरल के युवाओं के समक्ष उपस्थित चुनौतियों और मित्रता की जटिलताओं पर भी प्रकाश डालती है।
राहुल सदाशिवन की ब्रामायुगम, मनोविज्ञानिक हॉरर फिल्म है, जो जनश्रुतियों और अलौकिक शक्तियों के बारे में कहानियों की सहायता से एक कथानक बुनती है। फिल्म की किस्सागोई नायाब है और फिल्म परदे पर जिस अलौकिक वातावरण की सृष्टि करती है वह मलयालम सिनेमा में इस विधा की फिल्मों के लिए एक नया मानक है। इस फिल्म में जिस तरह के नए प्रयोग किये गए हैं, उन्हें आलोचकों की सराहना मिली है। जीतू माधवन की आवेशम एक रोमांच फिल्म है, जिसका कथानक दर्शकों को बांधे रखता है और जिसके नॅरेटिव में कहीं भी ढीलापन नहीं है। फिल्म के कथानक में प्रतिशोध, नैतिकता और अनियंत्रित क्रोध के परिणाम शामिल हैं और इसे दर्शकों और आलोचकों दोनों का प्रतिसाद हासिल हुआ है।
जहां इन सभी फिल्मों को मुख्यतः भारत में देखा और सराहा गया वहीं पायल कपाड़िया की आल वी इमेजिन एज़ लाइट को वैश्विक स्तर पर ख्यक्ति मिली। इस फिल्म का प्रीमियर 77वें कांस फिल्मोत्सव में हुआ। उसे प्रतिष्ठित ‘पाम ड’ओर’ सम्मान के लिए नामांकित किया गया और ‘ग्रांड प्री’ से पुरस्कृत किया गया। यह फिल्म तीन महिलाओं की कहानी मलयालम, हिंदी और मराठी में बुनती है और उनकी पहचान, चुनौतियों से लड़ने की उनकी क्षमता और उनके जीवन के अनुभवों की जटिलताओं का बखूबी चित्रण करती है। उसकी काव्यात्मक किस्सागोई और भावनाएं जगाने वाले दृश्य, उसे समकालीन वैश्विक सिनेमा की एक अहम कृति बनाते हैं।
इस साल हिंदी फिल्म जगत में कई फिल्में एक विशिष्ट राजनीतिक सोच को मजबूती देती दिखीं। वे देशभक्ति और भारतीयता की थीमों पर केंद्रित और भारत बनाम पाकिस्तान द्वंद्व की धुरी के आसपास घूमती नज़र आईं। ऐसी फिल्मों के कुछ उदाहरण हैं रवि जाधव की मैं अटल हूं, सिद्धार्थ आनंद की फाइटर, आदित्य सुहास जम्भाले की आर्टिकल 370, सुदिप्तो सेन की बस्तर: द नक्सल स्टोरी, रणदीप हूडा की स्वातंत्र्य वीर सावरकर और विनय शर्मा की जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी। ये फिल्में दर्शकों पर राष्ट्रवादी बुखार चढ़ाने की भरसक कोशिश करती हैं और इनकी प्राथमिकता कहानी सुनाना नहीं, बल्कि प्रोपेगंडा करना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्टिकल 370 को ‘सही जानकारी’ को संप्रेषित करने का ‘उपयोगी’ औजार बताया और अपनी पार्टी के सांसदों के साथ द साबरमती रिपोर्ट देखी। इससे इन फिल्मों के निर्माताओं की विचारधारात्मक वफादारियां और साफ़ हो जाती हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इन फिल्मों का अनुमोदन यह बताता है कि वे एक विशिष्ट एजेंडा को आगे बढ़ाने वाली हैं और वर्चस्वशाली राजनीतिक एजेंडा और सत्ताधारी राजनीतिक दल का समर्थन करती हैं।
इसके विपरीत, कुछ फिल्मों ने अहम सामाजिक समस्याओं की पड़ताल की। हालांकि उनकी पड़ताल की गहराई और सूक्ष्मता व उनका प्रभाव एक समान नहीं था। मसलन, किरण राव की लापता लेडीज, जो ऑस्कर पुरस्कारों के लिए भारत की आधिकारिक प्रविष्टि थी, ग्रामीण भारत में व्याप्त पितृसत्तात्मकता की समालोचना करते हुए महिलाओं के अरमानों पर प्रकाश डालती है। मगर इसका कथानक जाति के महत्वपूर्ण आयाम को नहीं छूता, जिससे उसके अंतरानुभागीय विश्लेषण का विस्तार सीमित हो जाता है। इम्तिआज़ अली की अमर सिंह चमकीला, इस मकबूल पंजाबी गायक की जीवनयात्रा का बढ़िया चित्रांकन करती है, मगर वह केवल उसकी व्यक्तिगत समस्याओं