शहरों, गांवों, मुहल्ले के बीच सघन बस्तियों की जिंदगी किस तरह सांस ले रही है और वहां किस तरह की मुश्किलें हैं। इनकी आवाज तेज भागते कदमों के शोर में गुम हो जाती है। कभी कभी घटनाओं की शक्ल में ऐसी आवाजों की धीमी आहट सुनाई देती है, लेकिन फिर हम अपने रोजमर्रा के कामों में मशगूल हो जाते हैं। इन आवाजों को सुनने के लिए धैर्य के साथ संवेदनशील कानों की भी जरूरत है। परवाज के साथियों ने इन आवाजों को पकड़ने की कोशिश की है। इन्हीं में से एक साथी की कहानी, जिसे सरोज कहें या सुहानी, अना कहें या अविधा कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह कहानी हमारे आसपास के हर घर की है। जहां सपने दम तोड़ रहे हैं, जिंदगियां असुरक्षित हैं और खौफ दिलों में अजगर की सी जकड़ बनाए हुए है। इसके बावजूद जीवट हौसलों के साथ वे बंधनों को तोड़कर अपने लिए नई राह तलाश कर रही हैं। संविधान लाइव पर ऐसी कहानियों की सीरीज में यह तीसरी किस्त)
काफी टाइम पुरानी बात है। मेरी बहुत छोटी उम्र थी। उन दिनों मुझे ये भी नहीं पता था कि पढ़ाई लिखाई क्या है। बस पढ़ना था और कुछ नहीं। लेकिन यह नहीं पता था कि आगे जा कर मुझे इसका एहसास होगा।
मेरे घर में आर्थिक तंगी थी। जिसकी वजह से मैं पढाई नहीं कर सकी। मेरे सपने पूरे नहीं हुए। मेरी पढ़ाई छूटने के कुछ साल बाद ही मेरी शादी हो गई और उसके बाद मेरे साथ वो हुआ जिसका मैंने सोचा भी नहीं था। शादी के बाद दिन पर दिन मेरे साथ वो होता गया, जिसको देख कर मैंने सपने देखना छोड़ दिया। मेरा हर एक पल बस ऐसा था जो मुझे तोड़ता गया। मेरे पति कभी मेरी बात समझ ही नहीं सके। ना ही उनकी ज़िन्दगी में मेरे लिए कोई इंपोटेंस ही थी। मेरी कोई बात नहीं समझी। हर रोज़ लड़ाई झगड़ा और घर के हालात।
बस मैं उन्हीं में उलझ कर रह गई। कभी मुझे आगे बढ़ने के लिए रोका गया। फिर मैंने अपने आप ही खुद को रोक दिया। यूं लगता था मेरी ज़िन्दगी बस चार दीवारों के अन्दर ही है। मैं आगे कुछ सोच नहीं पा रही। कुछ नहीं देखा। फिर मेरा बेटा हुआ और में सिर्फ उसमें ही लगी रही। सब भूल गई थी। लेकिन मेरे हालात उससे भी ज्यादा ख़राब होते रहे। कुछ भी सुधार नहीं आया।
मैंने हर वक़्त भूखी रहकर भी अपने बच्चों का ख्याल रखा। उन्हें देखती रही। पालती रही। बस यही सोच कर कि आज नहीं तो कल मेरे हालात अच्छे हो जाएँगे। मेरे सपने नहीं तो मेरे बच्चों के सपने, मुझे उनकी ख़ुशी पूरी करना है। पर ऐसा नहीं हुआ। फिर मेरा दूसरा बेटा हुआ। वह समय मेरे लिए कड़ी चुनौतियों से भरा था। दो बच्चों के भविष्य को कैसे अच्छा करूं। ताकि मैं उन्हें सारी खुशियां दे सकूं। उनके पापा के साथ होते हुए भी मैं अपने बच्चों को अकेले ही पालती रही।
बच्चे बढ़ते रहे। जो मेरे साथ हुआ था वही बच्चों के साथ हो रहा था। उन्हें भी कोई अच्छा भविष्य नहीं मिल रहा था। बच्चों की कोई ज़रूरत पूरी नहीं हो पा रही थी। न ही उनको अच्छी शिक्षा मिल पा रही थी। मेरे घर के हालात बद से बदतर होते रहे।
सब कुछ मुझे दिन पर दिन तोड़ता जा रहा था। फिर मैंने सोचा कि अपने लिए नहीं तो अपने बच्चों के लिए मुझे कुछ करना है। ताकि मैं उन्हें सारी खुशियां दे सकूं। मैंने घर पर से काफी सारे काम किए है। घर वालों का दवाब इतना था कि मैं कुछ नहीं कर पाई। बस दबती रही। झिझकती रही। किसी के सामने आना। कही भी जाना मैं पसंद नहीं करती थी।
अपनी आवाज़ को अन्दर ही अन्दर दबाती रही। सब सहती रही और फिर मैं हिम्मत हार गई। मेरी ज़िन्दगी चार दीवारों में है और वही ख़त्म होना है। मेरे बच्चों को भी वैसे ही रखना है। यह सब देखते हुए हिम्मत टूट गई थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं कभी बाहर निकल कर अपने लिए या अपने बच्चों के लिए कभी कुछ कर भी सकती हूँ। क्योंकि घरवालों के दिन रात ताने मुझे तोड़ते रहे। मैं घरेलू हिंसा का शिकार होती रही। मैं बहुत टूट चुकी थी।
लेकिन कहीं न कहीं मुझे अपने आप पर भरोसा भी था कि मैं शायद कुछ कर सकती हूं। जब तक में अपने लिए, अपने हक़ के लिए आवाज़ नहीं उठाऊंगी, तब तक मैं कुछ नहीं कर सकती। मैं उस जगह अपने दोनों बच्चों के साथ बिल्कुल अकेली थी। मुझे कहीं भी कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। कोई उम्मीद की किरण नज़र नहीं आ रही थी।
इस बीच कुछ साथी लोग मेरी ज़िन्दगी में ऐसे आए, जिन्होंने मुझे दुनिया के तौर तरीकों के बारे में बताया। मुझे हालात से लड़ना सिखाया। मैं अपनी आवाज़ कैसे उठा सकती हूं? अपने लिए कुछ कर सकती हूं। कड़ी चुनौतियों का सामना करने के बाद मुझे उम्मीद की एक किरण नज़र आई। फिर मैंने फैसला किया कि अब मैं भी अपने पैरों पर खड़ी होउंगी। फिर मैं उन चार दीवारों से निकली, जिसमे मैं अपने सारे सपने भूल बैठी थी। मैंने खुद को आत्मनिर्भर बनाने का सोचा। वहां से निकली जहां पर मैं खत्म हो चुकी थी। आज मैं उन महिलाओं के लिए निकली हूं, जो खुद मेरी तरह घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं, जो अपने लिए कुछ नहीं कर पाती हैं।
अब मैं अपने आप में आत्मनिर्भर हूं। अपने लिए कुछ कर सकती हूं और मैं उन महिलाओं से कहना चाहती हूं कि अपनी आवाज़ को दबाओ नहीं बल्कि आवाज़ उठाएं। तब ही आप अपने लिए और अपने बच्चों के लिए कुछ कर पाएंगी।
कुछ बनो। कामयाबी आपकी आदतों की गुलाम होती है। जब अकेले चलने लगे हैं, तब समझ आया कि हम किसी से कम नहीं। दुनिया में हर एक काम आसान होता है, बस आपके अंदर उसे पूरा करने का जुनून होना चाहिये।