जैसे शराबखोरी और पारिवारिक विवादों तक सीमित है। वह चमकीला के क्रांतिकारी सामाजिक-राजनीतिक विचारों को समुचित महत्व नहीं देती और न ही उनके जातिगत और वर्गीय संघर्षों को पर्याप्त तवज्जो देती है। समाज के पाखंडी चरित्र का चमकीला ने किस तरह पर्दाफाश किया, उस पर भी यह फिल्म प्रकाश नहीं डालती। यह फिल्म उनके अंतरजातीय विवाह और उनकी रचनाओं के व्यापक सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थों को भी नज़रअंदाज़ करती है। दिलजीत दोसांझ ने चमकीला के रूप में बेहतरीन अभिनय किया है। वहीं अमरजोत कौर के रूप में परिणिति चोपड़ा का अभिनय जीवंत मगर कुछ बंधा-सा, कुछ ठहरा हुआ-सा है।
इस साल के 15 अगस्त को रिलीज़ हुई निखिल आडवाणी की वेदा, जातिगत दमन – जिसकी पड़ताल बॉलीवुड की फिल्में कम ही करती हैं – की बात तो करती है मगर वह इस सामाजिक मुद्दे को उठाने और बॉक्स ऑफिस की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए संघर्ष करती दिखती है। यह फिल्म राजस्थान की अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में वेदा नाम की दलित लड़की के बॉक्सर बनने की अभिलाषा की कहानी कहती है। लेकिन इसका नॅरेटिव ऊंची जाति के एक मुक्तिदाता मेजर अभिमन्यु कंवर पर अधिक केंद्रित है। बजाय वेदा के व्यक्तिगत प्रयासों के। यह फिल्म बेशक जातिवाद, पितृसत्तात्मकता और अछूत प्रथा का चित्रण करती है, मगर उसका सुधारवादी नॅरेटिव ऊंची जाति के मुक्तिदाता के गांधीवादी मॉडल पर ज्यादा जोर देती है और आंबेडकर के क्रांतिकारी आदर्शों पर कम। इससे पता चलता है कि प्रणालीगत भेदभाव के कथानकों में भी, जातिगत पूर्वाग्रह छुपे रहते हैं। इसके अलावा, आइटम सॉंग्स और खंडित किस्सागोई इसके प्रभाव को और कम करते हैं।
इस साल की व्यावसायिक दृष्टि से सफल फिल्में जैसे अमर कौशिक की स्त्री 2, अनीस बज्मी की भूलभुलैय्या 3 और रोहित शेट्टी की सिंघम अगेन विशुद्ध बॉलीवुड मसाला फिल्में हैं, जो ब्राह्मणवादी प्राधान्य और वर्चस्वशाली सांस्कृतिक नॅरेटिव को चिरायु बनाना चाहती हैं। ये फिल्में आम लोगों की पसंद को ध्यान में रखते हुए और केवल उनके मनोरंजन के लिए बनाई गईं हैं। ये मुख्यधारा के रूपकों को बढ़ावा देती हैं और सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की समालोचनात्मक छानबीन करने का कोई प्रयास नहीं करती हैं।
कुल मिलाकर, वर्ष 2024 में भारतीय सिनेमा में जाति-विरोधी नॅरेटिव और मुख्यधारा के कथानक दोनों ने अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई। जहां एक ओर पा. रंजीत, मारी सेल्वाराज और पी.एस. विनोथराज जैसे फिल्म निर्माताओं ने प्रभावी आंबेडकरवादी कथानकों के ज़रिये, जातिगत समानता के आदर्श को मजबूती दी और हाशिए के आवाज़ों को हम तक पहुंचाया, वहीं दूसरी ओर बॉलीवुड ने इन मुद्दों को या तो पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया या नाममात्र का महत्व दिया। वेदा जैसी फिल्मों ने जाति से जुड़ी सच्चाइयों से हमें रू-ब-रू करवाने की कुछ कोशिशें करती दिखीं, मगर वे भी दलित परिप्रेक्ष्यों को केंद्र में रखने या वर्चस्वशाली सोच को चुनौती देने में असफल रहीं। दूसरी ओर बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन करने वाली कई फिल्मों पर अति-राष्ट्रवादी और ब्राह्मणवादी नॅरेटिव हावी रहे। यह साफ़ है कि पॉप कल्चर में वर्चस्ववादी ढांचों का दबदबा बना हुआ है।
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